Book Title: Loka Vinshika
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Manikyasagar Suri

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Page 221
________________ द्वितीयविशिका . २१५ येऽपि न तेषा नाधर्मलेशो, येन निरुपमसुखास्पद ते स्यु । यन्न दुःखेने सम्भिन्न न च भ्रष्टमनन्तरम् । अभिलाषापनीतं च तज्ज्ञेयं स्व सदा पद ॥ मित्यादि त्वौपचारिकमेवावगन्तव्य, भ्रष्टताया. श्रुतिस्मृतिशतेन सिद्धत्वात् । अन्यच्च-यथा तेषा शारीरिक सुख वर्णातिगं तथा दु.खमपि मानसिकमपि "सर्व हि महता महत्" इतिलोको'क्तिसत्यीकरणायेव महत्तममेव । यदाहु. "सम्यग्दर्शनपालनादिभिरपि प्राप्ते भवे त्रैदगे, जीवा. शोक-विपाद-मत्सर-तपस्वल्पद्धिकत्वादिभि । -ईर्ष्या-काम-मद-क्षुधाप्रभृतिभिश्चात्यन्तपीडादिता , क्लेशन क्षपयन्ति दीनमनसो दीर्घ निजं जीवितम् ॥१|| देवा वि देवलोए दिव्वाभरणाणुरंजियसरीरा । ज परिवडेंति तत्तो तं दुक्खं दारुण तेसि ॥२॥ त सुरविमाणविभव चिंतिय चवणं च देवलोगाओ। अइवलिय चिय ज न वि फुटइ सयसक्कर हियय ॥३।। ईसा-विसाय-कोह-मय-माय-लोभेहि एवमाइहिं । देवा वि समभिभूआ तेसि कत्तो सुह नाम ॥४॥ रिद्धिभरसजुआण वि अमराण नियसमिद्धिमासज्ज । पररिद्धि अहिअ पिच्छिऊण उज्झति अगाइं ॥५॥ उण्णयपीणपओहर-नीलुप्पलनयण-चदवयणाई। 'अन्नस्स कलत्ताणि य दळूण वि अंभइ विसाओ ।।६।। एगगुरुणो सगासे तवमणुचिन्न मए विमणेणावि । हद्धी मज्झ पमाओ फलिओ 'एयस्स अपमाओ॥७॥ इय ज्यूरिऊण वहुसो अइ कोइ सुरो महि ढियसुरस्स। भज्ज रयणाणि अ अवहिऊण मूढो पलाएइ ।।८।। "तत्तो वज्जेण सिरम्मि ताडिओ विलवमाणओ दीणो। उक्कोसेण वि यण अणुभुजइ जाव छम्मासं ॥९॥ ईसाइदुहीअण्णो अण्णो वेरि जणकोवसतत्तो। 'अण्णो मच्छरदुहिओ नियडीइ विडविओ अण्णो ।।१०।। अण्णो लुद्धो गिद्धो पमुच्छिओ रयणदारभवणेसु । अभिओ

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