Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 114
________________ (८४) रहती है। द्विचरम-समय में ७२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता का अभाव हो जाता है। वे ७२ कर्म-प्रकृतियाँ ये हैं-देव-द्विक २, रमगति-हिम', गन्ध-द्विक-(सुरभिगन्धनामकर्म और दुरभिगन्धनामकर्म ) ६, स्पष्टिक-(कर्कश, मृदु, लघु, गुरु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्षस्पर्शनामकर्म ) १४, वर्णपञ्चक-- (कृष्ण, नील; लोहित, हारिद्र और शुक्लवर्णनामकर्म ) १६, रसपञ्च-(कटुक, तिक्त, कपाय, अम्ल और मधुररसमामफर्म) २४, पाँच शरीर नामकर्म-२६, बन्धन-पञ्चक- (औदारिक-वन्धन, वैक्रिय-बन्धन, आहारक-बन्धन, तैजस-बन्धन और कार्मण-बन्धननामकर्म ) ३४, संघातन-पञ्चक-(ौदारिक-संघातन, वैक्रिय-संघातन, माहारक-संघातन, तैजलसंघातन और कार्मणसंघातन नामकर्म ) ३६, निर्माणनामकर्म ४० ॥३१॥ __ अर्थ-संहनन-षदक-( वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कोलिका और सेवार्तसंहनन-नामकर्म) ४६, अस्थिरषट्क-(अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और यश-कीर्ति-नामकर्म) ५२, संस्थान-षट्क-(समचतुरस्त्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, वामन, कुब्ज और हुण्डसंस्थाननामकर्म ) ५८, अगुरुलघु-चतुष्क ६२, अपर्याप्तनामकर्म १३, सातवेदनीय या असातवेदनीय ६४, प्रत्येकत्रिक-(प्रत्येक, स्थिर और शुभनामकर्म ) ६७, उपाङ्ग-त्रिक-(औदारिक-" अङ्गोपाङ्ग, वैक्रिय-श्रङ्गोपाङ्गऔर आहारक-अगोपागनामकर्म)७०, सुस्वरनामकर्म ७१ और नीचगोत्र ७२॥३२॥ अर्थ-उपर्युक्त ७२ कर्म-प्रकृतियों का क्षय चौदह गुणस्थान के.द्विचरम समय में हो जाता है जिससे अन्तिम

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