Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोपकाराय सतां विभूतयः ॐॐॐ श्री मद्विजयानन्दसूरिभ्यो नमः श्रीमद्देवेन्द्रसूरिविरचित कर्मस्तव - दूसरा कर्मग्रन्थ | ( हिन्दी अनुवाद सहित My mum & fuiss 1 वीर संवत २४४४} प्रकाशक श्रीश्रात्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मंडल रोशनमोहल्ला, आगरा | ↑ प्रथमवार १००० i } ईसवी सन् १९१८ ( पक्की जिल्द 1112) कच्ची जिल्द ||1) • लक्ष्मीनारायण के प्रवन्ध से श्रेष्ठ प्रिंटिंग प्रेस, आगरा में छपी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक मिलने का पता श्रीश्रात्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मंडल रोशन मोहल्ला, आगरा. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Raja Bejoy Sing Dudhoria of Azimganj. Here yo *-*** Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-क्रम. सूचना....................... निवेदन...... प्रस्तावना.....................१-११ विषयसूची...................१३-१५ शुद्धिपत्र........................१७-१६ अनुवाद.......... .......१-१३ परिशिष्ट....................६४-६६ कोश...................8-११६ मूल कर्मस्तव............. .११७-१२० Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सूचना * -~-servedansar-- इल पुस्तक के आरम्भ में जिन महानुभाव का फोटो है वे जैनसमाज के श्रीमानों में से एक है। श्राजीमगंज के प्रतिष्ठित रईस है । कर्मग्रन्थ के इस अनुवाद में उनकी उदारता का उपयोग किया गया है। एतदर्थ हम उन्हें धन्यवाद देते हैं। आगे के कर्मग्रन्थों के अनुवाद तैयार हो रहे हैं तथा अप भी रहे हैं । इस लिये जो,भगवान् महावीर की वाणी के उपासक अपनी चञ्चल लक्ष्मी का सदुपयोग करना चाहें घह हमें सूचना देवे जिससे कि पवित्र ग्रन्थों के सर्वप्रिय अनुवाद-कार्य में उन की लक्ष्मी का उपयोग किया जाये । इस का मूल्य लागत से भी कुछ कम ही रक्खा गया है। कागज, छपाई श्रादि सब वस्तुओं की अप्ति अधिक महँगी के कारण खर्च अधिक होता है। हमारा उद्देश सस्ते में धार्मिक साहित्य का प्रचार करना है । जहाँ तक संभव है हम अपने उद्देश की और पूर्ण लक्ष देते हैं। श्रापका श्रीमात्मानंद जैन पुस्तक प्रचारक मंडल रोशन मोहल्ला भागरा. तभी. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन | पाठक ! यह दूसरे कर्मग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद मूल नथा छाया सहित आपकी सेवामें उपस्थित किया जाता है । पहिले कर्म ग्रन्थ के बाद दूसरे कर्मग्रन्थ का अध्ययन परमावश्यक है । क्योंकि इस के विना पढ़े तीसरा आदि अगले कर्मग्रन्थोंमें तथा कम्मपयडी, पञ्चसंग्रह आदि आकर ग्रन्थों में प्रवेश ही नहीं किया जा सकता । इस लिये इस कर्मग्रन्थ का भी महत्त्व बहुत अधिक है । यद्यपि इस कर्मग्रन्थ की मूल गाथायें सिर्फ़ चौतीस ही हैं तथापि इतने में प्रचुर विषय का समावेश ग्रन्थकार ने किया है । श्रत एव परिमाण में प्रन्थ बडा न होने पर भी विषय में बहुत गंभीर तथा विचारणीय है । 1 А इस अनुवाद के प्रारंभ में एक प्रस्तावना दी हुई है जिस मैं दूसरे कर्मग्रन्थ की रचना का उद्देश्य, विषय-वर्णन - शैली, विषय-विभाग, 'कर्मस्तव' नाम रखने का अभिप्राय इत्यादि विषय, जिन का सम्बन्ध दूसरे कर्म ग्रन्थसे है, उन पर थोडा, पर श्रावश्यक विचार किया गया है। पीछे गुणस्थान के सामान्य स्वरूपके सम्बन्ध में संक्षिप्त विचार प्रगट किये गये हैं। याद विषयसूची दी गई है, जिससे ग्रन्थके विषय, गाथा और पृष्ठ वार मालूम हो सकते हैं । अनन्तर शुद्धिपत्र है । तत्पश्चात् मूल, छाया, हिंदी अर्थ तथा भावार्थ सहित 'कर्मस्तव' नामक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा कर्मग्रन्थ है।इस में योग्यस्थानों में यन्त्र-नकशे-भी दिये गये हैं। इस के बाद एक परिशिष्ट है जिस में श्वेताम्बरीयदिगम्वरीय कर्मविषयक साहित्य के कुछ समान तथा अस. मान बात उल्लिखित की हुई है। परिशिष्ट के बाद कोश दिया गया है.जिस में मूल दूसरे कर्मग्रंथके शब्द, अकारादि क्रमसे देकर उनकी छाया तथाहिंदीश्रर्थ दिया गया है। अंत में गाथाय हैं, जो मूल मात्र याद करने वालों के लिये या उसे देखने वालों के लिये विशेष उपयोगी हैं। । यदि इस ग्रन्थके अनुवाद में कोई त्रुटि रह गई हो तो वि. शेषदर्शी पाठकों से हम अनुरोध करते हैं कि वे कृपया उस की सूचना दे ताकि दूसरीश्रावृत्ति में संशोधन किया जा सके निवेदक वीरपुत्र. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ من प्रस्तावना | ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य | 'कर्मविपाक' नामक प्रथम कर्मग्रन्थ में कर्म की मूल तथा उत्तर प्रकृतियों का वर्णन किया गया है । उस में बन्ध-योग्य, उदय- उदीरणा-योग्य और सत्तायोग्य प्रकृतियों की जुद्दी जुद्दी संख्या भी दिखलाई गई है । अब उन प्रकृतियों के बन्ध की उदय उदीरणा की और सत्ताकी योग्यता को दिखाने की, आवश्यकता है । सो इसी श्रावश्यकता को पूरा करने के उद्देश्य से इस दूसरे कर्मग्रन्थ की रचना हुई है । विषय- वर्णन शैली | संसारी जीव गिनती में अनन्त हैं । इसलिए उनमें से एक एक व्यक्ति का निर्देश करके उन संघ की बन्धादि सम्ब न्धिनी योग्यता को दिखाना असंभव है । इसके अतिरिक्त Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) एक व्यक्ति में बन्धादि-सम्बन्धिनी योग्यता भी सदा एकसी नहीं रहती; क्योकि परिणाम व विचार के बदलते रहने के कारण बन्धादि-विषयक योग्यता भी प्रत्तिसमय बदला करती है। अतएव प्रात्मदर्शी शास्त्रकारों ने देहधारी जीवों के १४ वर्ग किये हैं। यह वर्गीकरण, उनकी प्राभ्यन्तर शुद्धिकी उत्क्रान्ति-अपंक्रान्ति के नाधार पर किया गया है । इसी वर्गीकरण को शास्त्रीय परिभाषा में 'गुणस्थान-क्रम' कहते हैं । गुणस्थान का यह क्रम, ऐसा है कि जिसके १४ विभागों में सभी देहधारी जीवों का समावेश हो जाता है जिससे कि अनन्त देहधारिओं की पन्धादि-सम्बन्धिनी योग्यता को १४ विभागों के द्वारा बतलाना सहज हो. जाता है और एक जीव-व्यक्ति की योग्यता-जो प्रतिसमय बदला करती है-उसका भी प्रदर्शन किसी न किसी विभाग के द्वारा किया जा सकता है । संसारी जीवों की प्रान्तरिक शुद्धि के तरतस भावकी पूरी वैज्ञानिक जाँच करके गुणस्थानक्रम की घटना की गई है । इससे यह बतलाना या समझना. सहज हो गया है कि अमुक प्रकार की आन्तरिक अशुद्धि या शुद्धिवाला जीव, इतनी ही प्रकृतियों के बन्ध का,उदय-उदीरणा का और सत्ता का अधिकारी हो सकता है। इस कर्मः अन्थ में उक्त गुणस्थान क्रम के आधार से ही जीवों की बन्धादि-सम्बन्धिनी योग्यता को बतलाया है । यही इस ग्रन्थ की विषय-वर्णन-शैली है। doo विषय-विभाग। इस ग्रन्थ के विषय के मुख्य चार विभाग है (३) बन्धाधिकार, (२) उदयाधिकार, (३) उदीरणाधिकार और (४), सत्ताधिकार । वन्ध्राधिकार में गुणस्थान:क्रम को लेकर Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक गुणस्थान-वर्ती जीवों की बध.योग्यता को दिखायाः है । इसी प्रकार उदयाधिकार में, उनकी उदय-सम्बन्धिनी योग्यता को, उसीरणाधिकार में उदारणा-सम्बन्धिनी योग्यता को और सत्ताधिकार में सत्ता-सम्बन्धिनी योग्यता को दि. खाया है। उक्त ४ अधिकारों को घटना, जिस वस्तु पर की गई है. उस वस्तु-गुणस्थान-क्रम का नाम-निर्देश भी ग्रन्थ के थारम्भ में ही कर दिया गया है । अतएव, इस ग्रन्थ का विषय, पांच भागों में विभाजित हो गया है। सबसे पहले, गुण: स्थान:क्रम का निर्देश भोर पोछ क्रमशः पूवात चार अधिकार । 'कर्मस्तव' नाम रखने का अभिप्राय । "आध्यात्मिक विद्वानों को रोष्ट, सभी प्रवृत्तियों में श्रात्मा की ओर रहती है। वे; करें कुछ भी पर उस समयः अपने. सामने एक ऐसा प्रादर्श उपस्थित किया होते हैं कि जिससे" उन के आध्यात्मिक महत्वाभिलाष पर जगत् के आकर्षण का, कुछ भी असर नहीं होता। उन लोगों का अटल विश्वास होता है कि 'ठीक ठोक लक्षित दिशा की ओर जो जहाज चलता है वह, वधुत कर विघ्न बाधाओं का शिकार. नहीं होता। यह विश्वास, कर्मग्रन्थ के रचयिता प्राचार्य में भी था। इल से उन्होंने ग्रन्थ रचना-विषयक प्रवृत्ति के समय भी महान् श्रादर्श को अपनी नज़र के सामने रखना चाहा । ग्रन्थकार की दृष्टि में आदर्श थे भगवान महावीर । भगवान महावीर के . जिस कर्मक्षयरूप असाधारण गुण पर ग्रन्धकार मुग्ध हुए थे। उस गुण को उन्होंने अपनी कृति द्वारा दर्साना चाहा । इस लिए प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना उन्होंने अपने आदर्श भगवान् महावीर की स्तुति के, बहाने से, की है । इस प्राथ. में मुरः Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) वर्णन, कर्म के बन्धादिका है, पर वह किया गया है स्तुति के बहाने से । अतएव, प्रस्तुत ग्रन्थ का अथानुरूप नाम 'कर्मस्तव' रखा गया है। ग्रन्थ-रचना का श्राधार। इस प्रन्थ की रचना 'प्राचीन कमस्तव नामक दूसरे कर्म प्रन्थ के आधार पर हुई है । उसका और इस का विषय एक हो है। भेद इतना ही है कि इस का पारमाण, प्राचीन कर्मग्रन्थ से अल्प है। प्राचीनमें ५५ गाथाएँ हैं,पर इसमें ३४ जो वात प्राचीन में कुछ विस्तार से कहा है उसे इसमें परिमित शब्दों के द्वारा कह दिया है । यद्यपि व्यवहार में प्राचीन कर्मग्रन्थ का नीम, 'कर्मस्तव' है, पर उसके आरंभ की गाथा से स्पष्ट जान पड़ता है कि उसका असली नाम, 'वन्धोदयसत्त्व-युक्त स्तव' है। यथा:नमिऊण जियवरिदे तिहुयणवरनाणदसणपईवे । बंधुदयसंतजुत्त वोच्छामि थयं निसामेह ||१|| प्राचीन के आधार से बनाये गये इस कर्मग्रन्थ का 'कर्मस्तव' नाम कर्ता ने इस प्रन्थ के किसी भाग में उल्लिखित नहीं किया है, तथापि इसका 'कर्मस्तव' नाम होने में कोई संदेह नहीं है । क्योंकि इसी ग्रन्थ के कर्ता श्री देवेन्द्रसूरि ने अपने रचे तीसरे कर्मग्रन्थ के अन्त में 'नेयं कम्मत्थयं लो' इस अंश से उस नाम का कथन कर ही दिया है। 'स्तव' शब्द के पूर्व में 'बन्धोदयसत्व' या 'कर्म' कोई भी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द रखा जाय, मतलव एक ही है । परन्तु इस जगह इसकी चर्चा, केवल इसीलिए की गई है कि प्राचीन दूसरे कर्मग्रन्थ के और गोम्मटसार के दूसरे प्रकरण के नाम में कुछ भी फरक नहीं है। यह नाम की एकता, श्वेतांबर-दिगंबर प्राचार्यों के ग्रन्थ-रचना-विषयक पारस्परिक अनुकरण का पूरा प्रमाण है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि नाम सर्वथा समान होने पर भी गोम्मटसार में तो 'स्तव' शब्द की व्याख्या बिलकुल विलक्षण है, पर प्राचीन द्वितीय कर्मप्रन्थ में तथा उसकी टीका में 'स्तव' शब्द के उस विलक्षण अर्थ की कुछ भी सूचना नहीं है । इस से यह जान पड़ता है कि यदि गोम्मटसार के बन्धोदयसव-युक्त नाम का. पाश्रय लेकर प्राचीन द्वितीयं कर्मग्रन्थ का वह नाम रखा गया होता तो उसका विलक्षण अर्थ भी इस में स्थान पाता । इससे यह कहना पड़ता है कि प्राचीन द्वितीय कर्मग्रन्थ की रचना, . गोम्मटसार से पूर्व हुई होगी। गोम्मटसार की रचना का . • समय, विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी बतलाया जाता है। प्राचीन द्वितीय कर्मग्रन्थ की रचना का समय तथा उसके कर्ता का नाम आदि शात नहीं । परन्तु उसकी टीका करने वाले श्री गोविन्दाचार्य हैं जो श्री देवनाग के शिष्य थे । श्री गोविन्दाचार्य का समय भी संदेह की तह में छिपा है पर उनकी बनाई हुई टीका की प्रति-जो वि०सं० १२८८ में ताडपत्र पर लिखी हुई है-मिलती है । इस से यह निश्चित है कि उन का समय, वि० सं०. १२८८ से पहले होना चाहिए । यदि अनुमान से टीकाकार का समय १२ वीं शताब्दी मांना जाय तो भी यह अनुमान करने में कोई आपत्ति नहीं कि ... मूल द्वितीय कर्मग्रन्थ की रचना उससे सौ-दोसौ वर्ष पहले..." ... "न Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही होनी चाहिए। इससे यह हो सकता है कि कदाचित उस द्वितीय कर्मग्रन्थ का ही नाम गोम्मटसार में लिया गया , हो और स्वतंत्रता दिखाने के लिए 'स्तव' शब्द की व्याख्या विलकुल बदल दी गई हो । अस्तु, इस विषय में कुछ भी निश्चित कहना साहस है । यह अनुमान-सृष्टि, वर्तमान. लेखकों की शली का अनुकरण मात्र है। इस नवीम द्वितीय. कर्मग्रन्थ के प्रणेता श्रीदेवेन्द्रसूरि का समय आदि पहले. कर्मअन्य की प्रस्तावना से जान लेना। गोम्मटसार में स्तव' शब्द का साङ्केतिक अर्थ इस कर्मग्रन्थ में गुणस्थान को लेकर बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता का विचार किया है वैसे ही गोम्मटसार में भी किया है । इस कर्मग्रन्थ का नाम तो 'कर्मस्तव' है पर गोम्मटसार के उस प्रकरण का नाम 'वन्धोदयसख-युक्त:स्तव" जो "वन्धुदयसत्तजुत्तं ओघादेसे थवं वाच्छं" इसा कथन से सिद्ध है (गो. कर्म गा.८७) । दोनों नामों में कोह विशेष अन्तर नहीं है। क्योंकि कर्मस्तव में, जो 'कर्म' शब्द है, उसी की जगह 'वन्धोदयसत्त्वयुक्त' शब्द रखा गया है ।। परन्तु 'स्तव' शब्द दोनों नामों में समान होने पर भी, उस के. अर्थ में बिलकुल भिन्नता है ।. 'कर्मस्तव में, 'स्तव शब्द का । मतलव स्तुति से है जो सर्वत्र प्रसिद्ध ही है, पर गोम्मटसार में 'स्तष' शब्द का स्तुति. अर्थ न करके खास सांकेतिक अर्थ: किया गया है। इसी प्रकार उसमें 'स्तुति' शब्द का भी पारिभाषिक श्रर्थ, किया है जो और कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। जैसे: Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयलंगेक्कंगेक्कंगहियार सवित्थरं ससंखे । वरणणसत्थ थयथुइधम्मकहा होइ जियमेण ॥ (गो. कर्म. गा. ) अर्थात् किसी विषय के समस्त अंगों का विस्तार यो संक्षप से वर्णन करनेवाला शास्त्र 'स्तव' कहाता है । एक अंर्ग का विस्तार या संक्षेप से वर्णन करनेवाली शास्त्र 'स्तुति' और एक अंग के किसी अधिकार का वर्णनं जिसमें है वह शास्त्र 'धर्मकथा' कहाता है। ' इस प्रकार विषय और नामकरण दोनों तुल्यप्रार्य होने पर भी नामार्थ में जो भेद पाया जाता है, वह सम्प्रदाय-भेद तथा ग्रन्थं-रचना-सम्बन्धी देश-काल के भेद का परिणाम जान पड़ता है। गुणस्थान का संक्षिप्त सामान्य-स्वरूप। आत्मा की अवस्था किसी समय अज्ञान-पूर्ण होती है। वह अवस्था सब से प्रथम होने के कारण निकृष्ट है । उस अवस्था से आत्मा अपने स्वाभाविक चेतना, चारित्र आदि गुणों के विकास की बदौलत निकलता है, और धीरे धीरे • उन शक्तियों के विकास के अनुसार उत्क्रान्ति करता हुआ विकास की पूर्णकला-अंन्तिम हद-को पहुँच जाता है । पहली निकृष्ट अवस्था से निकल कर, विकास को आखरी भूमि को पाना ही प्रात्मा का परम साध्य है। इस परमसाध्य की सिद्धि होने तक आत्मा को एक के बाद दूसरी, दूसरी के Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याद तीसरी ऐसी क्रमिक अनेक अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। इन्हीं अवस्थाओं की श्रेणि को 'विकास-क्रम' या 'उत्क्रान्ति-मार्ग' कहते हैं। और जैनशास्त्रीय परिभाषा में उस 'गुणस्थान-क्रम कहते हैं । इल विकास-क्रम के समय होनेघाली आत्मा की भिन्न भिन्न अवस्थाओं का संक्षेप,१४ भागों में कर दिया गया है । ये १४ भाग, गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं। दिगम्बर-साहित्य में 'गुणस्थान' अर्थ में संक्षेप, श्रोध, सामान्य और जीवसमास शब्दों का भी प्रयोग देखा जाता है । १४ गुणस्थानों में प्रथम की अपेक्षा दूसरा, दूसरे की अपेक्षा तीसरा-इस प्रकार पूर्व-पूर्ववर्ती गणस्थान की अपेक्षा पर-परवर्ती गुणस्थान में विकास की मात्रा अधिक रहती है । विकास की न्यूनाधिकता का निर्णय आत्मिक स्थिरत. की न्यूनाधिकता ५८ अवलस्थित है । स्थिरता, समाधि, अन्तहोटे, स्वभाव-रमण, स्वोन्मुखता-इन सब शब्दों का मतलब एक ही है । स्थिरता का तारतम्य दर्शन और चारित्र-शक्ति की शुद्धि के तारतम्य पर निर्भर है। दर्शनशक्ति का जितना अधिक विकास, जितनी अधिक निर्मलता उतना ही अधिक आविर्भाव सद्विश्वास, सदर्शचि, सद्भक्ति, सत्श्रध्धा या सत्याग्रह का समझिये । दर्शन-शक्ति के विकासके बाद चारित्र-शक्ति के विकास का नम्बर प्राता है । जितना जितना चारित्र-शक्ति का अधिक विकास उतना उतना अधिक आविर्भाव क्षमा, संतोष, गाम्भीर्य इन्द्रिय जय श्रादि चारित्र-गणों का होता है । जैसे जैसे दर्शन-शक्ति व चारित्र-शक्ति की विशुद्धि बढ़ती जाती है, तैसे तैसे स्थिरता की मात्रा भी अधिक अधिक होती जाती है। दर्शन व चारित्रशक्ति की विशुद्धि का बढ़ना-घटना, उन शक्तियों के प्रति Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्धक (रोकनेवाले) संस्कारों की न्यूनता-अधिकता या मन्दता-तीव्रता पर अवलम्बित है । प्रथम तीन गुणस्थानों में दर्शन-शक्ति व चारित्र-शक्ति का विकास इसलिये नहीं होता कि उनमें उन शक्तियों के प्रतिबन्धक संस्कारों की अधिकता या तीव्रता है। चतुर्थ श्रादि गुणस्थानों में वे ही प्रतिबन्धक संस्कार कम (मन्द) हो जाते हैं। इसले उन गुणस्थानों में शक्तियों का विकास प्रारम्भ हो जाता है।। इन प्रतिवन्धक (कपाय ! संस्कारों के स्थूल दृष्टिले ४ विभाग किये हैं। ये विभाग उन कापायिक संस्कारों की विपाक-शक्ति के तरतम-भाव पर आश्रित है । उनमें से पहला विभाग-जो दर्शन-शक्ति का प्रतिबन्धक है-उते दर्शनमोह तथा अनन्तानुवन्धी कहते हैं । शेष तीन विभाग चारित्र-शक्ति के प्रतिबन्धक हैं। उनको यथाक्रम अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानाचरण और संचलन कहते हैं। प्रधम विभाग की तीव्रता, न्यूनाधिक प्रमाण में तीन गुणस्थानों ( भूमिकाओं तक रहती है । इस से पहले तीन गुणस्थानों में दर्शन-शक्ति के आविर्भाव का सम्भव नहीं होता । कपाय के उक्त प्रथम विभाग की प्रत्यता, मन्दता या प्रभाव होते ही दर्शन-शक्ति व्यक्त होती है । इसी सनय आत्मा की दृष्टि खुल जाती है । दृष्टि के इस उन्मेष को विवेकख्याति, भेदज्ञान, प्रकृति-पुरुषान्यता-साक्षात्कार और ब्रह्मज्ञान भी कहते है। इसी शुद्ध दृष्टि से प्रात्मा जङ-चेतन का भेद. शसंदिग्ध'रूप से जान लेता है ! यह उसके विकास काम को चौधों भूमिका है । इसी भूमिका से वह अन्तराष्ट्र बन जाता है. और हारम-मंदिर में वर्तमान तात्त्विक परमात्म-स्वरूप को देखता है। पहले की तीन भूमिकाओं में दर्शनमोह और अनन्तानु. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) वन्धी नाम के कपाय संस्कारों की प्रबलता के कारण आत्मा अपने परमात्म-भाव को देख नहीं सकता। उस समय वह यहिदृष्टि होता है । दर्शनमोहं आदि संस्कारों के वेग के कारण उस समय उसकी दृष्टि, इतनी अस्थिर व चंचल बन जाती है कि जिससे वह अपने में ही वर्तमान परमात्म-स्वरूप या ईश्वरत्व को देख नहीं सकता । ईश्वरत्व भीतर ही है, परन्तु है वह अत्यन्त सूक्ष्म; इसलिये स्थिर व निर्मल दृष्टि के द्वारा ही उसका दर्शन किया जा सकता है । चौथी भूमिका या चौथे गुणस्थान को परमात्म-भाव के या ईश्वरत्व के दर्शन का द्वार कहना चाहिये । और उतनी हद तक पहुँच हुये आत्मा को अन्तरात्मा कहना चाहिये । इसके विपरीत, पहली तीन भूमिकाओं में वर्तने के समय, आत्मा को बहिरात्मा कहना चाहिये। क्योंकि वह उस समय बाहरी वस्तुओं में ही पात्मत्व की भ्रान्ति से इधर उधर दौड लगाया करता है। चौथी भूमिका में दर्शनमोह तथा अनन्तानुवन्धी संस्कारों का वेग तो नहीं रहता, पर चारित्र-शक्ति के प्रावरण-भूत संस्कारों का वेग अवश्य रहता है। उनमें से अप्रत्याख्यानां. 'वरण संस्कार का वेग चौथी भूमिका से आगे नहीं होत ' इससे पाँचवीं भूमिका में चारित्र-शक्ति का प्राथमिक विकास होता है। जिससे उस समय प्रात्मा, इन्द्रिय जय, यम-नियम आदि को थोड़े बहुत रूपमें करता है-थोड़े बहुत नियम पालने के लिये सहिष्णु हो जाता है। प्रत्याख्यानावरण नामक संस्कार-जिनका वेग पाँचवीं भूमिका से आगे नहीं है-उन का प्रभाव घटते ही चारित्र-शक्ति का विकास और भी बढ़ता है, जिससे आत्मा बाहरी भोगों से हटकर पूरा संन्यासी बन जाता है । यह हुई विकास की छट्ठी भूमिका। इस भूमिका में भी चारित्र-शक्ति के विपक्षी 'संज्वलन' नाम के संस्कार .कभी कभी ऊधम मचाते हैं, जिससे चारित्र-शक्ति का Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) विकास दबता तो नहीं, पर उसकी शुद्धि या स्थिरता में अन्तराय इस प्रकार पाते हैं, जिस प्रकार वायु के वेग के कारण,दिये की ज्योति की स्थिरता व अधिकता में । आत्मा जब संज्वलन'नामके संस्कारों को दबाता है,तब उत्क्रान्तिपथ की सातवीं आदि भूमिकाओं को लाँघकर ग्यारहवीं बारहवीं भूमिका तक पहुँच जाता है। वारहवीं भूमिका में दर्शन-शक्ति व चारित्र-शक्ति के विपक्षो संस्कार सर्वथा नष्ट हो जाते है, जिससे उक्त दोनों शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। तथापि उस अवस्था में शरीर को सम्वन्ध रहने के कारण श्रात्मा की स्थिरता परिपूर्ण होने नहीं पाती । वह चौदहवीं भूमिका में सर्वथा पूर्ण बन जाती है और शरीर का वियोग होने के बाद वह स्थिरता, वह चारित्र-शक्ति अपन यथार्थरूपम विकसित होकर सदा के लिये एकसी रहती है। इसी को मोक्ष कहते हैं । मोक्ष कहीं बाहर से नहीं पाता । वह आत्मा की समग्र शक्तियों का परिपूर्ण व्यक्त होना मात्र है मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव च । अज्ञान हृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः ॥ (शिवगोता-१३-३२) यह विकास की पराकाष्ठा, यह परमात्म-भाव का अभेद,. यह चौथी भूमिका (गुणस्थान) में देखे हुये ईश्वरत्व का तादात्म्य, यह वदान्तियो का ब्रह्म-भाव, यह जीव का शिव होना, और यही उत्क्रान्ति-मार्ग का अन्तिम साध्य । इसी साध्य तक पहुँचने के लिये श्रात्मा को विरोधी संस्कारों के साथ लड़ते झगड़ते, उन्हें दवाते, उत्क्रान्ति-मार्ग को जिन जिन भूमिकाओं पर पाना पड़ता है, उन भूमिकाओं के क्रम को ही 'गणस्थान क्रम' समझना चाहिये । यह तो हुआ गुणस्थानों का सामान्य स्वरूप । उन सब का विशेष स्वरूप थोड़े बहुत विस्तार की साथ इसी कर्मग्रन्थ की दूसरी गाथा की व्याख्या में लिख दिया गया है। निवेदक-वीर. Page #22 --------------------------------------------------------------------------  Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) दूसरे कर्मग्रन्थ की विषय-सूची। विषय. पृष्ठ. गाथा. । मंगलाचरण , ... ...... ...... १ गुणस्थानों के नाम ....... गुणस्थान का सामान्य स्वरूप मिथ्यादृष्टिगुणस्थान का स्वरूप सासादनसम्याधिगुणस्थान का स्वरूप ...." सस्यन्मिथ्याष्टिगुणस्थान का स्वरूप अविरतसम्यगटिगुणस्थान का स्वरूप १२ देशविरतगुणस्थान का स्वरूप ...... १४ प्रमत्तसंयतगुणस्थान का स्वरूप .... १५ अप्रमत्तसंयतगुणस्थान का स्वरूप.... १५ निवृत्तिगुणस्थान का स्वरूप "..." १६ अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानका स्वरूप २० सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान का स्वरूप ... २२ उपशान्तकषायतिरागमस्थगुण- . स्थानका स्वरूप क्षीणकषायवीतरागमस्थगुणस्थान का स्वरूप..." .... सयोगिकेवलिगुणस्थान का स्वरूप २८ अयोगिकेवलिगुणस्थान का स्वरूप , Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) . गाथा. cW m. , ६-७ , ७-८ , ६-१० ,१०-११ , ११ ...... विषय. बन्धाधिकार-१ वन्ध का लक्षण और मिथ्यात्व का प्रकृति-बन्ध ...... ... ...... सासादन का प्रकृति-बन्ध ... ...... मिश्र का प्रकृति-वन्ध अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरति का प्रकृति-वन्ध्र ... प्रेमन्त का प्रकृति-वन्ध . ... अप्रमत्त का प्रकृति-वन्ध ... .... अपूर्वकरण का प्रकृति-वन्ध ... अनिवृत्ति का प्रकृति-वन्ध ... ..... सूक्ष्मसंपराय का प्रकृति-धन्ध उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगिकेवली का प्रकृति-यन्ध ...... बन्ध-यन्त्र ....... ...... ...... उदयाधिकार-२ उदय-उदीरणा का लक्षण तथा मिथ्यात्व में उदय सासादन में उदय . ..." मिश्र में उदय ....... ५३ अविरतसम्यग्दृष्टि में उदय देशविरति में उदय ..... प्रमत्त में उदय ...... " अप्रमत्त में उदय ...... अपूर्वकरण और अनिवृत्ति में उदय ६१ ...... , १४-१५ , १५-१६ ,१६-१७ . . . . . . । १८. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) ७४ विषय. पृष्ट. , गाथा. सूक्ष्मसम्पराय में उदय ...... ....... ६१ , १५-१६ उपशान्तमोह में उदय ...... ...... .६२ , १६ क्षीणमोह और सयोगिकेवली में उदय ६५ , २० अयोगिकेवली मे उदय ... ...... ६६ २२-२३ उदय-यन्त्र ...... ....... ....... ७० उदीरणाधिकार-३ उदय से उदीरणा की विशेषता , २३-२४ उदीरणा-यन्त्र • सत्ताधिकार-४ सत्ता का लक्षण और पहले ग्यारह गुणस्थानों में प्रकृति-सत्ता ....... ७५ , अपूर्वकरण श्रादि ४ और सम्यक्त्व आदि ४ गुणस्थानों में मतान्तर से सत्ता ७८ , क्षपकणि की अपेक्षा से सम्यक्त्व. गुणस्थान आदि में सत्तां ...... ७६ , अनिवृत्तिकरण के दूसरेभाग श्रादि में सत्ताम? , २८-२६ सूक्ष्मसंपराय और क्षीणमोह की सत्ता ८१ , . ३० सयोगी की सत्ता ..."."" ८१ , ३१ अयोगी की सत्ता ...... ८१ ३९से३३ मतान्तरसे अयोगीके चरम समयमें सत्ता८५ , ३४ सत्ता -यन्त्र .......... ....... ७ उत्तर प्रकृतियों का बंध, उदय,उदीरणा और सत्ता-सम्बन्धी यन्त्र ८८ Page #26 --------------------------------------------------------------------------  Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र पृष्ठ. . पं० • .w.w ६ १६ borat mr mmm : ३ । २१ . 2 अशुद्धि. - शुद्धि. कमाई कम्माई बाधा बाधा खींचं खींच संक्रमण संक्रमणकरण मिथ्यात्वास० मिथ्यात्वसा० निवृत्यनिवृति निवृत्त्यनिवृत्ति विशेष को विशेषों को भिन्न भिन्न भिन्न अशुद्धि तथा अशुद्धिसे अशुद्धिबढ़ जातीहै यद्यपि शुद्धि तथा अशुद्धि से मिथ्यात्व मिथ्यात्वी सहते सहते सहते रेशम की चाल की ग्रन्थि की ग्रान्थ को अर्थात् । अर्थात् अन्तःकरणकी क्रिया अन्तरकरणकी क्रिया शुरू अन्तःकरण की अन्तरकरण की sav 09 990 . 0nnar 29 mur जा जीव को मायिक जो जीव को क्षायिक Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि. (१८) अशुद्धि. अध्यवसायों का अध्यवसायों का और दूसरा वर्ग उत्कृष्ट अंध्यवसायों का भिन्न ही होते हैं , भिन्न ही होते हैं तथा प्रथम समय के जघन्य अध्यवसायों से प्रथम समय के उत्कृष्ट अध्यवसाय अनंतगुरा विशुद्ध समझने चाहिए समझने चाहिए और प्रत्येक समय के जघन्य अध्यवसाय से तत्समयक उत्कृष्ट अध्यवसाय अनन्त गुण विशुद्ध पूर्व 'सिवा सिवा तीसरे स्वाभाविक स्वाभाविक द्यपि यद्यपि १८ १६ ३२ १३ ४ ३६ ३८ " २२ १७ २५ दुःस्वर बीच ३६ दु:खर बाच पमते शेष , पमत्ते शेष २२ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ५८ ४६ ५१ १७ १ शेष 2. अशुद्धि. शुद्धि. ५६. कारण कारणों ओ ३ म सप्ताशितिदेशे सप्ताशीतिदेशे एकाशितिः एकाशीतिः गुणस्थान गुणस्थान में क सम्यक्त्व सासादनसम्यक्त्व कर्म० ११७ कर्म० शेष १११ उदय चतुरिन्द्रिय उदय चतुरिन्द्रियों पर्यन्त · को होता है परन्तु एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय पर्यन्त . अर्थ ॥१८॥ अतएव बारहवें वारहवें अगर अगुरु. लोहिनामतकर्म लोहितनामकर्म सम्यकत्वी सम्यक्त्वी चरिममेगसो चरिमेगसो श्रानुपूर्वी श्रानुपूर्वी ऐक एक ६६ २० - ฝ * • ८२ ८८ १४ २३ Page #30 --------------------------------------------------------------------------  Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ مد कर्मस्तवनामक दूसरा कर्मग्रन्थ बन्धाधिकार | तह थुणिमो वीरजिणं जह गुणठाणेसु सयलकंमाई | बन्धुदत्रदीरण्यासत्तापत्ताणि खवियाणि ॥ १ ॥ ( तथा स्तुमो वीरजिनं यथा गुणस्थानेषु सकलकर्माणि । बन्धोदयोदीरणासत्ताप्राप्तानि क्षपितानि ॥ १ ॥ ) अर्थ- गुणस्थानों में बन्धको उदय को, उदीरणा को और सत्ता को प्राप्त हुये सभी कर्मों का क्षय जिस प्रकार भगवान् वीर ने किया, उसी प्रकार से उस परमात्मा की स्तुति हम करते हैं । भावार्थ - श्रसाधारण और वास्तविक गुणों का कथन ही स्तुति कहलाती है । सकल कर्मों का नाश यह भगवान् का असाधारण, और यथार्थ गुण है, इससे उस गुण का कथन करना यही स्तुति है । मिथ्यात्वादि निमित्तों से ज्ञानावरणश्रादि रूप में परिणत होकर कर्म पुलों का आत्मा के साथ दूध पानी के समान मिलजान्म, उसे "बंध" कहते हैं । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' (२) . ... उदय काल पाने पर कर्मों के शुभाशुभ फल का-भागना, "उदय" कहलाता है। [अवाधा काल व्यतीत हो चुकने पर जिस समय कर्मके फल का अनुभव होता है, उस समय को "उदयकाल" समझना चाहिये। वन्धे हुये कर्म से जितने समय तक प्रात्मा को अवाधा नहीं होती-अर्थात् शुभाशुभ-फल का वेदन नहीं होता उतने समय को "अवाधा काल” समझना चाहिये। . . * सभी कमाँ का अवाधा काल अपनी अपनी स्थिति के अनुसार जुदा जुदा होता है । कभी तो वह अवाधा काल स्वाभाविक क्रमसे ही व्यतीत होता है, और कभी अपवर्तना करण से जल्द पूरा होजाता है। . . .. जिस वीर्यविशेष से पहले बंधे हुये कर्म की स्थिति तथा रस घट जाते हैं उसको, अपवर्तना करण" समझना चाहिये।] . अवाधा काल व्यतीत हो चुकने पर भी जो कर्मदलिक पीछे से उदय में आने वाले होते हैं, उनको प्रयत्नविशेष से खींचं कर उदय-प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना उसे "उंदीरणा" कहते हैं। बँधे हुये कर्म का अपने स्वरूप को न छोड़ कर प्रात्मा के साथ लगा रहना “सत्ता" कहलाती है। :, . . . . . . [वद्ध-कर्म, निर्जरा से और संक्रमण से अपने स्वरूप को छोड़ देता है। . ... Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) " बँधे हुये कर्मका नप-ध्यान-श्रादि साधनों के द्वारा श्रात्मा से अलग हो जाना "निर्जरा" कहलाती है। · · जिंस वीर्य-विशेष से कर्म, एक स्वरूप को छोड़ दूसरे सजातीय स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, उस वाय विशेष का नाम "संक्रमण" है। इस तरह एक कर्म प्रकृति का दूसरी सजातीयकर्मप्रकृतिरूप वन जाना भी संक्रमण कहाता है। जैसेमतिज्ञानावरणीय कर्म का श्रृतज्ञानावरणीय कर्मरूपमें बदल जाना या श्रुतक्षानावरणीय कर्म का मतिज्ञानावरणीय कर्म रूप में बदल जाना। क्योंकि ये दोनों प्रकृतियाँ ज्ञानावरणीय कर्म का भेद होने से आपस में सजातीय हैं।] __. 'प्रत्येक गुणस्थान में जितनी कर्म प्रकृतियों का बन्ध हो सकता है, जितनी कर्म प्रकृतियों का उदय हो सकता है, जितनी कर्म प्रकृतियों की उदीरणा की जा सकती है और जितनी कर्म प्रकृतियाँ सत्तागत हो सकती हैं। उनका क्रमशः वर्णन करना, यही ग्रन्थकार का उद्देश्य है । इस उद्देश्य को ग्रन्थकार ने भगवान महावीर की स्तुति के बहाने से इस ग्रन्थ में पूरा किया है ॥१॥ - पहले गुण स्थानों को दिखाते हैं मिच्छे सासण मीसे अविश्य देसे पपत्त अपमत्ते । नियष्टि अनियट्टि सुहुमु वसम खीण सजोगि अजोगिगुण।।२।। . . . . (मिथ्यात्वसास्वादन मिश्रमविरतदेश प्रमत्ताप्रमत्तम् । नित्यनिति सूक्ष्मोपशम क्षीणसयोग्यऽयोगिगुणाः।२।) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) अर्थ-गुणस्थान के १४ (चौदह ) भेद हैं। जैसे-(१). मिथ्यादृष्टि गुणस्थान , (२) सास्वादन ( सासादन ) सम्यग्हाष्ट गुणस्थान (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र)गुणस्थान (४) अविरत सम्यग्दीष्ट गुणस्थान () देशविरत गुणस्थान, (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान,(७) अप्रमत्तसयत गुणस्थान(८) निवृत्ति (अपूर्वकरण),गुणस्थान(६)अनिवृत्तिवादर सम्पराय गुणस्थान (१०) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान, (११) उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान, (१२) क्षीणकपाय चीतराग-छन्नस्थ गुणस्थान, (१३) लयोगि केवलि गुणस्थान और (१४) अयोगि केवलि गुणस्थान । भावार्थ-जीव के स्वरूपविशेष को (भिन्न स्वरूप को) गुणस्थान कहते हैं। ये स्वरूपविशेप ज्ञान दर्शन चारित्र आदि गुणों की शुद्धि तथा अशुद्धि के तरतम-भाव से होते हैं। जिस वक्त अपना आवरणभूत कर्म कम होजाता है,उस वक्त ज्ञान-दर्शन-चारित्र-आदि गुणों की शुद्धि अधिक प्रकट होती है। और जिस वक्त श्रावरणभूत कर्म की अधिकता हो जाती है, उस वक्त उक्त गुणों की शुद्धि कम हो जाती है, और अशुद्धि तथा अशुद्धि से होनेवाले जीव के स्वरूप विशेष असंख्य प्रकार के होते हैं, तथापि उन सब स्वरूप-विशेपों का संक्षेप चौदह गुणस्थानों के रूप में कर दिया गया है । चौदहों गुणस्थान मोक्षरूप महल को प्राप्त करने के लिये सीढ़ियो के समान हैं। पूर्व पूर्व गुणस्थान की अपेक्षा उत्तर २ गुणस्थान में ज्ञान-श्रादिगुणों की शुद्धि बढ़ती जाती है, और अशुद्धि घटती जाती है। अतएच आगे आगे के गुणस्थानों में अशुभ प्रकृतियों की अपेक्षा शुभ प्रकृतियां अधिक वाँधी जाती है, और शुभ प्रकृतियों का बंध भी क्रमशः रुकता जाता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) मिध्यादृष्टि गुणस्थान - मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म के उदय से जिस जीव की दृष्टि (श्रद्धा या प्रतिपत्ति) मिथ्या (उलटी) हो जाती है, वह जीव मिथ्यादृष्टि कहाता है - जैसे धतूरे के बीज को खानेवाला मनुष्य सफेद चीज़ को भी पीली देखता और मानता है । इसी प्रकार मिथ्यात्वा जीव भी जिसमें देव के लक्षण नहीं हैं उसको देव मानता है, तथा जिस में गुरु के लक्षण नहीं उसपर गुरु-बुद्धि रखता है और जो धर्मों के लक्षणों से रहित है उसे धर्म समझता है। इस प्रकार के मिथ्यादृष्टि जीवका स्वरूप - विशेष ही “ मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान " कहाता है । प्रश्न- मिथ्यात्वी जीव के स्वरूप विशेष को गुणस्थान कैसे कह सकते हैं ? क्योंकि जब उसकी दृष्टि मिथ्या (श्रयथार्थ ) है तब उसका स्वरूप- विशेष भी विकृत- अर्थात् दो पात्मक हो जाता है | उत्तर --- यद्यपि मिथ्यात्वी की दृष्टि सर्वथा यथार्थ नहीं होती, तथापि वह किसी श्रंशमै यथार्थ भी होती है । क्योंकि मिथ्यात्वी जीव भी मनुष्य, पशु, पक्षी आदि को मनुष्य, पशु, पक्षी श्रादि रूपसे जानता तथा मानता है । इस लिये उसके स्वरूपविशेष को गुणस्थान कहा है। जिस प्रकार सघन बादलों 'का श्रावरण होने पर भी सूर्य की प्रभा सर्वथा नहीं छिपती, किन्तु कुछ न कुछ खुली रहती ही है जिससे कि दिनरात का विभाग किया जा सके। इसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का प्रवल उदय होने पर भी जीव का दृष्टि- :- गुण सर्वथा श्रावृत 'नहीं होता । श्रतएव किसी न किसी श्रंश में मिथ्यात्वी की दृष्टि भी यथार्थ होती है । ' ' Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-जय मिथ्यात्वी को हष्टि किसी भी अंश में यथार्थ हो सकती है, तब उसे सम्यग्दृष्टि कहने और मानने में क्या बाधा है ?। उत्तर-एक अंश मात्र की यथार्थ प्रतीति होने से जीव सम्यग्दृष्टि नहीं कहाता, क्योंकि शास्त्र में ऐसा कहा गया है कि जो जोव सर्वश के कहे हुये बारह अङ्गो पर श्रद्धा रखता है परन्तु उन अङ्गों के किसी भी एक अक्षर पर विश्वास नहीं करता, वह भी मिथ्यादृष्टि ही है । जैसे जमालि । मिथ्यात्व की . अपेक्षा सम्यक्त्वि -जीव में विशेषता यही है कि सर्वज्ञ के कथन के ऊपर सम्यक्त्वी का विश्वास अखंडित रहता है, और. मिथ्यात्वी का नहीं ॥१॥ सासादन, सम्यग्दृष्टि गुमास्थान-जो जीव श्रीपशमिक सम्यक्त्वी है,परन्तु अनन्तानुवन्धि कपाय के उदय से सम्यक्त्व को छोड़ मिथ्यात्व की ओर झुक रहा है, वह जीव जव तक मिथ्यात्व को नहीं पाता तब तक-अर्थात् जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः प्रावलिका पर्यन्त सासादन सम्यग्दृष्टि कहाता है और उस जीव का स्वरूप-विशेष"सासादन सम्यग्दृष्टिगुण स्थान" कहाता है । । इस गुणस्थान के समय यद्यपि जीव का झुकाव मिथ्यात्व की और होता है, तथापि जिस प्रकार खीर खा कर उस का वमन करने वाले मनुष्य को खीर का विलक्षण स्वाद अनुभव में आता है, इसी प्रकार सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व की और झुके हुये उस जीव को भी, कुछ काल के लिये सम्यक्त्व गुण का श्रास्वाद अनुभव में प्राता है। अत एवं इस गुण स्थान को “सास्वादन सम्यग्दृष्टिगुणस्थान' भी कहते हैं। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) प्रसंगवश इसी जगह श्रीपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति का क्रम लिख दिया जाता है ॥ . . : . जीव अनादि काल से संसार में घूम रहा है, और तरह तरह के दुःखो को पाता है। जिस प्रकार पर्वत की नदी का । पत्थर इधर उधर टकरा कर गोल और चीकना बन जाता है,इसी प्रकार जीव भी अनेक दुःख सहते कोमल और शुद्ध परिणामी बन जाता है । परिणाम इतना शुद्ध हो जाता है कि जिस के बल से जीव श्रायुको छोड़ शेष सात कर्मों की स्थिति को पल्योपमासंख्यात भाग न्यून कोटा कोटी सागरोपम प्रमाण कर देता . है। इसी परिणाम का नाम शास्त्र में यथाप्रवृत्ति करण है। यथाप्रवृति करण से जीव रागद्वेष की एक.ऐसी मजबूत गाँठ, जोकि कर्कश, दृढ और गूढ रेशम की गांठ के समान दुर्भेद है - वहां तक आता है, परन्तु उस गांठ को भेद नहीं सकता, इसी को प्रन्थिदेश की प्राप्ति कहते हैं। यथाप्रवृत्ति करण से अभव्य जीव-भी.ग्रन्थिदेश की प्राप्ति कर सकते हैं-अर्थात् कर्मों की बहुत,घड़ी स्थिति को घटा कर अन्तः: कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण कर सकते हैं, परन्तु वे रागद्वेष की दुर्भेद ग्रन्थिको तोड़ नहीं सकते। और भव्य जीव यथाप्रवृत्ति करण नामक परि. रणाम से भी विशेष शुद्ध-परिणाम को पा सकता है । तथा उसके द्वारा राग द्वेष की दृढतम प्रन्थि की-अर्थात् राग द्वेप के प्रति दृढ-संस्कारों को छिन्न भिन्न कर सकता है। भव्य • जीव जिस परिणाम से राग द्वेष. की दुर्भेद ग्रन्थि को लांघ जाता है, उस परिणाम को शास्त्र में "अपूर्वकरण"कहते हैं। "अपूर्वकरण" "नाम रखने का मतलब यह है कि इस प्रकार का परिणाम कदाचित् ही होता है, बार वार नहीं होता। अत एव वह परिणाम अपूर्वसा है। इसके विपरीत "यथाप्रवृत्ति" Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ (=) करण" नामक परिणाम तो श्रभव्य जीवों को भी श्रनन्त वोर श्राता है । पूर्वकरण - परिणाम से जब राग द्वेष की ग्रन्थि टूट जाती है, तब तो और भी अधिक शुद्ध परिणाम होता है । इस अधिक शुद्ध परिणाम को "अनिवृत्ति करण" कहते हैं । इसे अनिवृत्तिकरण कहने का अभिप्राय यह है कि इस परिणाम के बल से जीव सम्यक्त्व को प्राप्त कर ही लेता है । सम्यक्त्व को प्राप्त किये बिना वह निवृत्त नहीं होता - श्रर्थात् पीछे नहीं हटता । इस अनिवृत्तिकरण नामक परिणाम के समय वीर्य समुल्लास - श्रर्थात् सामर्थ्य भी पूर्व की अपेक्षा बढ़ जाता है । अनिवृत्तिकरण की स्थिति श्रन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण मानी जाती है। निवृत्तिकरण की अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण स्थिति में से जब कई एक भाग व्यतीत हो जाते हैं, और एक भाग मात्र शेष रह जाता है, तय अन्तःकरण की क्रिया शुद्ध होती है । श्रनिवृत्तिकरण की अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण स्थिति का अन्तिम एक भाग - जिसमें अन्तः करण की क्रिया प्रारम्भ होती है - वह भी अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण ही होता है । श्रन्तर्मुहूर्त के श्रसंख्यात भेद हैं, इस लिये यह स्पष्ट . है कि अनिवृत्तिकरण के अन्तर्मुहूर्त्त की अपेक्षा उसके अन्तिम भाग का अन्तर्मुहुर्त्त जिसको अन्तर करण क्रिया काल कहना · चाहिये - वह छोटा होता है । अनिवृत्ति करण के अन्तिम भाग में अन्तःकरण की क्रिया होती है इसका मतलब यह है कि अभी जो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म उदयमान है, उसके उन दलिकों को जो कि श्रनिवृत्तिकरण के बाद अन्तर्मुहूर्त्त तक उदय में आनेवाले हैं, आगे पीछे करलेना श्रर्थात् श्रनिवृत्तिकरण के पश्चात् श्रन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण काल में मिथ्यात्वमोह नीय कर्म के जितने दलिक उदयमें आनेवाले हों, उनमें से कुछ दलिकों को अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय पर्यन्त Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) उदय में आने वाले दलिकों में स्थापित किया जाता है। और कुछ दलिकों को उस अन्तर्मुहूर्त के बाद उदय में आने बाल दलिकों के साथ मिला दिया जाता है। इससे अनिवृत्तिकरण के बाद का एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल ऐसा हो जाता है कि जिस में मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का दलिक रहता ही नहीं। अतएव जिसका अवाधा काल पूरा हो चुका है,ऐले मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के दो भाग हो जाते हैं। एक भाग तो वह. जा अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त उदयमान रहता है, और दूसरा भागवह जो अनिवृत्तिकरण के बाद, एक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल व्यतीत हो चुकने पर उदय में आता है । इन दो भागों में से पहले भाग को मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति और दूसरे भाग को द्वितीयस्थिति कहते हैं। जिस समय में अन्तर करण क्रिया शुरू होती है अर्थात् निरन्तर उदययोग्य दलिकों का व्यवधान किया जाता है, उस समय से अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त उक्त दो भागों में से प्रथम भाग की उदय रहता है। अनिवृत्तिकरण का अन्तिम समय व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्व का किसी भी प्रकार का उदय नहीं रहता। क्योंकि उस वक्त जिन दलिकों के उदय को सम्भव है, वे सब दलिक, अन्तरकरण क्रिया से आगे और पीछे उदय में श्राने योग्य कर दिये जाते हैं।अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त मिथ्यात्व का उदय रहता है, इस लिये उस वख्त तक जीव मिथ्यात्वी कहलाता है । परन्तु अनिवृत्तिकरण काल 'व्यतीत हो चुकने पर जीवको औपंशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है । क्योंकि उस समय मिथ्यात्वमोहनीयकर्म का विपाक और प्रदेश दोनों प्रकार से उदय नहीं होता । इस लिये जीव का स्वाभाविक सम्यक्त्वगुण व्यक्त होता है और Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) औपशामिक सम्यक्त्व कहाता है। श्रीपशमिक सम्यक्त्य उतने काल तक रहताहै जितने कालतक के उदय योग्य दलिक आगे पीछे करलिये जाते हैं। पहले ही कहा जा चुका है कि अन्तर्मुहर्त पर्यन्त वेदनीय दलिकों को श्रागे पीछे कर दिया जाता है इससे यह भीसिद्धहै कि श्रीपशमिक सम्यक्त्व अन्तर्मुहर्त पर्यन्त रहता है।इस औपशामिक सम्यक्त्व के प्राप्त होते ही जीवको पदार्थों की स्फुट या असंदिग्ध प्रतीति होती है, जैसे कि जन्मान्ध -मनुष्य को नेत्रलाभ होने पर होती है। तथा औपशमिर्क सम्यक्त्व प्राप्त होते ही मिथ्यात्व-रूप महानरोग हट जाने से जीव को ऐसा अपूर्व प्रानन्द अनुभव में श्रांता है जैसा कि किसी वीमारको अच्छी औषधि के सेवन से बीमारी के हटजाने पर अनुभव में आता है । इस औपशमिक सम्यक्त्व के काल को उपशान्ताद्धा तथा अन्तरकरण काल कहते हैं । प्रथम स्थिति के चरम समय में अर्थात् उपशान्ताद्धा के पूर्व समय में,जीव विशुद्ध परिणाम से उस मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है जो कि उपशान्ताद्धा के पूरा हो जाने के बाद उदय में श्राने वाला है। जिस प्रकार कोद्गव धान्य (कोदो नामक धान्य) औषधि विशेष से साफ किया जाता है, तब उसका एक भाग इतना शुद्ध हो जाता है जिससे कि खाने वाले को नशा नहीं होता कुछ भाग शुद्ध होता है परन्तु विल्कुल शुद्ध नहीं होता, अर्द्ध शुद्ध सा रह जाता है । और कोद्रव का कुछ भाग तो अशुद्धही रह जाता है जिससे कि खाने वाले को नशा हो पाता है। इसी प्रकार द्वितीय स्थितिगत-मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के तीन पुओं (भागों) में से एक पुंज तो इतना विशुद्ध हो जाता है, कि उस में सम्यक्त्वघातकरसं (सम्यक्त्वनाशकशक्ति) का अभाव हो जाता है । दूसरा पुञ्ज प्राधाशुद्ध (शुद्धाशुद्ध) हो जाता Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। और तीसरा पुञ्ज तो अशुद्ध ही रह जाता है । उपशान्ताद्धा पूर्ण हो जाने के बाद उक्त तीन पुँजोमें से कोई एक पुंज जीव के परिणामानुसार उदय में आता है । यदि जीव विशुद्धपरिणामी ही रहा तो शुद्धपुल उदयगत होता है। शुद्धपुल के उदय होने से सम्यक्त्व का घात तो होता नहीं इससे उस समय जो सम्यक्त्व प्रकट होता है, वह क्षायोपशमिक कहलाता है । यदि जीव का परिणाम न तो विल्कुल शुद्ध रहा और न बिलकुल अशुद्ध, किन्तु मिश्र ही रहा तो अर्धविशुद्ध पुंजका उदय हो पाता है। और यदि परिणाम अशुद्ध ही हो गया तव तो अशुद्ध पुञ्ज उदयगत हो जाता है, अशुद्ध पुल के उदयप्राप्त होने से जीव, फिर मिथ्यादृष्टि बन जाता है। अन्तर्मुहर्त्त प्रमाण उपशान्त-श्रद्धा, जिसमें जीव शान्त, प्रशान्त, स्थिर और पूर्णानन्द हो जाता है, उस का जघन्य एक समय या उत्कृष्ट छः (६) श्रावलिकाये जब बांकी रह जाती है, तव किसी किसी औपशमिक सम्यक्त्वी जीव को विघ्न आ पड़ता है अर्थात् उसकी शान्ति में भङ्ग पड़ता है । क्योंकि उस समय अनन्तानुबंधि कपाय का उदय हो पाती है । अनन्तानुवन्धि कपाय का उदय होते ही जीव सम्यक्त्व परिणाम का त्याग कर मिथ्यात्व की ओर झुक जाता है । और जब तक वह मिथ्यात्व को नहीं पाता तब तक, अर्थात् उपशान्त-अद्धा के जधन्य एक समय पर्यन्तं अथ चा उत्कृष्ट छः श्रावलिका पर्यन्त सासादन भाव का अनुभव करता है । इसी से उस समय वह जी सासादन सम्यग्दृष्टि कहाता है । जिसको औपशामक सम्यक्त्व प्राप्त होता है, . चंही सासादन सम्यग्दृष्टि हो सकता है। दूसरा नहीं ॥२॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ( १२ ) . 