Book Title: Loka Vinshika
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Manikyasagar Suri
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द्वितीयविशिका
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स्तेऽप्यज्ञान-दरिद्रता-व्यसनिता-दौर्भाग्य-रोगादिभिः । अन्यप्रेपण-मानभञ्जन-जनावज्ञादिभिश्चानिशं, दुःख तद्विषहन्ति यत्कथयितु शक्य न कल्पैरपि ।।५।। रंभागर्भसम सुखी शिखिशिखावर्णाभिरुच्चरयः
सूचीभि प्रतिरोमभेदितवपुस्तारुण्यपुण्य पुमान् । ' - दुःखं यल्लभते तदष्टगुणित स्त्रीकुक्षिमध्यस्थिती, सम्पद्येत ततोऽप्यनन्तगुणित जन्मक्षणे प्राणिनाम् ॥६॥
जायमाणस्स ज दुक्ख मरमाणस्स जतुणो। तेण दुक्खेण; संतत्तो न सरई जाइमप्पणो ॥७॥ विरसरसिय रसंतो तो सो.. जोणीमुहा न निप्फडइ । मायाए अप्पणो वि य वेयणमउलं जणेमाणो ॥८॥ हीणभिण्णस्सरो दीणो विवरीओ विचित्तओ। दुबलो दुक्खिओ.वसइ सपत्तो चरम दस ।।९।।
वाल्ये. मूत्रपुरीषधूलिलुठनाज्ञानादिभिर्नन्दिता, , तारुण्ये विभवार्जनेष्टविरहानिष्टागमादिय॑था। वृद्धत्वे तनुकम्प-दृष्ट्यपटुता-श्वासाद्यतुच्छात्मता,
तत्का नाम दशाऽस्ति सा सुखमिह प्राप्नोति यस्या जन ॥१०॥ खुहिअ पि वासिम वा वाहिग्घत्थ च अत्तय कहिउ । बालत्तम्मि न तरइ गमइ रुअतु च्चिय वराओ ॥११॥ खेल-खलटियवयणो मुत्त-पुरिसाणुलित्त-सव्वंगो। धूलि-भरुडियदेहो कि सुहमणुहवइ किर बालो ॥१२॥ खिवइ कर जलणम्मि पक्खिवइ. मुहम्मि कसिणभुयग पि। भुज्जइ अभुज्जपिज्ज बालो अन्नाणदोसेण ॥१३॥ उल्ललइ भमइ. कुक्कइ कीलए जपए असबद्धं । धावइ निरत्थय पि हु निहणतो भूयसघाय ।।१४।। इअ असमजसचिठिी अन्नाणविवेअकुलहरं गमि-जीवेण वालत्त पावसयाई कुणतेणं ॥१५।। बालस्स वि तिव्वाइ दुहाइ दळूण निययतणयस्स ।

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