Book Title: Loka Vinshika
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Manikyasagar Suri
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द्वितीयविशिका
२०१
रागमेन गणितपरिपाट्या वा विरोधमधिरोहति, विचार्यते यदि सम्यग् "विरुद्धमुक्त यदिहाममादे-विधाय शुद्धि विवुधा उशन्तु । पूज्या ममारं गणिराजपादा , सडग्राहका गिष्टतराश्च वन्द्या: ||१॥" इति । कालोऽपि खलुत्सपिण्यादिरूपोऽववोध्यः यो यत्र भवति स तत्र सानुभावो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तेर्भगवत्या एव । तृतीयभेदं पर्यायलोकस्य निरूपयन्त आहुः-"भवाणुभावे अ"त्ति । तत्र भवन्ति प्राणिनः प्राग्बद्ध निवत्तनिकाचनोदीरणोदयनिर्जरापेक्षमस्मिन्निति भव । पूर्वोक्तचतुर्विधगतिभेदेन भिन्नत्वाच्चतुर्विध एवासी, तस्यानुभाव -प्रभावो मर्यादा, यथोच्यते गतिचतुष्टयमाश्रित्य
"नरएसु जाइं अइक्रक्खडाइ दुक्खाइ परमतिक्खाइ। को वण्णेही ताइ जीवतो वासकोडी वि ।।१॥ कक्खडदाह सामलि-- असिवण-वेयरणि-पहरणसएहि । जा जायणा उ पावति नारया त अहम्मफल ॥२॥ अछड्डियविसयमुहो पडड अविज्झायसिहिसिहानिवहे। समारोदहिवलयामुहम्मि दुक्खागरे निरए ॥३॥ पायक्कतोरत्थलमुहकुहरुच्छलियरुहिरगडूसे । करवत्तुक्कत्तदुहा विरिक्कविविइन्नदेइद्धे ॥४॥ जततर-भिज्जतुच्छलतससभरियदिसि विवरे । डज्झतुप्फिडिय-समुच्छलत-सीसन्ठि-सघाए ॥५॥ मुक्कक्कंद-कटाहुक्कटतदुक्कयकयंतकम्मते। सूल-विभिन्नुक्खित्तुद्धदेहणिट्ठतपब्भारे ॥६।। सद्दधयारदुग्गधवधणायारदुद्धरकिलेसे । भिन्न-करचरणसकररुहिरवसा-दुग्गमप्पवहे ।।७।। गिद्धमुहणिद्दङक्खित्तवधणोमुद्धकदिरकवधे। दढगहियत तसडासयग्गविसमुक्खु डियजीहे ॥८॥ तिक्खकुसग्गाकढियकटयरुक्खग्गजज्जरसरीरे । निमिसतर पि दुल्लहसुक्खेवक्खेवदुक्खम्मि ।।९।। इय भीसणम्मि निरए पदति जे विविहसत्तवहनिरया । सच्चभट्ठा य नरा जयमि कयपावसधाया ॥१०॥ जहा इह ,अगणी उण्हो इत्तो णतगुणो

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