1 सम्यग्मिथ्यादृष्टि ( मिश्र ) गुणस्थान - मिथ्यात्वमोह नीयके पूर्वोक्त तीन पुंजों में से जब अर्द्ध-विशुद्ध-पुंज का उदय होता है, तब जैसे गुड से मिश्रित दहीं का स्वाद कुछ अम्ल (खट्टा ) और कुछ मधुर ( मीठा ) अर्थात् मिश्र होता है । इस प्रकार जीवकी दृष्टि भी कुछ सम्यक् ( शुद्ध ) और कुछ मिथ्या (शुद्ध) श्रर्थात् मिश्र हो जाती है । इसी से वह जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र दृष्टि ) कहाता है तथा उसका स्वरूपविशेष सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (मिश्र गुणस्थान) । इस गुण स्थान के समय बुद्धि में दुर्बलता सी आ जाती है । जिससे जीव सर्वश के कहे हुए तत्वों पर न तो एकान्त रुचि करता है, और न एकान्त अरूचि । किन्तु वह सर्वज्ञ प्रणीतं तत्वों के विषय में इस प्रकार मध्यस्थ रहता है, जिस प्रकार कि नालिकेर द्वीप निवासी मनुष्य श्रोदन ( भात ) श्रादि अन्न के विषय में । जिस द्वीप में प्रधानतया नरियल पैदा 1 होते हैं, वहाँ के अधिवासियों ने चावल-आदि अन्न नतो देखा होता है और न सुना । इससे वे अदृष्ट और अश्रुत अन्न को देख कर उस के विषय में रुचि या घृणा नहीं करते । किन्तु समभाव ही रहते हैं । इसी तरह सम्यक्षमिध्यादृष्टि जीव भी सर्वज्ञ कथित मार्गपर प्रीति या अप्रीति न करके, समभाव ही रहते हैं । अर्धविशुद्ध पुंजका उदय अन्तर्मुहुर्त मात्र पर्यन्त रहता है । इस के अनन्तर शुद्ध या श्रशुद्ध किसी एक पुंजका उदय हो आता है । अतएव तीसरे गुणस्थान की स्थिति, मात्र अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण मानी जाती है ॥३॥ श्रविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान - सावद्य व्यापारों को छोड़ देना अर्थात् पापजनक प्रयत्नों से अलग हो जाना उसे विरति कहते हैं | चारित्र और व्रत, विरति ही का नाम है । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) जो सम्यग्दृष्टि हो कर भी किसी भी प्रकार के व्रत को धारण नहीं कर सकता, वह जोव अविरतसम्यग्रोष्ट,, और उस का स्वरूपायशेष अविरतसम्यग्हाप्टे-गुणस्थान कहाता है . अविरत जीव सात प्रकार के होते हैं । जैसे १-जो व्रतों को न जानते हैं, न स्वीकारते हैं और न पालते हैं वे सामान्यतः सय लोग। २-जो व्रतों को जानते नहीं, स्वीकारते नहीं किन्तु पालते हैं। वे तपस्वीविशेष । __३-जो व्रतों को जानते नहीं, परन्तु स्वीकारते हैं और स्वीकार कर पालते नहीं, वे पार्श्वस्थ नामक साधुविशेष। ४-जिनको व्रतोंका ज्ञान नहीं है, किन्तु उनका स्वीकार तथा पालन बरावर करते हैं, घे अगीतार्थ मुनि । ५-जिनको व्रतों का शान तो है, परन्तु जो व्रतों का स्वीकार तथा पालन नहीं कर सकते, वे श्रेणिक, कृष्ण श्रादि । ६-जो व्रतों को जानते हुये भी स्वीकार नहीं कर सकते किन्तु उनका पालन अवश्य करते हैं, वे अनुत्तरविमान चासिदेव । ७-जो व्रतों को जानकर स्वीकार लेते हैं, किन्तु पीछे से उन का पालन नहीं कर सकते, वे संविग्नपातिक । सम्यग्ज्ञान सम्यग्ग्रहण औरसम्यक्पालनसे ही व्रत सफल होते हैं । जिन को व्रतों का सम्यग्ज्ञान नहीं है,जोबतों को विधिपूर्वक ग्रहण नहीं करते और जो व्रतो का यथार्थ पालन नहीं करते, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) वे सब धुणाक्षरन्याय से व्रतों को पाल भी लें तथापि उस से फलका सम्भव नहीं है । उन्न सात प्रकार के अविरतों में से पहले चार प्रकार के अविरत-जीव तो मिथ्यावृष्टि ही है । क्यों कि उनको व्रतोका यथार्थ ज्ञान ही नहीं है । और पिछले तीन प्रकार के अविरत जीव सस्यग्दृष्टि हैं । क्यों कि वे व्रतों को यथाविधि ग्रहण तथा पालन नहीं कर सकते, तथापि उन्हें यथार्थ जानते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि जीवों में भी कोई औपशभिक-सम्यक्त्वी होते हैं, कोई क्षायोपशमिकसम्यक्त्वी होते हैं और कोई प्रायिक-सम्यक्त्वी होते हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि जीव व्रत-नियम को यथावत् जानते हुये भी स्वीकार तथा पालन नहीं कर सकते क्योंकि उनको अप्रत्याख्यानावरण-कपाय का उदय रहता है, और यह उदय चारित्रके ग्रहण तथा पालन का प्रतिबंधक(रोकने वाला)ह॥४॥ देशविरतगुणस्थान-प्रत्याख्यानावरण कपाय के उदय के कारण जो जीव, पाप जनक क्रियाओं से बिलकुल नहीं किन्तु देश (अंश) से अलग हो सकते हैं वे देशविरत या श्रावक कहलाते हैं। और उनका स्वरूप-विशेष देशविरत गुण स्थान । कोई श्रावक एक व्रत को ग्रहण करता है, और कोई दो व्रत को । इस प्रकार अधिक से अधिक व्रत को पालन करने वाले श्रावक ऐसे भी होते हैं जो कि पापकार्यों में अनु-' मति के सिवा और किसी प्रकार से भाग नहीं लेते अनुमति तीन प्रकार की है जैसे-१-प्रतिसेवनानुमति, २-प्रतिश्रवणा - नुमति और ३-संवालानुमति । अपने या दूसरे के किये हुये भोजन आदि का उपभोग करना "प्रतिसेवनानुमति" कहाती है । पुत्र-श्रादि किसी संबन्धि के द्वारा किये गये पाप कर्मों को केवल सुनना,और सुन कर भी उन कामों के करने Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) से पुत्र आदि को नहीं रोकनाः उसे " प्रतिभवणा नुमति" कहते हैं । पुत्र आदि अपने संघन्धियों के पाप-कार्य में प्रवृत्त होने पर उनके ऊपर सिर्फ ममता रखना अर्थात् नतो पाप कर्मों को सुनना और सुन कर भी न उस की प्रशं सा करना, इसे "संवालानुमति " कहते हैं। जो श्रावक, पापजनक आरंभ में किसी भी प्रकार से योग नहीं देता केवल संचासानुमति को सेवता है, वह अन्य सब श्राषकों में श्रेष्ट है ॥५॥ प्रमत्त संयत गुणस्थान -- जो जीव पापजनक व्यापारों से विधिपूर्वक सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं, वेही संयत (मुनि) हैं। संयत भी जब तक प्रमाद का सेवन करते हैं, तयतक प्रमत्तसंयत कहाते हैं, और उनका स्वरूपविशेष प्रमत्त संयत गुणस्थान कहाता है । जो जीव संयत होते हैं, वे यहां तक सावद्य कम्मों का त्याग करते हैं कि पूर्वोक्त संवासानुमति को भी नहीं सेवते । इतना त्याग कर सकने का कारए यह है कि, छटे गुणस्थानसे लेकर श्रागे प्रत्यास्थानावरण कषाय का उदय रहता ही नहीं है ||६|| श्रप्रमत्तसंयतगुणस्थान - जो मुनि निद्रा, विषय, कपाय विकथा - श्रादि प्रमादों को नहीं सेवते व श्रप्रमत्त संयत हैं, और उन का स्वरूप- विशेष, जो शान- श्रादि गुणों की शुद्धि तथा शशुद्धि के तरतम भावसे होता है, वह श्रप्रमत्तसंयत गुण-स्थान है । प्रमाद के सेवन से ही श्रात्मा रंगों की शुद्धिसे गिरता है : इस लिये सातवे गुणस्थान से लेकर श्रागे के सम गुणस्थानों में वर्तमान मुनि, अपने स्वरूप में छात्रमत्त हो रहते हैं ॥७॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) निवृत्ति (अपूर्वकरण) गुणस्थान-जो इस गुणस्थान को प्राप्त करचुके हैं तथा जो प्राप्त कर रहे हैं और जो आगे प्राप्त करेंगे, उन सव जीवों के अध्यवसाय स्थानों की ( परिणाम-भेड़ों को) संख्या, असंख्यात-लोकाकाशी के प्रदेशों के बराबर है। क्योंकि इस पाठवे गुणस्थानको स्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण है और अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात समय होते हैं जिनमें से केवल प्रथम समयवर्ती त्रैकालिक-(तीनों कालके ) जीवों के अध्यवसाय भी असंख्यात-लोकाकाशों के प्रदेशों के तुल्य हैं। इस प्रकार दूसरे, तीसरे आदि प्रत्येकसमयवर्ती कालिक जीवों के अध्यवसाय भी गणना में असंख्यात-लोकाकाशों के प्रदेशों के बराबर ही हैं । असंख्यात संख्या के असंख्यात प्रकार हैं । इस लिये एक एक समयवर्ती त्रैकालिक जीवों के अध्यवसायों की संख्या और सब समयों में वर्तमान त्रैकालिक जीवों के अध्यवसायों की संख्या-ये दोनों संख्यायें सामान्यतः एकसी अर्थात् असंख्यात ही हैं। तथापि वे दोनों असंख्यात संख्यायें परस्पर भिन्न हैं । यद्यपि इस पाठवे गुणस्थान के प्रत्येक समयवर्ती त्रैकालिक-जीव अनन्त ही होते हैं, तथापि उनके अध्यवसाय असंख्यात ही होते हैं । इसका कारण यह है कि समान समयवर्ती अनेक जीवों के अध्यवसाय यद्यपि. आपसमें जुदे जुदे (न्यूनाधिक शुद्धिचाले) होते हैं, तथापि समसमयवर्ती बहुत जीवों के अध्यवसाय तुल्य शुद्धिवाले होने से जुदे जुदे नहीं माने जाते । प्रत्येक समय के असंख्यात अध्यवसायों में से जो अध्यवसाय, कम शुद्धिवाले होते हैं, वे जघन्य । तथा जो अध्यवसाय, अन्य सव अध्यवसायों की अपेक्षा अधिक शुद्धिवाले होते हैं, वे उत्कृष्ट कहाते हैं । इस प्रकार एक वर्ग जघन्य अध्यवसायों का होता है । इन दो वर्गों Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) safe में असंख्यात वर्ग हैं, जिन के सब श्रध्यवसाय मध्यम कहाते हैं । प्रथम वर्ग के जघन्य श्रध्यवसायों की शुद्धि की अपेक्षा अन्तिम वर्ग के उत्कृष्ट श्रध्यवसायों की शुद्धि अनन्त-गुण- अधिक मानी जाती है। और बीच के सब वर्गों में से पूर्व पूर्व वर्ग के अध्यवसायों की अपेक्षा पर पर वर्ग के अध्यवसाय, विशेष- शुद्ध माने जाते हैं । सामान्यतः इस प्रकार माना जाता है कि सम-समयवर्ती अध्यवसाय एक दूसरे से अनन्त भाग अधिक-शुद्ध, श्रसंख्यात- भाग- अधिक- शुद्ध, संख्यात भाग- श्रधिक-शुद्ध, संख्यात गुण- अधिक-शुद्ध, असंख्यात-गुण- अधिक शुद्ध और अनन्त-गुण- अधिक-शुद्ध होते हैं । इस तरह की अधिक-शुद्धि के पूर्वोक्त श्रनन्त-भाग- अधिक श्रादि छःप्रकारों को शास्त्र में 'पदस्थान' कहते हैं । प्रथम समय के अध्यवसायों की अपेक्षा दूसरे समय के अध्यवसाय भिन्न. ही होते हैं, और प्रथम समय के उत्कृष्ट श्रध्यवसायों से दूसरे समयके जघन्य अध्यवसाय भी श्रनन्त-गुण-विशुद्ध होते हैं । इस प्रकार अन्तिम समयतक पूर्व पूर्व समय के श्रध्यवसायों से 'पर पर समय के अध्यवसाय भिन्न भिन्न समझने चाहिये । तथा पूर्व पूर्व समय के उत्कृष्ट अध्यवसायों की अपेक्षा पर पर समय के जघन्य अध्यवसाय भी अनन्त-गुण- विशुद्ध समझने । · इस आठवे गुणस्थान के समय जीव पाँच वस्तुओं का विधान करता है । जैसे- १ स्थितिघात, २ रसघात, ३ गुण. श्रेणि, ४ गुण संक्रमण और पूर्व स्थितिबंध | १ - जो कर्म- दलिक आगे उदय में आनेवाले हैं, उन्हें अप वर्तना-करण के द्वारा अपने अपने उदय के नियत समयों से "हटा देना- अर्थात् ज्ञानांवरण- श्रादि कर्मों की बड़ी स्थिति को Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) अपवर्तना-करण से घटा देना इसे "स्थितिघात" कहते हैं । २ – बँधे हुये ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रचुर रस ( फल देने की तीव्र शक्ति) को अपवर्तना-करण के द्वारा मन्द कर देना यही " रसघात " कहलाता है । ३ - जिन कर्म दलिकों का स्थितिघात किया जाता है अर्थात् जो कर्मदलिक अपने अपने उदय के नियत समयों से हटाये जाते हैं, उनको प्रथम के अन्तर्मुहूर्त्त में स्थापित कर देना "गुणश्रेणि" कहाती है । स्थापन का क्रम इस प्रकार हैः- उदय - समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त्त पर्यन्त के जितने समय होते हैं, उनमें से उदयावलिका के समयों को छोड़ कर शेष जितने समय रहते हैं इनमें से प्रथम समय में जो दलिक स्थापित किये जाते हैं वे कम होते हैं। दूसरे समय में स्थापित किये जानेवाले दलिक प्रथम समय में स्थापित दलिकों से असंख्यात गुण अधिक होते हैं । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त के चरमसमयपर्यन्त पर पर समय में स्थापित किये जानेवाले दलिक, पूर्व पूर्व समय में स्थापित किये गये दलिकों से असंख्यात गुण ही समझने चाहिये । ४- जिन शुभ कर्म प्रकृतियों का बन्ध अभी हो रहा है उनमें पहले बाँधी हुई अशुभ- प्रकृतियों का संक्रमण कर देनाअर्थात् पहले बाँधी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान बन्धवाली शुभ प्रकृतियों के रूप में परिणत करना " गुण-संक्रमण " कहलाता है । गुणसंक्रमण का क्रम संक्षेप में इस प्रकार है - प्रथम समय में अशुभ प्रकृति के जितने दलिकों का शुभ-प्रकृति में संक्रमण होता है, उनकी अपेक्षा दूसरे समय में असंख्यात गुण अधिक Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६) दलिकी को संक्रमण होता है । इस प्रकार जव तक गुणसंक्रमण होता रहता है तब तक पूर्व पूर्व समय में संक्रमण किये गये दलिकों से उत्तर उत्तर समय में असंख्यात गुणअधिक दलिको का ही संक्रमण होता है। ... ५-पहले की अपेक्षा अत्यन्त अल्प-स्थिति के कर्मों को बाँधना "त्रपूर्वस्थितिवन्ध" कहलाता है। ये स्थितिघात-आदि पाँच पदार्थ, यद्यपि पहले के गुणस्थानों में भी होते हैं, तथापि आठवें गुणस्थान में वे अर्पूक ही होते हैं। क्यों कि पहले के गुणस्थानों में अध्यवसायों को जितनी शुद्धि होती है उसकी अपेक्षा आठवें गुणस्थान में 'अध्यवसायों की शुद्धि अत्यन्त अधिक होती है । अतएव पहलेके गुणस्थानों में बहुत कम स्थिति का और अतिअल्प रस का घात होता है । परन्तु पाठवें गुणस्थान में अधिकस्थिंति का तथा अधिक रस का घात होता है । इसी तरह एहले के गुणस्थानों में गुणश्रेणि की काल-मर्यादा अधिक होती है, तथा जिन दलिकों की गुण श्रेणि (रचना या स्थापना) की जाती है वे दलिक भी अल्प ही होते है और पाठवें गुणस्थान में गुणश्रेणि-योग्य-दलिक तो बहुत अधिक होते हैं, परन्तु गुणश्रेणि का काल-मान बहुत कम होता है। तथा पहले गुणस्थानों की अपेक्षा आठवे गुणस्थान में गुणसंक्रमण भी बहुत कर्मों का होता है, अतएव यह अपूर्व होता है। और आठवें गुणस्थान में इतनी अल्प स्थिति के कर्म बौधे जाते . . हैं कि जितनी. अल्प-स्थिति के कर्म पहले के गुणस्थानों में कदापि नहीं बँधते । इस प्रकार उक्त स्थितिघात-आदि पदाथों का अपूर्व विधान होने से इस पाठवै गुणस्थान का दूस 'रानाम “अपूर्व करण" गुणस्थान यह भी शास्त्र में प्रसिद्ध है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) जैसे राज्य को पाने की योग्यतामात्र से भी राजकुमार राजा कहाता है, वैसे ही आठवे गुणस्थान में वर्तमान जीव, चारित्र-मोहनीय कर्म के उपशमन या क्षपण के योग्य होने से उपशमक या क्षपक कहलाते हैं। क्यों कि चारित्र-मोहनीय कर्म के उपशमन या क्षपण का प्रारम्भ नववे गुणस्थानक में ही होता है, श्राठवें गुणस्थान में तो उसके उपशमन या क्षपण के प्रारम्म की योग्यतामात्र होती है ॥ ८॥ अनिवृत्तिवादर संपराय गुणस्थान इस गुणस्थान की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है। एक अन्तर्मुहूर्त के जितने समय हाते हैं उतने ही अध्यवसाय-स्थान, इस नवयं गुणस्थानक में माने जाते हैं। क्यों कि नववे गुणस्थानक में जो जीव सम-समयवर्ती होते हैं उन सब के अध्यवसाय एक से-अथीत् तुल्य-शुद्धिवाले होते हैं। जैसे प्रथम-समयवर्ती बैंकालिक अनन्तजीवों के भी अध्यवसाय समान ही होते हैं इस प्रकार दूसरे समय से लेकर नववे गुणस्थान के अन्तिम समय तक तुल्य समय में वर्तमान त्रैकालिक जीवों के अध्यवसाय भी तुल्य ही होते हैं। और तुल्य अध्यवसायों को एक ही अध्यवसाय-स्थान मान लिया जाता है । इस बात को समझने की सरल रीति यह भी है कि नववे गुणस्थान के अध्यवसायों के उतने ही वर्ग हो सकते हैं जितने कि उस गुणस्थान के समय हैं। एक एक वर्ग में चाहे त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसायों की अनन्त व्यक्तियाँ शामिल हों, परन्तु . प्रतिवर्ग अध्यवसाय-स्थान. एक ही माना जाता है। क्यों कि एक वर्ग के सभी अध्यवसाय, शुद्धि में बराबर ही होते हैं, परन्तु प्रथम समयके अध्यवसाय-स्थानसे-अर्थात् प्रथम-वर्गीय अध्यवसायों से-दूसरे समय के अध्यवसाय-स्थान-अर्थात् Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) दूसरे वर्ग के अध्यवसाय-अनन्त-गुण-विशुद्ध होते हैं। इस प्रकार नववे गुणस्थान के अन्तिमसमय तक पूर्व २ समय के अध्यवसाय-स्थान से उत्तर२ समय के अध्यवसाय स्थान को अनन्त-गुण-विशुद्ध समझना चाहिये । पाठवे गुण स्थानक से नववे गुणस्थानक में यही विशेषता है.