Book Title: Loka Vinshika
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Manikyasagar Suri

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Page 220
________________ द्वितीयविशिका २१४ छुहं वहइ भर पावमायरइ । दिट्ठो कुलसीलजाइपच्चयधीर च लोभद्द ओ चयइ ॥४७।। कइया वच्चइ सत्यो कि भड कत्थ कत्तिया भूमी। को कय-विक्कयकालो विक्किस्सइ किं कहिं केण ।।४८।। उक्खणइक्खणइ निहणइ रत्ति न मुबइ दिया विय ससको। लिपइ ठइज्ज सयय लछियपडिलछियं कुणड ॥४९॥ भुजसु न ताव रिक्को जेमेउ न वि य अज्ज मज्जीह । न विय वसीहामि घरे कायव्वमिण बहु अज्ज । ५०॥ किं किं न कय किं कि न ' कारिय कह कह न नामिय सीस । दुभर-उयरस्स कए कि न कय कि न कायव्व ॥५१॥ जिज्झइ मुहलायण्ण दाया घोलेति कठममि । कह कह कहेइ हियय देहि त्ति पर भणतस्स ॥५२॥ न च निरुप्यमन्त करणे साक्षरैरिद, यदुत-भवन्तु नरकादिगति त्रयीत्रिशडकुभिन्नभावितभावाना दुस्तराणि दुखवृन्दानि, न यानि वर्णयितुमाकर्णयितु वा पार्यन्तेऽपारसमयसागरपारङ्गमैरपि विद्वद्भि. प्रतिसमयाप्रतिहतप्रज्ञानपटुत्वविद्रितविश्वविश्वचराचराचारवाडमन कर्मतात्पर्य केलिभिरपि क्षुत्क्षामकुक्षिद्विजघृतपूरवाञ्छातिगवाञ्छापूरै श्रोतृभिश्च, पर विवुधालय वित्ति-प्राग्भवविहितातुलधर्मविधानजनितानन्यसाधारणसातादिकर्मोदयसम्पादितपरमप्रकृष्टपञ्चेन्द्रियभोगभ्राजिष्णुस्वावतारपरिहतव्रतादिप्रतिपत्तिदिव्यप्रेमभाजनसुराङ्गनाहावभावोत्पादिताख्यातिक्रान्तप्रमोदपूरमनोमात्रसाविताशेषकार्यपरानधीनकार्यलेशामयस्वेदजराकृतजर्जरशरीरत्वेन्द्रियहानिदृष्टयपटुत्वादिरहित-यथेच्छगमनागमनविधानविज्ञाप्रतिपातिज्ञानत्रयीधारणज्ञापितसदातनात्मनैर्मल्याना सुराणा तु कथडार दु खनामापि भविष्यतीति चेत् ? मा भ्रातरस्त्वरिवः कर्मजन्यसुखमात्रस्य क्षीयमाणत्वेन प्रतिक्षण नामशेषतोहनीयवोहाद्भि, यदाहुरन्येऽपि-"पुण्यचितोऽपि क्षीयते लोक." इत्यादि, धर्मप्राचु

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