Book Title: Loka Vinshika
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Manikyasagar Suri

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Page 222
________________ द्वितीयविगिका २१६ गजणियपेसत्तणेण अइदुक्खिओ अन्नो ॥११।। पज्जते उण झीणम्मि आउए निव्वडततणुकपे । तेयम्मि हीयमाणे जायते तह विवज्जासो ।।१२।। आणे वि लघमाणे अणायरे सयलपरिअणजणम्मि । त रिद्धि पुरओ उण दारिद्दभय नियताणं ॥१३॥ रयणमयपुत्तियाओ सुवण्णकंतीउ तत्थ भज्जाओ। पुरओ उण काण कुज्जिअ च असुइ । च वीभच्छ ॥१४॥ तत्थ वि य दुविणीय कलेसलभं पिय मुणताणं । तत्थ मणिच्छिय-आहारविसयवत्थाइसुहियाण ॥१५॥ पुरओ परघरपेसत्तणेण विण्णायउयरभरणाणं। रमियाइ तत्थ रमणिज्जकप्पतरुगहणदेसेसु ।।१६।। पुरओ गन्भे वसहि दठ्ठ डुबीइ रासभीए वा । सा उप्पज्जइ अरइ सुराण ज मुणइ सव्वन्नू ।।१७।। अज्ज वि अ सरागाण मोहविमूढाण कम्मवसगाण । अन्नाणोवहयाण देवाण दुहम्मि का सका ॥१८॥ सम्मद्दिट्ठीण वि गन्भवासपमुह दुह धुव चेव । हिंडति भवमणतं केई गोसालयसरिच्छा ॥१९॥" अत एव पठ्यते-"जइ ता लवसत्तमसुरविमाणवासी वि परिवडति सुरा । चिंतिज्जंत सेसं. ससारे सासय कयर ॥१॥ कह त भण्णइ सुक्खं सुचिरेण वि जस्स दुक्खमल्लियइ। जच मरणावसाण भवससाराणुबधि च ॥२॥" तत्त्वतस्तु तेषां वैषयिकसौख्यसमालिङ्गिततनूना प्रकर्षवत्पुण्यकर्ममात्रफलभोगभुजगाना न सुखलेशोऽपि परमार्थदृशाम् । यदाहुः "फलाभ्या सुखदु खाभ्या न भेद. पुण्यपापयो.। दुःखान्न भिद्यते हन्स यत. पुण्यफल सुखम् ॥१॥ सर्वं पुण्यफल दु.खं कर्मोदयकृतत्वत.। तत्र दु.खप्रतीकारे विमूढानां सुखत्वधी ॥२॥ परिणामाच्च तापाच्च सस्काराच्च बुधर्मतम् । गुणवृत्तिविरोधाच्च दुख पुण्यभव सुखम् ।।३।। देहपुष्टेनरामर्त्यनायकानामपि स्फुटम् । महाजपोषणस्येव परिणामोऽतिदारुण ॥४॥ जलोका. सुखमानिन्य.

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