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याद तीसरी ऐसी क्रमिक अनेक अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। इन्हीं अवस्थाओं की श्रेणि को 'विकास-क्रम' या 'उत्क्रान्ति-मार्ग' कहते हैं। और जैनशास्त्रीय परिभाषा में उस 'गुणस्थान-क्रम कहते हैं । इल विकास-क्रम के समय होनेघाली आत्मा की भिन्न भिन्न अवस्थाओं का संक्षेप,१४ भागों में कर दिया गया है । ये १४ भाग, गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं। दिगम्बर-साहित्य में 'गुणस्थान' अर्थ में संक्षेप, श्रोध, सामान्य और जीवसमास शब्दों का भी प्रयोग देखा जाता है । १४ गुणस्थानों में प्रथम की अपेक्षा दूसरा, दूसरे की अपेक्षा तीसरा-इस प्रकार पूर्व-पूर्ववर्ती गणस्थान की अपेक्षा पर-परवर्ती गुणस्थान में विकास की मात्रा अधिक रहती है । विकास की न्यूनाधिकता का निर्णय आत्मिक स्थिरत. की न्यूनाधिकता ५८ अवलस्थित है । स्थिरता, समाधि, अन्तहोटे, स्वभाव-रमण, स्वोन्मुखता-इन सब शब्दों का मतलब एक ही है । स्थिरता का तारतम्य दर्शन और चारित्र-शक्ति की शुद्धि के तारतम्य पर निर्भर है। दर्शनशक्ति का जितना अधिक विकास, जितनी अधिक निर्मलता उतना ही अधिक आविर्भाव सद्विश्वास, सदर्शचि, सद्भक्ति, सत्श्रध्धा या सत्याग्रह का समझिये । दर्शन-शक्ति के विकासके बाद चारित्र-शक्ति के विकास का नम्बर प्राता है । जितना जितना चारित्र-शक्ति का अधिक विकास उतना उतना अधिक आविर्भाव क्षमा, संतोष, गाम्भीर्य इन्द्रिय जय श्रादि चारित्र-गणों का होता है । जैसे जैसे दर्शन-शक्ति व चारित्र-शक्ति की विशुद्धि बढ़ती जाती है, तैसे तैसे स्थिरता की मात्रा भी अधिक अधिक होती जाती है। दर्शन व चारित्रशक्ति की विशुद्धि का बढ़ना-घटना, उन शक्तियों के प्रति