Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 97
________________ (६७) दुःस्वरसुस्वरसातासातैकतरं च त्रिंशदव्युच्छेदः । द्वादशायोगिनि सुभगादेययशोऽन्यतरवेदनीयम् ॥ २२ ॥ तसतिग परिणदि मणुयाउ गइजिणुञ्चति चरम-समयंतो। वसत्रिकपञ्चेन्द्रियमनुजायुगतिजिनोश्चमिति चरमसमयान्तः। • अर्थ-औदारिक-द्विक (ौदारिक-शरीरनामकर्ण तथा औदारिक-श्रङ्गोपाङ्गनामकर्म ).२, अस्थिर-द्विक (अस्थिरनामकर्म, अशुभनामकर्म )४, खगति-द्विक (शुभविहायोगतिः, नामकर्म और भयभविहायोगतिनामकर्म ) ६, प्रत्येक-त्रिक(प्रत्येकनामकर्म, स्थिरनामकर्म और शुभनामकर्म ) , समचतुरस्त्र,न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, वामन,कुब्ज और हुण्ड-ये छः संस्थान १५, अगुरुलधुचतुष्क (गुरुलघुनामकर्म, उपघातनामकर्म, पराधातनामकर्म और उच्चासनामकर्म )१६, वर्ण-चतुष्क (वर्णनामकर्म, गंधनामफर्म, रसनामकर्म और स्पर्शनामकर्म)२३,निर्माणनामकर्म२४, तैजसशरीरनामकर्म २५, कार्मणशरीर-नामकर्म २६, प्रथम-संहनन (वजऋषभनाराचसंहनन)२७ ॥२१॥ दुःस्वरनामकर्म २८,सुस्वरनामकर्म२६ और सातवेदनीय तथा असातवेदनीय इन दो में से कोई एक ३०-ये. तीस प्रकृतियाँ तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम-समय तक ही उदय को पा सकती हैं, चौदहवें गुणस्थान में नहीं । अतएव पूर्वोक्त ४२ में से इन ३० कर्म-प्रकृतियों के घट जाने पर शेष १२ कर्म-प्रकृतियाँ चौदहवेंगुणस्थान में रहती है। वे १२ कर्म-प्रकृतियाँ ये हैं-सुभगनामकर्म, श्रादेयनामकर्म, यशः कीर्तिनामकर्म, वेदनीयकर्म की दो प्रकृतियों में से कोई एक असत्रिक ( सनामकर्म, बादरनामफर्म, और

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