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महावीर वाणी
जीव दो प्रकार के हैं - संसारी और मुक्त। दोनों ही प्रकार के जीव चैतन्यस्वरूप और उपयोग-लक्षण वाले होते हैं; परन्तु संसारी जीव देह- सहित होता है और मुक्त जीव देह-रहित ।
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२. ण हि इंदियाणि जीवा काया पुण छप्पयार पण्णत्ता । जं हवदि तेसु णाणं जीवो त्ति य तं परूवंति । ।
(पंचा० १२१ )
संसारी जीव की इन्द्रियाँ जीव नहीं हैं। छः प्रकार के शरीर कहे गए हैं वे भी जीव नहीं हैं; किन्तु उन इन्द्रियों और शरीरों में जो ज्ञानवान् द्रव्य है, उसी को जीव कहते हैं ।
३. जाणदि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुक्खं बिभेदि दुक्खादो । कुव्वदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं । । (पंचा० १२२)
जीव सबको जानता और देखता है, सुख की इच्छा करता है, दुःख से भयभीत होता है, हित अथवा अहित करता है और उनके फल को भोगता है ।
४. जीवो त्ति हवदि चेदा उपओगविसेसिदो पहू कत्ता । भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो ।।
(पंचा० २७) वह जीव चेतयिता है, उपयोग से विशिष्ट है, प्रभु है, कर्त्ता है, भोक्ता है, अपने शरीर प्रमाण है, अमूर्त है पर कर्मों से संयुक्त है ।
५. पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हु जीविदो पुव्वं । सो जीवो पाणा पुण बलमिंदियमाउ उस्सासो । । (पंचा०.३०)
जो चार प्राणों के द्वारा वर्तमान में जीवित है, भविष्य में जीवित रहेगा और पूर्वकाल में जीवित था, वह जीव है। वे चार, घ्राण हैं - बल ( मन बल, वचन बल, काय बल). इन्द्रिय (श्रोत, चक्षु, घ्राण, रसन स्पर्शन), आयु और श्वासोच्छ्वास ।
६. जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं । तह देही देहत्थो सदेहमेत्तं पभासयदि ।।
(पंचा० ३३)
जैसे दूध में रखा हुआ पद्मराग नामक रत्न दूध को अपनी प्रभा से प्रकाशित करता है, वैसे ही जीव शरीर में रहता हुआ अपने शरीर मात्र को प्रकाशित करता है। ७. अप्पा उवओगप्पा उपओगो णाणदंसणं भणिदो ।
सोहि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि । । (प्र० सा० २ : ६३)
जीव उपयोगस्वरूप है और उपयोग जानने और देखनेरूप कहा गया है। जीव
का वह उपयोग भी शुभ अथवा अशुभ दो प्रकार का होता है ।