कि आठवें गुणस्थानक में तो समान समयवर्ती त्रैकालिक अनन्त-जीवों के अध्यवसाय,शुद्धिः के तरतम-भाव से असंख्यात वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं, परन्तु नववे गुणस्थान में समसमयवती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसायों का समान शुद्धि के कारण एक ही धर्ग हो सकता है। पूर्व पूर्वगुणस्थानको अपेक्षा,उत्तर उत्तर.गुणस्थान में कषाय के अंश “बहुत कम होते जाते हैं,और कषाय की(संक्लेशकी जितनी ही कमी हुई, उतनी ही विशुद्धि जीव के परिणामों की बढ़ जाती है। पाठवें गुणस्थान से नवव.गुणस्थान में विशुद्धि इतनी अधिक हो • जाती हैं कि उसके अध्यवसायों की भिन्नतायें आठवें गुण, स्थान के अध्यवसायों की भिन्नताओं से बहुत कम हो जांती है। . दसवें गुणस्थान की अपेक्षा नववे गुणस्थान में बादर (स्थूल.) सम्पराय (कषाय ) उदय में आता है । तथा नववें • गुणस्थान के सम-समय-वर्ती जीवों के परिणामों में निवृत्ति (भिन्नता) नहीं होती। इसी लिये इस गुणस्थान का अनि वृत्तिवादरसम्पराय" ऐसा सार्थक नाम शास्त्र में प्रसिद्ध है। ... नववे गुणस्थान को प्राप्त करनेवाले जीव, दो प्रकार के ___ होते हैं:-एक उपशमक और दूसरे पकजोचारित्र मोहनीय. कर्म का उपशमन करते हैं, वे उपशमक और जो Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) चारित्र-मोहनीय कर्मका क्षपण (क्षय ) करते हैं वे क्षपक कह लाते हैं ॥६॥ सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान इस गुणस्थान में सम्पराय केअर्थात् लोभ-कषाय के-सूक्ष्म-खण्डों का ही उदय रहता है । इस लिये इसका "सूदपसम्पराय गुणस्थान" ऐसा सार्थक नाम प्रसिद्ध है। इस गुणस्थान के जीव भी उपशमक और क्षपक होते हैं । जो उपशमक होते हैं वे लोभ-कषायमात्र का उपशमन करते हैं और जो क्षपक होते हैं वे लोभ-कषाय. मात्रका क्षपण करते हैं। क्यों कि दसवें गुणस्थान में लोभ के सिवा दूसरी चारित्रमोहनीय कर्म की ऐसी प्रकृति ही . नहीं है जिसका कि उपशमन या क्षपण हुश्रान हो ॥१०॥ उपशान्तकषायवीतरागछमस्थगुणस्थानजिनके कषाय उपशान्त हुयेहैं, जिनको राग का भी(माया तथा लोभ का भी) सर्वथा उदय नहीं है, और जिनको छन (प्राव रण भूत घातिकर्म) लगे हुये हैं, वे जीव उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, तथा उन का स्वरूप-विशेष "उपशान्तकपायवीतरागछभस्थ गुणस्थान" कहाता है। [विशेषण दो प्रकार का होता है ।१ स्वरूप विशेषण, . ओर २ व्यावर्तक विशेषण । “स्वरूषविशेपण' उस विशेषण को कहते हैं जिंस विशेषण के न रहने पर भी शेष भाग से इष्ट-अर्थ का बोध हो ही जाता है-अर्थात् जो विशेषण अपने विशेष्य के स्वरूप मात्र को जनाता है। "व्यावर्तक विशेषणं' उस विशेषण को कहते हैं जिस विशेषण के रहने से ही रष्ट-अर्थ का बोध हो सकता है-श्रर्थात् जिस विशेषण के Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) प्रभाव में इष्ट के सिवा दूसरे अर्थ का भी वोध होने लगता है। "उपशान्तकपाय-वीतराग-छद्मस्थ-गुणस्थान" इस नाम में १ उपशान्तकपाय,२ वीतराग और ३ छन्मस्थ,ये तीन वि. शेषण हैं । जिनमें "छमस्था' यह विशेपण स्वरूप-विशेषण है; क्यों कि उस विशेषण के न होने पर भी शेष भाग से-अर्थात् उपशान्तकपाय-चीतराग-गुणस्थान. इतने ही नाम से इष्ट अर्थ का (ग्यारहवे गुणस्थान का) बोध हो जाता है, और इंट के अतिरिक्त दूसरे अर्थ का बोध नहीं होता । अतएव छमस्थ यह विशेपण अपने विशेष्य का स्वरूपमात्र जनाता है। उपशान्तकषाय और वीतराग ये दो, व्यावर्तक-विशेपण हैं, क्यों कि उनकें रहने से ही इष्ट अर्थ का बोध हो सकता है, और उनके अभाव में इष्ट के सिवाअन्य अर्थ का भी वोध होता है । जैसे-उपशान्त कपाय इस विशेषण के अभाव में वीतरागछमस्थ गुणस्थान इतने नाम से इष्ट-अर्थ के (ग्यारह गुणस्थान के) सिवा बारहवे गुणस्थान का भी वोध होने लगता है । क्यों कि बारहवें गुणस्थान में भी जीव को छम (शानावरण-श्रादि धाति कर्म) तथा वीतरागत्व ( राग के उदय का अभाव) होता है, परन्तु 'उपशान्त कपाय' इस विशेषण के ग्रहण करने से बारहवे गुणस्थान का बोध नहीं हो सकता; क्यों कि चारहवे गुणस्थान में जीव के कषाय उपशान्त नहीं होते बल्कि क्षीण हो जाते हैं । इसी तरह वीतराग इस विशेषण के अभाव में "उपशान्तकपाय छमस्थ · गुणस्थान" इतने नाम से चतुर्थ पंचम-श्रादि गुणस्थानों का भी बोध होने लगता है। क्यों कि चतुर्थ, पञ्चम आदि-गुण'. स्थानों में भी जीवके अनन्तानुवन्धी कषाय उपशान्त हो Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) सकते हैं। परन्तु "वीतराग" इस विशेषण के रहने से चतुर्थपञ्चम-श्रादि गुणस्थानों का बोध नहीं हो सकता; क्यों कि उन गुणस्थानों में वर्तमान जीय कोराग के (मायातथा लोभ के) उदय का सद्भाव ही होता है, अतएव वीतरागत्व असंभव है। इस ग्यारह गुणस्थान की स्थिति अघन्य एक समय प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त प्रमाण मानी जाती है। इस गुणस्थान में वर्तमान जीव धागे के गुणस्थानों को प्राप्त करने के लिये समर्थ नहीं होता; क्यों कि जो जीव क्षपक-श्रेणि को करताहै वही आगे के गुणस्थानों को पासकता है । परन्तु ग्यारहवें गुणंस्थान में वर्तमान जीव तो नियम से उपशम-श्रेणि करनेवाला ही होता है, अतएव वह जीव ग्यारहवें गुणस्थान से अवश्य ही गिरता है । गुणस्थान का समय पूरा न हो जाने पर भी जो जीव भव के (आयु के) क्षयसे गिरता है वह अनुत्तर विमान में देवरूप से उत्पन्न होता है और चौथे ही गुणस्थान को प्राप्त करता है। क्योंकि उस स्थान में चौथे के सिवा अन्यगुणस्थानों का सम्भव नहीं है। चौथे गुणस्थान को प्राप्त कर वह जीव उस गुणस्थान में जितनी कर्मप्रकृतियों के बन्ध का, उदय कातथाउंदीरणा का सम्भव है उन सब कर्म-प्रकृतियों के वन्ध को, उदय को और उदीरणा को एक साथ शुरू कर देता है। परन्तु आयु के रहते हुए भी गुणस्थान का समय पूरा हो जाने से जो जीव गिरता है वह प्रारोहण-क्रम के अनुसार, पतन के समय, गुणस्थानों को प्राप्त करता है-अर्थात् उसने प्रारोहण के समय जिस जिस गुणस्थान को पाकर जिन जिन कर्म प्रकृतियों के धन्ध का, उदय का और उदीरणा का विच्छेद किया हुश्रा होता है, गिरने के Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) धत भी उस उस गुणस्थान को पा कर वह जीव उन उन फर्म प्ररुतियों के बन्ध को, उदय को श्रार उदीरणा को शुरू कर देता है। श्रद्धा-क्षय से- अर्थात् गुणस्थान का काल समाप्त हो जाने से गिरनेवाला कोई जीव छठे गुणस्थान 'तक पाता है,कोई पाँचवें गुणस्थान में, कोई चौथै गुणस्थान में और कोई दूसरे गुणस्थान में भी प्रांता है। यह कहा जा चुका है कि उपशमश्रेणिवासा जीव ग्यारहवें गुणस्थान से अंवश्य ही गिरता है। इसका कारण यह है कि उसी जन्म में मोक्ष की प्राप्ति क्षपक-श्रेणि के विना नहीं होती। एक जन्म में दो से अधिक वार उपशम-थेणि नहीं फी जा सकती और क्षपक-श्रेणि तो एक बार ही होती है। जिसने एक बार उपशम-श्रेणि की है वह उस जन्म में क्षपफश्रेणि कर मोक्ष को पा सकता है। परन्तु जो दो बार उपशम-श्रेरिण कर चुका है वह उस जन्म में क्षपक-श्रेणि कर नहीं सकता। यह तो हुश्रा "कर्मप्रन्ध"फा अभिप्राय । परन्तु सिद्धान्त का अभिप्राय ऐसा है कि जीप एक जन्म में एक चार ही श्रेणि कर सकता है। अतएव जिसने एक बार उपशम-श्रेणि की है वह फिर उसी जन्म में क्षपक-श्रेणि नहीं कर सकता। उपशम-श्रेणि के प्रारम्भ का क्रम संक्षेप में इस प्रकार हैचौथ, पाँचथे, छठे और सातवें गुणस्थान में से किसी भी गुणस्थान में वर्तमान जीव पहले चार अनन्तानुबन्धिकंपायों का उपशम करता है और पीछे दर्शनमोहनीय-त्रिक का उपशम करता है । इस के बाद यह जीव छठे तथा सातवें गुणस्थान में सैकड़ों दंने श्राता और जाता है । पीछे Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) नाठवे गुणस्थान में होकर नवर्वे गुणस्थान को प्राप्त करता है और नववे गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम शुरू करता है । सब से पहले वह नपुंसकवेद को उपशान्त करता है । इस के बाद स्त्रीवेद को उपशान्त करता है । इसके श्रनन्तर क्रमसे हास्यादि-पट्क को, पुरुषवेद को अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण- क्रोध-युगल को, सञ्चलन क्रोध को, अप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण- मान-युगल को संज्वलन मान को, श्रप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरणमाया- युगल को, संज्वलन माया को और अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरण-लोभ- युंगल को नववे गुणस्थान के अन्त तक में उपशान्त करता है । तथा वह संज्वलन लोभ को -दसवे गुणस्थान में उपशान्त करता है ॥१६॥ क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान जिन्हों ने मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय किया है, परन्तु शेष छद्म - ( घाति कर्म) अभी विद्यमान हैं वे क्षीण-कपाय- वीतराग - छद्मस्थ, कहाते हैं और उनका स्वरूप - विशेष क्षीणकपायवतिरागछद्मस्थगुणस्थान कहाता है । बारहवे गुणस्थान के इस नाम में ९ क्षीण-कपाय, २ वीतराग और ३छद्मस्थये तीन विशेषण हैं और ये तीनों विशेषण व्यावर्तक है । क्योंकि " क्षीणकषाय " क्षीणकषाय " इस विशेषण के श्रभाव में ' वीतरागछद्मस्थ इतने नाम से बारहवें गुणस्थान, के अतिरिक्त ग्यारहवे गुणस्थान का भी बोध होता है । और " क्षीणकषाय". इस विशेषण से केवल वारहवे गुणस्थान का ही बोध होता है, क्योंकि ग्यारहवे गुणस्थान में कपाय क्षीण नहीं होते, किन्तु उपशान्त मात्र होते हैं । - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) तथा " वीतराग "इस विशेषण के अभाव में भी क्षीणकषायछमस्थगुणस्थान इतना ही नाम बारहवे गुणस्थान का ही बोधक नहीं होता किन्तु चतुर्थ श्रादि गुणस्थानों का भी घोंधक हो जाता है; क्योंकि उन गुणस्थानों में भी अनन्तानुबन्धि श्रादि कपायों का क्षय हो सकता है। परन्तु ''वीत. राग" इस विशेषण के होने से उन चतुर्थ-श्रादि गुणस्थानों का बोध नहीं हो सकता। क्योंकि उन गुणस्थानों में किसीन किसी अंशमें राग का उदय रहता ही है। अतएव वीतरागत्व असंभव है। इस प्रकार"छमस्थ"इस विशेषण के न रहने से भो "क्षीणकपाय धीतराग" इतना नाम यारहवें गुणस्थान के अतिरिक्त तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का भी बोधक हो जाता है । परन्तु "छमस्थ" इस विशेषण के रहने से बारहवें गुणस्थान का ही बोध होता है। क्योंकि तेरहवें और चौदहवे गुणस्थान में वर्तमान जीव को छम (घातिकर्म) नहीं होता। क्षपक श्रेणि कारण को करनेवाला किसी भी गुणक इन • चारहवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण मानी जाती है । बारहवें गुणस्थान में धर्तमान जीव क्षपक-श्रेणि घाले ही होते हैं। · क्षपक श्रेणि का फ्रम संक्षेप में इस प्रकार है:__जो जीव क्षपक-श्रेणि को करनेवाला होता है वह चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में सबसे पहले अनन्तानुवन्धि-चतुक और दर्शन-त्रिक इन सात कर्म-प्रकृतियाँका क्षय करता है । और इसके बाद आठवें गुणरथान में अप्रत्याख्यानावरण-कपाय-चतुष्क तथा प्रत्याख्यानावरण-कंपाय-चतुष्क इन पाठ कर्म-प्रकृतियों के. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) क्षय का प्रारम्भ करता है । तथा ये अाठ प्रकृतियाँ पूर्ण क्षीण नहीं होने पाती कि बीचमें ही नववं गुणस्थान के प्रारम्भ में १६ प्रकृतियों का क्षय कर डालता है । वे प्रकृतियाँ ये हैं-स्त्यानाई-निक ३, नरक-द्विक ५, तिर्यग्-द्विक७, जाति चतुष्क११, पातप१२, उद्योत१३, स्थावर१४, सूक्ष्म १५ और साधारण १६, इसके अनन्तर वह अप्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क का तथा प्रत्याख्यानावरण-कपाय-चतुष्क का शेष भाग,जो कि क्षय होने से अभी तक बचा हुआ है,उसका , क्षय करता है। और अनन्तर नववे गुणस्थान के अन्त में क्रम से नपुंसकवेद का, स्त्रीवेद का, हास्यादि-पदक का, पुरुषवेद का, संज्वलन क्रोध का, संज्वलन मान का और संज्वलन माया का क्षय करता है । तथा अन्त में संज्वलन लोभ का क्षय वह दसवें गुणस्थान में करता है ॥१२॥ सयोगिकेवलिगुणस्थान-जिन्हों ने भानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया है और जो योग के सहित हैं वे सयोगि-केवली कहाते हैं तथा उनका स्वरूपविशेष सयोगिकेवलिगुणस्थान कहाता है। आत्म-वीर्य, शक्ति. उत्साह, पराक्रम और.योग इन सब, शब्दो का मतलब एक ही है । मन, वचन और काय इन तीन साधनों से योग की प्रवृत्ति होती है श्रतएव योग के भी अपने साधन के अनुसार तीन भेद होते हैं । जैसे-१ मनोयोग, २ वचनयोग और ३ काययोग । केवलिभगवान् को मनोयोग का उपयोग किसी को मन से उत्तर देने में करना पड़ता है । जिस समय कोई मनःपर्यायशानीअथवा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) श्रनुत्तर विमानवासी देव, भगवान् को शब्द द्वारा न पूछकर मन से ही पूछता है । उस समय केवलिभगवान् उसके प्रश्न का उत्तर मन से ही देते हैं । प्रश्न करनेवाला मनः पर्यायज्ञानी या श्रनुत्तरविमानवासी देव, भगवान् के द्वारा उत्तर देने के लिये संगठित किये गये मनेा द्रव्यों को अपने मनःपर्यायज्ञान से. अथवा अवधिज्ञान से प्रत्यक्ष देख लेता है । और देखकर मनोद्रव्यों की रचना के आधारसे अपने प्रश्न का उत्तर अनुमान से जाम लेता है । केवलिभगवान् उपदेश देने के लिये वचनयोग का उपयोग करते हैं । और हलन चलन श्रादि क्रियामें काययोग का उपयोग करते है ||१३|| प्रयोगकेवलिगुणस्थान - जो केवलिभगवान्, योगे से. रहित हैं वे प्रयोगिकेवली कहाते हैं तथा उन का स्वरूप - विशेष " श्रयोगिकेयलिगुणस्थान" कहाता है । तीनों प्रकार के योग का निरोध करने से प्रयोगअवस्था प्राप्त होती है । केवलज्ञानिभगवान् सयोगि- श्रवस्था मैं जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट कुछ कम करोड़ पूर्व तक रहते हैं । इस के बाद जिन केवली भगवान् के वेदनीय, नाम और गोत्र. इन तीन कर्मों को स्थिति तथा पुल (परमाणु), आयुकर्म की स्थिति तथा परमाणुओं की अपेक्षा अधिक होते है. वे. केवलज्ञानी समुद्धात करते हैं । और समुद्धात के द्वारा वेदनीय, नाम, और गोत्र कर्म की स्थिति तथा परमाणुओं. को- श्रायुकर्म की स्थिति तथा परमाणुओं के बराबर कर लेते हैं । परन्तु जिन केवलज्ञानियों के वेदनीय आदि उक्त तीन कर्म, स्थिति में तथा: परमाणुओं में आयुकर्म के बराबर है : ; " ► Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) उनको समुद्धात करने की आवश्यकता नहीं है । श्रतएव वे समुद्धात को करते भी नहीं । सभी केवलज्ञानी भगवान् सयोगि अवस्था के अन्त में एक ऐसे ध्यान के लिये योगों का निरोध करते हैं, जो कि परम- निर्जरा का कारणभूत तथा लेश्या से रहित और अत्यन्तस्थिरतारूप होता है । योगों के निरोध का क्रम इस प्रकार है: पहले बादर काययोग से बादर मनोयोग तथा वादरवचन 1 योग को रोकते हैं । श्रनन्तर सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग को रोकते हैं, और पीछे उसी सूक्ष्म काययोग से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग को तथा सूक्ष्म वचनयोग को रोकते हैं । अन्त में वे केवलज्ञानो भगवान्, सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्ति-शुक्लध्यान के बल से सूक्ष्म काययोग को भी रोक देते हैं । इस तरह सब योगों का निरोध हो जाने से केवलज्ञानी भगवान् प्रयोगी बन जाते हैं । और उसी सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्ति- शुक्लध्यान की सहायता से अपने शरीर के भीतरी पोले भाग को -मुख, उदर- श्रादि भाग को - आत्मा के प्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं । उनके श्रात्म- प्रदेश इतने संकुचित हो जाते हैं कि वे शरीर के तीसरे हिस्से में ही समा जाते हैं। इसके बाद वे प्रयोगिकेवलिभगवान् समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति-शुक्लध्यान को प्राप्त करते हैं और मध्यम रीति से पाँच हस्व अक्षरों के उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय का “शैलेशी करण" करते हैं । सुमेरु पर्वत के समान निश्चल अवस्थाश्रथवा सर्व संवर-रूप योग निरोध अवस्थाको “ शैलेशी " कहते हैं । तथा उस अवस्था में वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म " Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . (३१) की गुण-श्रेणि से और आयुकर्म की यथास्थितश्रेणि से . निर्जरा करना उसे "शैलेशीकरण" कहते हैं। शैलेशीकरण को प्राप्त करके अयोगि-केवलशानी उसके अन्तिम समय में वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु इन चार भवोपमाहि-कमर्मों का सर्वथा क्षय कर देते हैं। और उन कर्मों का क्षय होते ही वे एकसमयमात्र में जु-गति से ऊपर की ओर सिद्धि-क्षेत्र में चले जाते हैं। सिद्धि-क्षेत्र, लोक के ऊपरके भाग में वर्तमान है। इस के आगे किसी आत्मा या पुद्गल की गति नहीं होती। इसका कारण यह है कि आत्मा को या पुगल को गति करने में धर्मास्तिकाय-द्रव्य की सहायता अपेक्षित होती है। परन्तु, लोक के श्रागे अर्थात्श्रलोक में धर्मास्तिकाव-द्रव्य का प्रभाव है । कर्म-मल के हट जाने से शुद्ध आत्मा की ऊर्ध्व-गति इस प्रकार होती है जिस प्रकार कि मिट्टी के लेपों से युक्त तुम्बा, लेपो के हट जाने पर जलके तलसे ऊपरकी ओर चला आता है ॥ १४ ॥ ___ गुणस्थानों का स्वरूप कहा गया। अव वन्ध के स्वरूप को दिखा कर प्रत्येक गुणस्थान में बन्ध-योग्य कर्म-प्रकृतियों को १० गाथाओं से दिखाते हैं: अभिनव-कम्म-ग्गहणं, बंधो श्रोहेण तत्थवीस-सयं । तित्थयराहारस-दुग-धज्ज मिच्छमि सत्तर-सयं॥३॥ ' (अभिनव-कम-ग्रहणं बन्धं श्रोधेन तत्र विंशति-शतम् । '- तीर्थकराहारक-द्विक-वर्ड मिथ्यात्वे सप्तदश-शतम् ॥३॥) अर्थ-नये कर्मों के ग्रहण को बन्ध कहते हैं। सामान्यरूप से-अर्थात् किसी खास गुणस्थान की अथवा किसी जीव : विशेष की विवक्षा किये विना ही,बन्ध में १२० कर्म-प्रकृतियाँ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) मानी जाती है अर्थात् सामान्यरूप से चन्ध-योग्य१२०कर्मप्रकृतियाँ हैं। १२० कर्म-प्रकृतियों में से तीर्थङ्कर-नामकर्म और श्राहारक-द्विक को छोड़कर शेष ११७ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध मियादृष्टिगुणस्थान में होता है। भावार्थ-जिस श्राकारा -क्षेत्र में प्रात्मा के प्रदेश हैं उसो क्षेत्र में रहनेवालो कर्म-योग्य ‘पुद्गलस्कन्धों की वर्ग• रणाओं को कर्म रूपसे परिणत कर. जीव के द्वारा उनका . ग्रहण होना यही अभिनव-कर्म-ग्रहण है फिर्म-योग्य पुगलों का कर्म रूप से परिणमन मिथ्यात्व-श्रादि हेतुओं से होता है । मिथ्यात्वावरात.कषाय और योग ये चार, जोवके वैभाविक (विकृतास्वरूप है, और इसी सेवे,फर्म-पुद्गलों के कर्म-रूप बनने में निमित्त होते हैं। कर्म-पुद्गलों में जीव के ज्ञान-दर्शन-श्रादि स्वाभाविक गुणों को प्रावरण करने की शक्ति का हो जाना यही कर्म-पुद्गलों का कर्म-रूप बनना कहाता है । मिथ्यात्व-श्रादि जिन वैभाविक स्वरूपों से- कर्मपुद्गल कर्म-रूप बन जाते हैं, उन वैभाविक-स्वरूपों को भाव-कर्म समझना चाहिये । और कर्म-रूप परिणाम को प्राप्त हुए पुदलों को द्रव्य-कर्म समझना चाहिये । पहिले ग्रहण किये गये द्रव्य-कर्म के अनुसार भावकर्म होते हैं और भाव-कर्म के अनुसार फिर से नवीन द्रव्य -कर्मों का संबन्ध होता है । इस प्रकार कर्म से भाव-कर्म और भाव-कर्म से द्रव्य-कर्म ऐसी कार्य-कारण-भाव को अनादि परंपरा चली आती है । श्रास्माके साथ बंधे हुये कर्म जव परिणाम-विशेष से एक स्वभाव का परित्याग कर दूसरे स्वभाव को प्राप्त कर लेते हैं तब उस स्वभावान्तर-प्राप्ति को संक्रमण समझना चाहिये, बन्ध नहीं। इसी अभिप्राय को Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) जनाने के लिये कर्म-ग्रहण-मात्र को बन्ध न कह कर, गाथा में अभिनव-कर्म-ग्रहण को बन्ध कहा है । जीव के मिथ्यात्वआदि परिणामों के अनुसार कर्म-पुद्गल १२० रूपों में परिणत हो सकते हैं इसीसे १२०-कर्म-प्रकृतियाँ बन्ध योग्य मानी जाती हैं धीप कोई एक जीव किसी भी अवस्था में एक समय में कर्म-पुद्गलों को १२० रूपों में परिणत नहीं कर सकता-अर्थात् १२० कर्म प्रकृतियों को बाँध नहीं सकता; परन्तु अनेक जीव एक समय में ही१२०कर्म-प्रकृतियों को बाँध सकते हैं।इसी तरह एक जीव भी जुदी जुदी अवस्था में जुदे जुदे समय सब मिला कर १२० कर्म-प्रकृतियों को भी बाँध सकता है । अतएर ऊपर कहा गया है कि किसी खास गुणस्थानकी, और किसी खास जीव की विवक्षा किये विना बन्ध-योग्य कर्म-प्रकृतियाँ १२०-मानी जाती हैं । इसीसे १२०-कर्म-प्रकृतियों के बन्ध को सामान्य बन्ध या ओघ-बन्ध कहते हैं। - बन्ध-योग्य १२० कर्म-प्रकृतियाँ ये हैं:१–ज्ञानावरण की ५-कर्म-प्रकृतियाँ, जैसे;-(१)मतिशानावरण,(२)श्रुतज्ञानावरण,(३)अवधिज्ञानावरण,(४)मनः पर्याय ज्ञानावरण और (५) केवलज्ञानावरण । २- दर्शनावरण की प्रकृतियाँ, जैसे:-(१) चक्षुर्दर्शना चरण,(२)श्रचक्षुर्दर्शनावरण;(३'अवधिदर्शनावरण, (४)केवलदर्शनावरण,(५)निद्रा,(६)निद्रानिद्रा,(७) प्रचला, (८) प्रचला. प्रचला और (E)स्त्यानाई।। ३. वेदनीय की २-प्रकृतियाँ,जैसे:-(१) सातवेदनीय और (२) असातवेदनीय ।।. . .. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) ४-मोहनीय को २६-प्रकृतियाँ, जैसे-मिथ्यात्वमोहनीय (१), अनन्तानुवन्धि-क्रोध, अनन्तानुबन्धि-मान, अनन्तानुबन्धि-माया, अनन्तानुबन्धि-लोभ (४) अप्रत्याख्यानावरण-क्रोध,अप्रत्याख्यानावरण-मान, अप्रत्याख्यानावरण-माया,अप्रत्याख्यानावरण-लोभ(४)प्रत्याख्यानावरणक्रोध, प्रत्याख्यानावरणमान, प्रत्याख्यानावरणमाया, प्रत्याख्याना वरणलोभ (४) संज्वलनक्रोध, संज्वलनमान, संज्वलनमाया, संज्वलनलोभ (४), स्नोवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद् (३), हास्य, रति, परति, शोक, भय और जुगुप्सा (६)। ५-श्रायु कर्म की(४)-प्रकृतियाँ,जैसे;-(१)-नारक-प्रायु, (२)-तिर्यञ्च-श्रायु, (३)-मनुष्य-श्रायु और (४)-देव-श्रायु ६-नामकर्म की ६७-प्रकृतियाँ-जैसे:-(१)नरकगतिनामकर्म, तिर्यञ्चगतिनामकर्म,मनुष्यगतिनामकर्म और देवगतिनामकर्म, येचारगतिनामकर्म(२)एकेन्द्रियजातिनामकर्म,द्वीन्द्रियजातिनामकर्म, श्रीन्द्रियजातिनामकर्म, चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म और पञ्चन्द्रियजातिनामकर्म, ये पाँच जातिनामकर्म (३) औदारिकशरीरनामकर्म वैक्रियशरीरनामकर्म, आहारकशरीरनामकर्म, तैजसशरीरनामकर्म और कार्मणशरीरनामकर्मये पाँच शरीरनामकर्म । (४) औदारिक अङ्गोपाङ्गनामकर्म, वैक्रियङ्गोपाङ्गनामकर्म और आहारकअङ्गोपाङ्गनामकर्म ये तीन अङ्गोपाङ्गनामकर्म (५) । वज्रक्रषभनाराचसंहनननामकर्म, ऋपभनाराचसंहनननामकर्म । नाराचसंहनननामकर्म, अर्धनाराचसंहनननामकर्म, कालिकासंहनननामकर्म, सेवार्तसंहनननामकर्म-ये छः संहनननामकर्म(६)समचतुरस्रसंस्थाननामकर्म, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थाननामकर्म, सादि Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) संस्थाननामकर्म, वामनसंस्थामनामकर्म, कुब्जसंस्थाननामकर्म और हुंड संस्थाननामकर्म ये छः संस्थाननामकर्म (७) वर्णनामकर्म (८) गन्धनामकर्म (1) रसनामकर्म (१०) स्पर्शनामकर्म (११) नरकानुपूर्वीनामकर्म, तिर्यगानुपूर्वीनामकर्म, मनुष्यानुपूर्वीनामकर्म और देवानुपूर्वीनामकर्म- ये चार आनुपूर्वीनामकर्म (१२) शुभविहायोगतिनामकर्म और अशुभ विहायोगति नामकर्म ये दो विहायोगातनामकर्म-ये ३६ भेद' बारह पिण्ड- प्रकृतियों के हुये, क्योंकि बन्धननामकर्म और संघातननामकर्म- इन दो पिण्ड - प्रकृतियों का समावेश शरीरनामकर्म मैं ही किया जाता है । (१) पराघात- नामकर्म, (२) उपघातनामकर्म, (३) उच्छ्रासनामकर्म, (४) श्रातपनामकर्म, (५) उद्योतनामकर्म, (६) अगुरुलघुनामकर्म, ( ७ ) तीर्थङ्कर नामकर्म (८) निमाणनाम - कर्म ये आठ प्रत्येक नामकर्म । (१) त्रसनामकर्म, (२) बादरनामकर्म, (३) पर्याप्तनामकर्म, (४) प्रत्येकनामकर्म, (५) स्थिरनामकर्म (६) शुभनामकर्म, (७) सुभगनामकर्म, (८) सुस्वरनामकर्म, (६) श्रदेयनामकर्म और (१०) यशः कीर्त्तिनामकर्म - ये त्रसदशकनामकर्म (१) स्थावरनामकर्म, (२) सूक्ष्मनामकर्म, (३) अपर्याप्त नामकर्म, (४) साधारण नामकर्म, (५) अस्थिरनामकर्म, (६) शुभनामकर्म, (७) दुर्भगनामकर्म, (८) दु:स्वर - नामकर्म, अनादेय नामकर्म और (१०) अयशः कीर्त्तिनामकर्म-ये स्थावरदशकनामकर्म । ये कुल ६७ भेद हुये । ७ - गोत्र- कर्म की दो प्रकृतियाँ, जैसे:- (१) उच्चगोत्र और. (२) नीचैर्गोत्र | - अन्तरायकर्म की५ - कर्म - प्रकृतियाँ, जैसे:- (१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भांगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय, और (५) वीर्यान्तराय । { Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । उन तीन काव, अविरति यादृष्टिगुणस्थान इन १२० कर्म-प्रकृतियों में से तीर्थकरनामकर्म,श्राहारकशरीर और आहारकअङ्गोपाङ्ग इन तीन कर्म-प्रकृतियों का वन्ध, मिथ्यात्वगुणस्थानवी जीवों को नहीं होता! इस का. कारण यह है कि तीर्थकरनामकर्म का बन्ध, सम्यक्त्व से होता है और आहारक-द्विक का वन्ध, अप्रमत्तसंयम से । परन्तु मिश्यादृष्टि-गुणस्थान में, जीवों को न तो सम्यक्त्व का ही सम्भव है और न अप्रमत्तसंयम का; क्योंकि चौथे गुणस्थान से पहले सम्यक्त्व हो ही नहीं सकतातथा सातवें गुणस्थानसे पहले अप्रमत्त-संयम भी नहीं हो सकता । उल्लं तीन कर्म-प्रकृतियों के विना शेप११७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योगइन चार कारणों से होता है, इसीसे मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में वर्तमान जीव शेष १९७ कर्म-प्रकृतियों को यथासम्भव बाँध सकते हैं ॥३॥ . . . नरयतिगजाइथावर चउ,हुंडायवछिवट्ठ नपुमिच्छं। ... सोलंतो इगहिय सय,सालणि तिरियाणदुहगतिगं ॥४॥ . नरकत्रिकजातिस्थावरचतुष्क,हुंडातपसेवात नपुंमिथ्यात्वम् षोडशान्तएकाधिकशतं,सास्वादने तिर्यस्त्यानार्द्धदुर्भगत्रिकम् अणमभागिइ संघयण चर,निउज्जोय कुखगइथिति । पणवीसंतो मीसे चउसयरिदुआउअश्रवन्धा ॥५॥ अनमध्याकृतिसंहनन चतुष्कनीचोद्योत कुखगतिस्त्रीति पंचविंशत्यन्तो मिश्रे, चतुःसप्तति द्वायुप्काऽबन्धात् ॥४॥ ___ अर्थ-सास्वादन गुणस्थान में १०१ कर्म-प्रकृतियों का वन्ध होता है। क्योंकि पूर्वोक्त ११७ कर्म-प्रकृतियों में से नरकत्रिक, जातिचतुष्क, स्थावरचतुष्क, हुंडसंस्थान, पातपनाम- . कर्म, सेवासिंहनन, नपुंसकवेद और मिथ्यात्व-मोहनीय . ' Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) इन १६ कर्म-प्रकृतियों का बन्धविच्छेद मिथ्याटिगुणस्थान के अन्त में ही हो जाता है। इस से वे १६कर्म-प्रकृतियाँ पहले गुणस्थान से आगे नहीं वाँधी जा सकतीं तथा तिर्यञ्चत्रिक, स्त्यानद्धित्रिक, दुभंगत्रिक अनन्तानुन्धिकषायचतुष्क, मध्यमसंस्थानचतुष्क, मध्यमसंहननचतुष्क, नीच. गोत्र, उद्यातनामकर्म,अशुभविहायोगतिनामकर्म और स्त्रीवेद इन २५-कर्म-प्रकृतियों का बन्धविच्छेद दूसरे गुणस्थान के अन्तिम समय में ही हो जाता है । इस ले दूसरे गुणस्थान से. आगे के गुणस्थानों में उन २५-कर्म-प्रकृतियों का बन्ध हो नहीं सकता । इस प्रकार पूर्वोक्त १०१-कर्म-प्रकृतियों में से तिर्यञ्च-त्रिक-श्रादि उक्त२५ कर्म-प्रकृतियों के घटा देने से शेष ७६-कर्म प्रकृतियाँ रह जाती हैं । उन ७६-कर्म-प्रकृतियों से से भी मनुष्य-श्रायु तथा देव-आयु को छोड़कर शेष ७४ कर्मप्रकृतियों का बन्ध सम्यगमिथ्याटिगुणस्थान में (तीसरे गुरणस्थान में हो सकता है ॥५॥ भावार्थ-नरकगति, नरक-आनुपूर्वी और नरक श्रायुइन तीन कर्म-प्रकृतियों को नरकत्रिक शब्द से लेना चाहिये जातिचतुष्क-शब्द का मतलब एकेन्द्रियजाति द्वीन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजाति इन चार जातिनामकर्मों सें है । स्थावरचतुष्कशब्द,स्थावरनामकर्म से साधारणनामकर्म-पर्यन्त चार कर्म-प्रकृतियों का बोधक है। वे चार प्रकृतियाँ ये हैं-स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और साधारणनामकर्म । नरक-त्रिक से लेकर मिथ्यात्व-मोहनीय-पर्यन्त, जो-१६ कर्म-प्रकृतियाँ ऊपर दिखाई गई हैं वे अत्यन्त अशुभरूप हैं Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " (३८) तथा बहुत कर नारक जीवों के, एकेन्द्रिय जीवों के और विकलेन्द्रिय जीवों के योग्य हैं । इसी से ये सोलह कर्म प्रकृतियाँ मिथ्यात्व - मोहनीयकर्म के उदय से ही बाँधी जाती हैं। मिथ्यात्व - मोहनीयकर्म का उदय पहले गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है दूसरे गुणस्थान के समय नहीं । श्रतएव मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से बँधनेवाली उक्त १६-कर्म-प्रकृतियों का बन्ध भी पहले गुणस्थान के अन्तिम समयतक हो सकता है दूसरे गुणस्थान के समय नहीं । इसी लिये पहले गुणस्थान में जिन ११७- कर्म - प्रकृतियों का वन्ध कहा गया है उन में से उक्त १६- कर्म- प्रकृतियों को छोड़ कर शेष १०१ - कर्म - प्रकृतियों का बन्ध दूसरे गुणस्थान में माना जाता है । 4 तिर्यञ्चत्रिकशब्द से तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्च श्रानुपूर्वी और तिर्यञ्चश्रायु इन तीन कर्म- प्रकृतियों का ग्रहण होता है । स्त्यानर्द्धित्रिक शब्द से निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानर्द्धि इन तीन कर्म - प्रकतियों का तथा दुर्भगत्रिक शब्द से दुर्भगनामकर्म, दुःखरनामकर्म और अनादेयनामकर्म इन तीन कर्म-प्रकृतियों का ग्रहण होता है । श्रनन्तानुबन्धि चतुष्कशब्द, अनन्तानुबन्धिक्रोध, अनन्तानुबन्धिमान, अनन्तानुबन्धि माया और अनन्तानुबन्धिलोम इन चार कपायों का वो'धक- है । मध्यम संस्थान-चतुष्कशब्द -आदि के और अन्त के संस्थान को छोड़ मध्य के शेष चार संस्थानों का बोधक है । जैसे:-न्यग्रोधपरिमडल- संस्थान, सादिसंस्थान, वामनसंस्थान और कुव्जसंस्थान । इसी तरह मध्यम संहननचतुष्क शब्द से श्रादि और अन्त के संहनन के सिवा बाघ के चार संहनन ग्रहण किये जाते हैं। वे चार संहनन ये हैं Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) ऋषभनाराचसंहनन, नाराच संहनन, अर्धनाराच संहनन और कीलिकासंहनन | तिर्यञ्चत्रिक से लेकर स्त्रीवेदपर्यन्त जो २५-कर्म-प्रकृतियाँ ऊपर कही हुई हैं उन का बन्ध अनन्तानुबन्धि-कपा य के उदय से होता है । अनन्तानुबन्धिकपाय का उदय पहले और दूसरे गुणस्थानक में ही होता है, तीसरे आदि गुणस्थानों में नहीं । इसी से तिर्यञ्चत्रिक आदि उक्त. पच्चीस कर्म - प्रकृतियाँ भी दूसरे गुणस्थान के चरमसमयपर्यन्त ही बाँधी जा सकती हैं, परन्तु तीसरे आदि गुणस्थानों में नहीं बाँधी जा सकतीं। तीसरे गुणस्थान के समय जीव का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जिस से उस समय श्रायु का वन्ध होने नहीं पाता । इसी से मनुष्य श्रायु तथा देव- श्रायु इन दो श्रायु का बन्ध भी तीसरे गुणस्थानक में नहीं होता। नरक - श्रायु तो नरकत्रिक-श्रादि पूर्वोक्त १६ - कर्म - प्रकृतियों मैं ही गिनी जा चुकी है तथा तिर्यञ्च श्रायु भी तिर्यञ्चत्रिकआदि पूर्वोक्त पच्चीस कर्म-प्रकृतियों में श्रा जाती है । इस प्रकार दूसरे गुणस्थान में बन्धयोग्य जो १०१ - कर्म- प्रकृतियाँ हैं उन मैं से तिर्यञ्चत्रिक श्रादि पूर्वोक्त २५ तथा मनुष्य- श्रायु और देव श्रायु कुल २७ - कर्म- प्रकृतियों के घट जाने से शेष ७४ कर्म प्रकृतियाँ तीसरे गुणस्थानक में बन्ध योग्य रहती हैं ॥ ४ ॥ सम्मे समसयार जिगाउबंधि, वदर नरतिग वियकसाया । उरल दुगंतो देसे, सत्तट्ठी तिक सायंतो ॥ ६ ॥ सम्यक्त्वे सप्तसप्तति जिनायुर्वन्धे, वज्रनरत्रिक द्वितीय कषाया श्रदारिकाद्विकान्तो देशे, सप्तपष्टिस्तृतीयकपायान्तः ॥ ६ ॥ तेवट्टि पमते सोग श्ररह, अथिर दुग अजसं अस्सायं । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) बुच्छिज छच्च सत्तव, नेह सुराउं जयानिटं ॥ ७ ॥ त्रिषष्टिः प्रमत्ते शाकारत्यस्थिर द्विकायशोऽसातम् । । व्यवच्छिद्यते षट्न सप्त वा नयति सुरायुयंदा निष्ठाम् ॥७॥ गुणलहि अधमत्ते सुराउबंधंतु जइ इहागच्छे । अन्नह अट्ठावरणा जं आहारग दुगं बंधे ॥८॥ एकोनपाष्टरप्रमत्ते सुरायुर्वधनन् यदीहागच्छेत् । अन्यथाऽपञ्चाशयदाऽऽहारक द्विकं बन्धे ॥८॥ अर्थ-अविरतसम्यग्दृष्टिनामक चौधे गुणस्थान में ७७ फर्म-प्रकृतियों का बन्ध हो सकता है। क्योंकि तीसरगुणस्थान की बन्धयोग्य पूर्वोक्त ७४ कर्म-प्रकृतियों को, तथा जिननामफर्म, मनुष्य-श्रायु और देय प्रायु को चतुर्थ गुणस्थानंवर्ती जीव वाँध सकते हैं । देशविरति-नामक पाँचवे गुणस्थान में ६७ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध हो सकता है। क्योंकिपूर्वोक्त ७७-कर्म-प्रकृतियों में से वज्रऋषभनाराचसंहनन, मनुप्यत्रिक, अप्रत्याख्यानावरणचारकषाय और प्रादोरिकाद्वक इन १० कर्म-प्रकृतियों का वन्ध-विच्छेद चौथे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है । इस से चौथ गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में उन १० कर्म-प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । पाँचवे गुणस्थान के अंतिम समय में तीसरे चारकषायों का अर्थात् प्रत्याख्यानावरण-कषाय की चार प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद हो जाता है ॥ ६॥ अतएव पूर्वोक्त ६७-कर्म-प्रकृतियों में से उक्त चार कषायों के घटजाने से शेष६३ कर्म-प्रकृतियों का वन्ध प्रमत्त-संयत-नाम के छठे गुणस्थान में हो सकता है । छठे गुणस्थान के अंतिम समय में शोक, अरति, अस्थिरद्विक, अयश-कीर्तिनामकर्म और असातवेदनीय इन छः कर्म-प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इससे उन छः कर्म-प्रकृतियों का वन्ध छठे गुणस्थान से आगेके गुणस्थानों Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) में नहीं होता । यदि कोई जीव छठे गुणस्थान में देवप्रायु के बन्ध्र का प्रारम्भ कर उसे उसीगुणस्थान में पूरा कर देता है, तो उस जीव की अपेक्षा से अरति, शोक-श्रादि उक्त ६-कर्म-प्रकृतियाँ तथा देवश्रायु फुल ७-कर्म-प्रकृतियों का भी बन्ध विच्छेद छठे गुणस्थान के अन्तिम-समय में माना जाता है ॥ ७॥ जो जीव छठे गुणस्थान में देव-श्रायु के वन्ध काप्रारम्भ कर उसे उसी गुणस्थान में समाप्त किये विना ही, सातवे गुणस्थान को प्राप्त करता है अर्थात्-छठे गुणस्थान में देवआयु का बन्ध प्रारम्भ कर सातवे गुणस्थान में ही उसे समाप्त करता है,उस जीव को सातवे गुणस्थान में ५६-कर्म'प्रकृतियों का बन्ध होता है । इसके विपरीत जो जीव छठे गुणस्थान में प्रारम्भ किये गये देव-श्रायु के बन्ध को, छठे गुणस्थान में ही समाप्त करता है-अर्थात् देव-श्रायु का वन्ध समाप्त करने के बाद ही सातवें गुणस्थान को प्राप्त करता है उस जीव को सातवें गुणस्थान में ५८ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है क्योंकि सासवें गुणस्थान में प्राहारकद्विक का बन्ध भी हो सकता है।॥८॥ भावार्थ-चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व होने से तीर्थङ्करनामकर्म बाँधा जा सकता है। तथा चोथे गुणस्थान में वर्तमान देव तथा नारक, मनुप्य-श्रायु को बाँधते हैं। और चतुर्थ गुणस्थान-वर्ती मनुष्य तथा तिर्यञ्च देव-श्रायु को बाँधते हैं। इसी तरह चौथे गुणस्थान में उन७४ कर्म-प्रकृतियों का भी बन्ध हो सकता है, जिनका कि बन्ध. तीसरे गुणस्थान में होता है श्रतएव सब मिलाकर ७७ कर्म-प्रकतियों का धन्ध चौथे गुणस्थानक Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) में माना जाता है । श्रप्रत्याख्यानावरण-क्रोध-मान- माया और लोभ इन चार कषायों का बन्ध चौथे गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही होता है, इस से श्रागे के गुणस्थानों में नहीं होता; क्योंकि पञ्चम-आदि गुणस्थानों में प्रत्याख्यानावरण- कपाय का उदय नहीं होता । और कषाय के बन्ध के लिये यह साधारण नियम है कि जिस कषाय का उदद्य जितने गुणस्थानों में होता है उतने गुणस्थानों में ही उस कपाय का वन्ध हो सकता है | मनुष्यगति मनुष्य श्रानुपूर्वी और मनुष्य- श्रायु ये तीन कर्म - प्रकृतियाँ केवल मनुष्य जन्म में ही भोगी जा सकती हैं । इस लिये उनका बन्ध भी चौथे गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही हो सकता है। क्योंकि पाँचवे आदि गुणस्थानो में मनुष्य-भव-योग्य कर्म-प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । किन्तु देव-भव - योग्य कर्म-प्रकृतियों का ही बन्ध होता है । इस प्रकार वज्र ऋषभ नाराच संहनन और श्रदारिकद्विकअर्थात् श्रदारिक शरीर तथा श्रदारिक अङ्गोपाङ्ग इन तीन कर्म - प्रकृतियों का बन्ध भी पाँचवे आदि गुणस्थानों में नहीं होता; क्योंकि वे तीन कर्म- प्रकृतियाँ मनुष्य के श्रथवा तिर्यञ्च के जन्म में ही भोगने योग्य हैं और पञ्चम- श्रादि गुणस्था नो में देव के भव में भोगी जासके ऐसो कर्म - प्रकृतियों का ही वन्ध होता है । इस तरह चौथे गुणस्थान में जिन ७७कर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है उन में से वजॠषभ-नाराचसंहनन - श्रादि उक्त १०-कर्म- प्रकृतियों के घटा देने से शेष ६७ कर्म - प्रकृतियों का ही बन्ध पाँचवे गुणस्थानक में होता है । . • प्रत्याख्यानावरण- क्रोध, प्रत्याख्यानावरण-मान, प्रत्याख्यानाचरणमाया और प्रत्याख्यानावरण- लोभ इन चार कपायों का Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) बन्ध पञ्चम-गुणस्थान के चरम समय तक ही होता है आगे के गुणस्थानों में नहीं होता; क्योंकि छ? आदि गुणस्थानों में उन कपायों का उदय ही नहीं है । इस लिये पाँच गुणस्थान की बन्ध-योग्य ६७ कर्म-प्रकृतियों में से, प्रत्याख्यानवरणक्रोध-आदि उक्त चार कषायों को छोड़ कर शेष ६३ कर्म. प्रकृतियों का बन्ध छठे गुणस्थानक में माना जाता है। सातवें गुणस्थान को प्राप्त करनेवाले जीव दो प्रकार के होते हैं । एक तो वे जो छठे गुणस्थान में देव-श्रायु के बन्ध का प्रारम्भ कर, उसे उस गुणस्थान में समाप्त किये विना ही सातवें गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। और फिर सातवें गुणस्थान में ही देव-श्रायु के बन्ध को समाप्त करते हैं । तथा दूसरे वे, जो देव-श्रायु के वन्ध का प्रारम्भ तथा उसकी समाप्ति दोनों छ? गुणस्थान में ही करते हैं और अनन्तर सातवे गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। पहले प्रकार के जीवो को छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में अरति, शोक, अस्थिरनाम-कर्म, अशुभनाम-कर्म, अयश-कीर्तिनाम-फर्म और असातवेदनीय. इन छः कर्म-प्रकृतियों कावन्धविच्छेद होता है । और दूसरे प्रकार के जीवों को छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में उक्त ६-कर्म प्रकृतियाँ तथा देव-श्रायु, कुल ७ कर्मप्रकृतियों का वन्ध-विच्छेद होता है । अतएव छठे गुणस्थान की वन्ध्र-योग्य ६३-कर्म-प्रकृतियों में से अरति, शोक-श्रादि उक्त ६-कर्म प्रकृतियों के घटादेने पर, पहले प्रकार के जीवों के लिये सातवें गुणस्थान में बन्धयोग्य५७-कर्म प्रकृतियाँ शेष रहतीहै।और अरति,शोक-श्रादि उक्तद-तथा देव-श्रायु,फुल फर्म-प्रकृतियों के घटा देने पर दूसरे प्रकार के जीवों के लिये सातवेंगुणस्थान में यन्ध-योग्य ५६-कर्म-प्रकृतियाँ शेष रहती Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) हैं । परन्तु श्राहारक- शरीर तथा श्राहारक- श्रङ्गोपाङ्ग इन दो कर्म - प्रकृतियों को उक्त दोनों प्रकार के जीव सातवें गुणस्थान बाँध सकते हैं । श्रतएव पहले प्रकार के जीवों की अपेक्षा से सातवे गुणस्थान में उक्त ५७ और २ -- कुल ५६-कर्मप्रकृतियों का बन्ध माना जाता है । दूसरे प्रकार के जीवों की अपेक्षा से उक्त ५६ और २ कुल ५८ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सातवें गुणस्थान में माना जाता है ॥ ६७ ॥ ८ ॥ अडवन्न अव्वाइंमि निद्द दुर्गतो छपन्न पणभागे । सुर दुग पणिदि सुखगइ तसनव उरलविणु तवंगा ॥ ६ ॥ अष्टपञ्चाशदपूर्वादी निद्राद्विकान्तः षट्पञ्चाशत् पञ्चभोग । सुरद्विक पञ्चेन्द्रिय सुखगति प्रसनवकमौदारिकाद्विना तनूपाङ्गानि ॥ ६ ॥ ७ ॥ 'समचउरनिमिण जिरावरण अगुरुलहु चउ छलंसि तीसंतो । चरमे छवीस बंधो हासरई कुच्छभयभेो ॥ १० ॥ समचतुरस्रनिर्माण जिनवर्णाऽगुरुलघुचतुष्कं पष्ठांशे त्रिंशदन्तः घरमे षडविंशतिवन्धो हास्यरतिकुत्साभयभेदः श्रनिर्या भागपणगे, इगेग होणो दुवीसवीहबंधो । म संजल चउरहं, कमेण छेश्रो सतरसुहुमे ॥ १० ॥ निवृत्ति भागपञ्चक, एकैकहीनो द्वाविंशतिविधवन्धः । पुंसंज्वलन चतुर्णां क्रमेणच्छेदः सप्तदशसूक्ष्मे ॥ ११ ॥ अर्थ- आठवे गुणस्थान के पहले भाग में, ५८ कर्म-प्रकृतियों का वन्ध हो सकता है। दूसरे भाग से लेकर छुट्टे भाग तक पांच भागों में ५६ - कर्म - प्रकृतियों का बन्ध होता है । क्योंकि निद्रा और प्रचला इन दो कर्म-प्रकृतियों का बन्ध-विच्छे " Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) द पहले भाग के अन्त में ही हो जाता है । इस से वे दो कर्मप्रकृतियाँ आठवं गुणस्थान के पहले भाग के आगे बाँधी नहीं जा सकतीं । तथा सुरद्विक (२) (देवगति देव श्रानुपूर्वी) पञ्चेन्द्रियजाति. (३) शुभ-विहायांगांत (४), त्रसनवक (१३) (त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और श्र देय), श्रदारिक शरीर के सिवा चार शरीर नामकर्म, जैसे:Street नामकर्म (१४), श्राहारक - शरीरनामकर्म (१५), तैजसशरीरनामकर्म (१६.) और कार्मण - शरीरनामकर्म (१७). श्रदारिक अङ्गोपाङ्ग को छोड़कर दो श्रङ्गोपाङ्ग, वैकिय-श्र ङ्गोपाङ्ग (१८) तथा श्राहारक - श्रृङ्गोपाङ्ग १६ ) ॥ समचतुरस्त्र संस्थान (२०), निर्माणनामकर्म २१), तीर्थङ्कर नामकर्म (२२), वर्ण (२३), गन्ध (२४), रस (२५) और स्पर्शनामकर्म (२६,) अगुरुलघुचतुष्कः जैसे- श्रगुरुलघुनामकर्म (२७) उपघातनामकर्म (२८) पराघातनामकर्म (२६), और उच्च सनामकर्म (३०) ये नाम कर्म की (३०' प्रकृतियाँ श्राठ गुणस्थान के छठे भाग तक ही बाँधी जाती हैं; इस से श्रागे नहीं । श्रतएव पूर्वोक्त ५६-कर्मप्रकृतियों में से नाम-कर्म की इन ३०- प्रकृतियों के घटा देने पर शेष २६ - कर्म प्रकृतियों का हीं बन्ध आठवे गुणस्थान के सातवें भाग में होता है । हास्य, रति, जुगुप्सा और भय इन नोकपाय - मोहनीयकर्मकी चार प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद आठवे गुणस्थान के सातवें भाग के अन्तिम समय में हो जाता है । इस से उन ४ प्रकृतियों का बन्ध नववे श्रादि गुणस्थानों में नहीं होता ॥ १०॥ अतएव पूर्वोक्त २६-कर्म- प्रकृतियों में से हास्य श्रादि उक्त Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६.) चार प्रकृतियों को घटा कर शेष कर्म-प्रकृतियों का बन्ध नववे गुणस्थान के पहले भाग में होता है । पुरुषवेद, संज्वलन - क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया और संज्वलन - लोभ इन पाँच प्रकृतियों में से एक एक प्रकृति का बन्ध-विच्छेद क्रमशः नववे गुणस्थान के पाँच भागों में से प्रत्येक भाग के अन्तिम समय में होता है, जैसेः- पूर्वोक्त २२ - कर्म - प्रकृतियों में से पुरुष-वेद का बन्ध-विच्छेद नववे गुणस्थान के पहले भाग के अन्तिमसमय में हो जाता है। इससे शेष २१ कर्म प्रकृतियों का बन्ध दूसरे भाग में हो सकता है । इन २१ कर्म - प्रकृतियों में से संज्वलन - क्रोध का बन्ध-विच्छेद दूसरे भाग के अन्तिम समय में हो जाता है । इस से शेष २० कर्म प्रकृतियों का बन्ध तीसरे भाग में हो सकता है । इन २० - कर्म - प्रकृतियों में से संज्वलनमान का बन्ध तीसरे भाग के अन्तिम समय तक ही हो सकता है, आगे नहीं; इसी से शेष १६ - कर्म प्रकृतियों का बन्ध, चौथे भाग में होता है। तथा इन १६-कर्म प्रकृतियों में से संज्वलनमाया चौथे भाग के अन्तिम समय तक ही बाँधी जाती है, आगे नहीं । श्रतएव शेष १८-कर्म-प्रकृतियों का बन्ध नवर्वे गुणस्थान के पाँचवें भाग में होता है । इस प्रकार इन १८-कर्म प्रकृतियों में से भी संज्वलन- लोभ का बन्ध नवर्वे गुणस्थान के पाँचवे भाग- पर्यन्त ही होता है, आगे दसवें आदि गुणस्थानों मैं नहीं होता । श्रतएव उन १८ कर्म-प्रकृतियों में से संज्वलनलोभ को छोड़ कर शेष १७ कर्म प्रकृतियों का बन्ध दसवे गुणस्थान में होता है ॥ ११ ॥ भावार्थ - सातवें गुणस्थान से लेकर श्रागे के सब गुणस्थानों में परिणाम इतने स्थिर और शुद्ध हो जाते हैं कि जिस से उन गुणस्थानों में आयु का बन्ध नहीं होता। यद्यपि सातवें Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) गुणस्थान में ५६ - कर्म प्रकृतियों के अन्ध का भी पक्ष ऊपर कहा गया है और उसमें देव आयु की गणना की गई है; तथापि यह समझना चाहिये कि छुट्टे गुणस्थान में प्रारम्भ किये हुये -देव-आयु के बन्ध की सातवें गुणस्थान में जो समाप्ति होती है उसी की अपेक्षा से सातवे गुणस्थान की बन्ध-योग्य ५६कर्म प्रकृतियों में देव आयु की गणना की गई है। सातवें गुणस्थान में देव श्रायु के बन्ध का प्रारम्भ नहीं होता और आठवे आदि गुणस्थानों में तो देव श्रायु के बन्ध का प्रारम्भ और समाप्ति दोनों नहीं होते । श्रतएव देव - श्रायु को छोड़ ५६ - कर्म - प्रकृतियाँ आठवे गुणस्थान के प्रथम भाग में वन्ध-योग मानी जाती हैं । श्राठर्वे तथा नवर्वे गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण है। आठवे गुणस्थान की स्थिति के सात भाग होते हैं । इन में से प्रथम भाग में, दूसरे से लेकर छट्टे तक पाँच भागों में, और सातवें भाग में जितनी जितनी कर्म- प्रकृतियों का वन्ध होता है; वह नववीं तथा दसवीं गाथा के अर्थ में दिखाया गया है । इस प्रकार नववे गुणस्थान की स्थिति के पाँच भाग होते हैं । उनमें से प्रत्येक भाग में जो • बन्ध-योग्य कर्म-प्रकृतियाँ है, उनका कथन ग्यारहवीं गाथा के अर्थ में कर दिया गया है ॥ ६ ॥ १०११ ॥ चउदसणुच्चजसमाण विग्घदसगंति सोल सुच्छेश्रो । ' तिसु सायबंध छेओ सजोगिबंधंतु तो श्र ॥ १२ ॥ (चतुर्दर्शनोच्चयशेोज्ञानविघ्नदशकमिति षोडशोच्छेदः । त्रिषु सातबन्धश्छेदः सयोगिनि वन्धस्यान्तो ऽनन्तश्च ॥ १२ ॥ ) . • श्रर्थ- दसवें गुणस्थान की वन्ध-योग्य १७ कर्म-प्रकृतियों में से ४- दर्शनावरण, उच्चगोत्र, यशः कीर्त्तिनामकर्म, Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) ५-ज्ञानावरण और अन्तराय इन १६ - कर्म प्रकृतियों का बन्धविच्छेद दसवें गुणस्थान के अन्त में होता है । इससे केवल सातावेदनीय कर्म-प्रकृति शेष रहती है । उस का वन्ध ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवे गुणस्थान में होता है। तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में सातवेइनीय का बन्ध भी रुक जाता है इससे चौदहवे गुणस्थान में किसी भी प्रकृतिका वन्ध नहीं होता। अर्थात् - अवन्धक अवस्था प्राप्त होती है । इस प्रकार जिन जिन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का जहाँ जहाँ अन्त ( विच्छेद ) होता है और जहाँ जहाँ अन्त नहीं होता; उस का वर्णन हो चुका ॥|१२|| · भावार्थ - ४ - दर्शनावरण आदि जो १६कमे - प्रकृतियाँ ऊपर दिखाई गई हैं उनका बन्ध कषाय के उदयसे होता है और दसवे गुणस्थान से श्रागे कषाय का उदय नहीं होता; इसी से उक्त सोलह कर्म प्रकृतियों का बन्ध भी दसवे गुणस्थान तक ही होता है । यह सामान्य नियम है कि कपाय का उदय कषाय के बन्ध का कारण होता है और दसवे गुणस्थान में लोभका उदय रहता है । इस लिये उस गुणस्थान में उक्त नियम के अनुसार लोभ का बन्ध होना चाहिये । ऐसी शङ्का यद्यपि हो सकती है; तथापि इस का समाधान यह है कि स्थूल-लोभ के उदय से लोभ का वन्ध होता है; सूक्ष्म- लोभ के उदय से नहीं । दसर्वे गुणस्थान में तो सूक्ष्मलोभ का ही उदय रहता है । इसलिये उस गुणस्थान में लोभ का बन्ध माना नहीं जाता । ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थान में सात वेदनीय का बन्ध होता है, सो भी योग के निमित्त से क्योंकि उन गुणस्थानों में Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६ कषायोदय का सर्वथा अभाव ही होता है । श्रतएव योग-मात्र से होनेवाला वह सात वेदनीय का बन्ध, मात्र दो समयों की स्थिति का ही होता है । alana गुणस्थान में योग का अभाव हो जाता है, इसी से सात वेदनीय का बन्ध भी उस गुणस्थान में नहीं होता, और बन्धकत्व अवस्था प्राप्त होती है । जिन कर्म- प्रकृतियों का बन्ध जितने कारणों से होता है, उतने कारणों के रहने तक हो, उन कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता रहता है । और उतने कारणों में से किसी एक कारण के कम हो जाने से भी, उन कर्म - प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । शेष सब कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । जैसे:-नरकत्रिक यादि पूर्वोत १६ कर्म- प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व, श्रविरति, कषाय श्रौर योग, इन चार कारणों से होता है। ये चारों कारण पहले गुणस्थान के चरमसमयपर्यन्त रहते हैं इस लिये उक्त १६ कर्म प्रकृतियों का बन्ध भी उस समयपर्यन्त हो सकता है, परन्तु पहले गुणस्थान से श्रागे मिथ्यात्व - श्रादि उक्त चार कारणां में से मिध्यात्व नहीं रहता, इस से नरकत्रिक आदे पूर्वोक्त १६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी पहले गुणस्थान से आगे नहीं होता; और सब कर्म - प्रकृतियों का यन्ध यथासम्भव होता ही है । इस प्रकार दूसरी २ कर्म - प्रकृतियों के चन्ध का अन्त ( विच्छेद) और अन्ताभाव ( विच्छेदाभाव) ये दोनों, यन्ध के हेतु के विच्छेद और श्रविच्छेद पर निर्भर हैं ॥१२॥ 1 , :0; वन्धाधिकार समाप्त ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्ध-यन्त्र ( ५० ) अन्तरायकर्म. गोत्रकर्म. नामकर्म. कर्म. मोहनीय. वेदनीय. दर्शनावरणीय. ज्ञानावरणाय. उत्तर- प्रकृतियां. मूल प्रकृतियां. XXXXXX '' or or a~ M soux or mm m 2200 ro out our 20 wwx a nneVVVV G Pos ८ १२० | ५ | ६ २।२६ ४ ८११७ १०१ | ५ | ६ २ NAN 0 www wut ut no cur XXXX X 8 66 U U our x 20 x of ~' m 32 9mw U ० X Ginn の Xxx xxx x x x x or on or or voor or ou mm' MY mr m ० ० ० ० ६० ३१ vvv ww www ww cct 9 H20 20 20 20 20 २० or 2 or or ora 9 G ४ १ ६ ० १ I wo wo wo wo wo wo or or O Xxxxx Xxxn 9 D 22 UJ の ० ० ० G xx ma or or a ∞ ∞ ∞ ∞ ∞ の ० G 9 ४ / १ O xx xx xx xx xx *** १८ | ५ | ४ -१ | १ | ० | १|१|५ ww Mi M ~ G M20Xur 9 Đểm 0ới G अनिवृत्ति गु० में अपूर्वकरणगुणस्थान में. ४० OLA ० ० D ० ० D ४ १ ० १७ or or or on ० १० ०|०|१०|०० V V 1000 ० सूक्ष्मसम्पराय में. उपशान्तमोह में. क्षीण मोह में. योग गु० में. योग गु० मे. 222 o ov Mm 20 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) ओ३म उदयाधिकार पहले उदय और उदोरणा का लक्षण कहते हैं, अनन्तर प्रत्येकगुणस्थान में जितनी २ कर्म-प्रकृतियों का उदय तथा उदीरणा होती है उनको बारह गाथाओं से दिखाते हैं उदओ विवाग चेयण मुदीरण मपत्ति इह दुवोससयं । सतर-सयं मिच्छे मीस-सम्म-आहार-जिणणुदया ॥ १३ ॥ उदयो विपाक-वेदन मुदीरण मप्राप्त इह द्वाविशति-शतम् । सप्तदश-शतं मिथ्यात्वे मिश्र-सम्यगाहारक जिनानुदयात् १३ अर्थ-विपाक का समय प्राप्त होने पर ही कर्म के विपाक (फल)को भोगना उदय कहाता है।और विपाक का समय प्राप्त न होने पर कर्म फल को भोगना उसे 'उदीरणा कहते हैं। उदय-योग्य तथा उदीरणा-योग्य कर्म-प्रकृतियाँ१२२ है । उन में से ११७ कर्म-प्रकृतियों का उदयं पहले गुणस्थान में हो सकता है क्योंकि १२२ में से मिश्रमोहनीय, सम्यक्त्वमोहनीय,आहारक-शरीर,आहारक-अगोपाग और तीर्थकरनामकर्म इन पाँच कर्म-प्रकृतियों को उदय पहले गुणस्थान में नहीं होता ॥ १६ ॥ भावार्थ-आत्मा के साथ लगे हुये कर्म-दलिक, नियतसमय पर अपने शुभाशुभ-फलौकाजो अनुभव करते हैं वह "उदय" कहाता है । कर्म-दलिकों को प्रयत्न-विशेष से खींचकर नियत-समय के पहले ही उन के शुभा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) शुभ - फलो को भोगना, "उदीरणा" कहाती है। कर्म के शुभाशुभफल के भोगने का ही नाम उदय तथा उदीरणा है, किन्तु दोनों मैं भेद इतना ही है कि एक में प्रयत्न के विना ही स्वाभाविक क्रम से फल का भोग होता है और दूसरे में प्रयत्न के करने पर ही फलका भोग होता है। कर्म विपाक के वेदन को उदय तथा उदीरणा कहने का अभिप्राय यह है कि, प्रदेशोदय, उदयाधिकार में इष्ट नहीं है । तीसरी गाथा के अर्थ में बन्ध-योग्य १२० कर्म - प्रकृतियाँ कही हुई हैं, वे तथा मिश्र - मोहनीय और सम्यक्त्व - मोहनीय ये दो. कुल १२२ कर्म-प्रकृतियाँ उदययोग्य तथा उदीरणायोग्य मानी जाती है । बन्ध केवल मिथ्यात्व - मोहनीय का ही होता है, मिश्रमोहनीय तथा सम्यक्त्व - मोहनीय का नहीं। परन्तु वही मिध्यात्व; जव परिणाम- विशेष से अर्द्धशुद्ध तथा शुद्ध हो जाता है तब मिश्र - मोहनीय तथा सम्यक्त्व- मोहनीय के रूप में उदय में जाता है। इसीसे उदय में ये दोनों कर्म-प्रकृतियाँ बन्ध की अपेक्षा अधिक मानी जाती हैं। मिश्र - मोहनीय का उदय तीसरे गुणस्थान में ही होता है । सम्यक्त्व - मोहनीय का उदय चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक हो सकता है । श्राहारक- शरीर तथा आहारकश्रङ्गोपाङ्ग नामकर्म का उदय छुट्टे या सातवें गुणस्थान में ही हो सकता है। तर्थङ्कर - नामकर्म का उदय तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में ही हो सकता है । इसीसे मिश्र-मोहनीय- श्रादि उक्त पाँच कर्म - प्रकृतियों को छोड़ शेष ११७ कर्म- प्रकृतियों का उदय पहले गुणस्थान में यथासम्भव माना जाता है १३ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहम-तिगायय-मिच्छं मिच्छंतं सासण-इगार-सयं । निरयाणुपुन्वि-गुदया अण-थावर-इग-विगल-अंतो॥१४॥ सूक्ष्म-त्रिकातप-मिथ्यं मिथ्यान्तं सास्वादन एकादश-शतम् । निरयानुपूज्यनुदया दनस्थाधरैकविकलान्तः॥१४॥ मीसे सयमणुपुन्वो-णुदयामीसोदएण मीसंतो। चउसयमजएसम्माणुपुवि-खंवा विय-कसाया ॥ १५ ॥ मिले शत मानुपूर्व्यनुदयान्मिोदन मिश्रान्तः । चतुःशतमयते सम्यगानुपूर्वक्षिपादिनीयकषायाः ॥ १५ ॥ मणुतिरिणु पुग्विविउवट्ट दुहग प्रणाइज्जदुग सतग्छ। सगसीइ देसि,तिरिगइ भाउ निउज्जोय तिकसाया ॥१६॥ मनुज-तिर्यगानुपूर्वी-वैक्रियापकंदुर्भगमनादयद्विकंसप्तदशच्छेद सप्ताशितिदेशे तिर्यगत्यायु चोद्योत-तृतीय कषायाः१६ अच्छेश्रो इगसी पमत्ति आहार-जुगल-गक्खेवा। थीणतिगा-हारग दुग छेश्रो छस्सयरि अपमते ॥१७॥ अपच्छेद एकाशितिः प्रमत्ते श्राहारक-युगलप्रक्षेपात् । स्त्यानचित्रिकाहारक-द्विकच्छेदः षट्-सप्तति रप्रमत्ते ॥१७॥ - अर्थ-दूसरे गुणस्थान में १११ कर्म-प्रकृतियों का उदय होता है क्योंकि जिन ११७ कर्म-प्रकृतियों का उदय पहले गुणस्थान में होता है उनमें से सूक्ष्मत्रिक (सूचभनामकर्म,अप र्याप्तनामकर्म और साधारणनामकर्म ) आतपनामकर्म मिथ्यात्वमोहनीय और नरकानुपूर्वी-इन ६ कर्म-प्रकृतियों का उदय दूसरे गुणस्थान में वर्तमान जीवों को नहीं होता। अनन्तानुबन्धी चार कपाय,स्थावरनामकर्म, एकेन्द्रिय-जातिनामकर्म,विकलेन्द्रियाद्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय और तुचरिन्द्रिय)जाति. नामकर्म ॥१४॥और शेष भानुपूर्वी तीन अर्थाततिर्यञ्चानुपूर्वी, मनुजानुपूर्वी और देवानुपूर्वी इन१२- कर्मप्रकृतियों का उदय Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) तीसरंगुणस्थानकेसमय नहीं होता; परन्तु मिश्र-मोहनीयकर्म का उदय होता है । इस प्रकार दूसरे गुणस्थान की उदय-योग्य १११-कर्म-प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी चार कषाय-श्रादि उक्त १२ कर्म-प्रकृतियों के घट जाने पर, शेष जो कमप्रकृतियाँ रहती हैं उनमें मिश्र-मोहनीय-कर्म मिलाकर कुलं. १०० कर्म-प्रकृतियों का उदय तीसरे गुणस्थानस्थित जीवों, को हो सकता है। चौथे गुणस्थान में वर्तमान,जीवों को १०४ कर्म-प्रकृतियों का उदय हो सकता है क्योंकि जिन १०० कर्म-प्रकृतियों का उदय तीसरे गुणस्थान में होता है उनमें से केवल मिश्रमोहनीय कर्म का ही उदय चौथे गुणस्थान में नहीं होता, शेष ६६ कर्म-प्रकृतियों का उदय तो होता ही है । तथा सम्यक्त्वमोहनीयकर्म के उदय का और चारों श्रानुपूर्वियों, के उदय का भी सम्भव है । अप्रत्याख्यानावरण चार कषाय ॥ १५ ॥ मनुष्य-मानुपूर्वी ५) तिर्यञ्च-आनुपूर्वी( ६ )वैक्रियेअष्टक (देवगति, देव-श्रानुपूर्वी, नरकगति, नरक-पानुपूर्वी, देव-श्रायु, नरक-श्रायु, वैक्रियशरीर और वैक्रिय-अङ्गापाग (१४) दुर्भगनामकर्म(१५) और अनांदेयाद्रिक (अनादेयनामक तथा अयश कीर्तिनामक) (२७) इनं सत्रह कर्म-प्रकृतियों को चौथै गुणस्थान की उदययोग्य (१०४)कर्म प्रकृतियों में से घटा देने पर, शेष (८७) कर्म-प्रकृतियाँ रहती हैं । उन्हीं (८७)-कर्म-प्रकृतियों का उदय पाँचवे गुणस्थान में होता है। उक्त ८७कर्म-प्रकृतियों में से तिर्यञ्चंगति (१)तियंञ्चआयु (२) नीचगोत्र (३) उद्योतनामकर्म (४) और प्रत्याख्यानावरण चार कषाय (८)॥१६॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) उक्त पाठ कर्म-प्रकृतियों को घटाने से,शेष(७६)कर्म-प्रकतियाँ रहती हैं। उनमें श्राहारकशरीरनामकर्म तथा श्राहारकअगोपागनामकर्म इन दो प्रकृतियों के मिलाने से कुल हुई (८१)कर्म-प्रकृतियाँ । छठे गुणस्थान में इन्हीं (८१)कर्मप्रकृतियों का उदय हो सकता है। - सातवे गुणस्थान में ७६ कर्म-प्रकृतियों का उदय होता है क्योंकि पूर्वोक्त (८१)-कर्म-प्रकृतियों में से स्त्यानदित्रिक और बाहरकद्विक इन (५) कर्म-प्रकृतियों का उदय छठे गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही हो सकता है। श्रागे के गुणस्थानों में नहीं ॥१७॥ भावार्थ-सूक्ष्मनामर्कम-का उदय, सूक्ष्म-जीवों को ही अपर्याप्त-नाम कर्म का उदय, अपर्याप्तजीवों को ही और साधारण-नाम-कर्म का उदय अनन्त-कायिक-जीवों को ही होता है। परन्तु सूक्ष्म, अपप्ति और अनन्त-कायिक जीवों को न तो सास्वादन-सम्य कत्व प्राप्त होता है और न कोई सास्वादन प्राप्त-जीव, सूक्ष्म, अपर्याप्त या अनन्तकायिक रूपसे पैदा होता है। तथा श्रातप: नाम-कर्म का उदय बादर-पृथिवि कायिक जीवको ही होता है सो भी शरीर-पर्याप्ति के पूर्ण हो जाने के बाद ही; पहले नहीं। परन्तु सासादन-सम्यक्त्व को पाकर जो जीव वादर-पृथ्वी-काय में जन्म ग्रहण करते हैं वे शरीर-पर्याप्ति को पूरा करने के पहले ही-अर्थात् श्रातपनामकर्म के उदय का अवसर आने के पहले ही-पूर्वप्राप्तसास्वादनसम्यक्त्व का वमन कर देते हैं अर्थात् बादर-पृथ्वी कायिकजीवों को, जब सास्वादन-सम्यक्त्व का सम्भव होता है Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) तं तपनामकर्म के उदय का सम्भव नहीं और जिस समय तपनामकर्म का सम्भव होता है उस समय उन को सास्वादन सम्यक्त्व का सम्भव नहीं है । तथा मिथ्यात्व का उदय पहले गुणस्थान में ही होता है किन्तु सास्वादन सम्यक्त्व पहले गुणस्थान के समय, कदापि नहीं होता । इससे मिथ्यात्व के उदय का और सम्यक्त्व का किसी भी जीव में एक समय में होना असंभव है । इसी प्रकार नरकश्रानुपूर्वी का उदय, वक्रगति से नरक में जानेवाले जवां को होता है । परन्तु उन जीवों को उस अवस्था में सास्वादन - सम्यक्त्व नहीं होता । इससे नरक - श्रानुपूर्वी का उदय और सास्वादन - सम्यक्त्व इन दोनों का किसी भी जीव में एक साथ होना असम्भव है । अतएव सासादनसम्यग्टष्टिनामक दूसरे गुणस्थान में सूक्ष्म- नामकर्म से लेकर नरक- श्रानुपूर्वीपर्यन्त ६-कर्म- प्रकृतियों के उदय का निषेध किया है, और पहले गुणस्थान की उदययोग्य कर्म - प्रकृतियों में से उक्त ६ - प्रकृतियों को छोड़कर, शेष कर्म - प्रकृतियों का उदय दूसरे गुणस्थान के समय माना गया है । अनन्तानुबन्धी-कषाय का उदय पहले और दूसरे गुणस्थान में ही होता है, श्रागे के गुणस्थानों में नहीं । तथा स्थावर - नामकर्म, एकेन्द्रियजातिनामकर्म, द्रोन्द्रियजातिनामकर्म, श्रीन्द्रियजातिनामकर्म, और चतुरिन्द्रयजाति - नामकर्म के उदयवाले जीवों में, तीसरे गुणस्थान से लेकर आगे का कोई भी गुणस्थान नहीं होता। क्योंकि स्थावर - नामकर्म का और एकेन्द्रियजाति-नामकर्म का उदय एकेन्द्रिय जीवों को होता है । तथा द्वीन्द्रियजाति- नामकर्म का उदय द्वीन्द्रियों को; त्रीन्द्रियजाति - नामकर्म का उदय श्रीन्द्रियों को और चतुरिन्द्रियजाति- नामकर्म का उदय · Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७). चतुरिन्द्रय-पर्यन्त के जीवों में, पहला या दूसरा दोही गुणस्थान हो सकते हैं। भानुयूर्षी का उदय जोषों को उसी समय में होता है जिस समय कि बे दूसरे स्थान में जन्म ग्रहण करने के लिये वक्रगति से जाते हैं । परन्तु तीसरे गुणस्थान में वर्तमान कोई जीव मरता नहीं है। इससे श्रानुपूवीं-नाम-कर्म के उदयवाले जीवों में तीसरे गुणस्थान की सम्भावना भी नहीं की जा सकती । अतएव दूसरे गुणस्थान में जिन १११. कर्म-प्रकृतियों का उदय माना जाता है उनमें से अनन्तानुबन्धि-कपाय-श्रादि पूर्वोक्त १२-कर्म-प्रकृतियों को छोड़ देने से ६९-कर्म-प्रकृतियाँ उदययोग्य रहती हैं । मिश्रमोहनीयकर्म का उदय भी तीसरे गुणस्थान में अवश्य ही होता है इसीलिये, उक्त ६६ और १ मिश्रमोहनीय, कुल १००-कर्म-प्रकृतियों का उदय उस गुणस्थान में माना जाता है। तीसरे गुणस्थान में जिन १००-कर्म-प्रकृतियों का उदय हो सकता है उन में से मिश्रमोहनीय के सिवा, शेष ६६ ही कर्म-प्रकृतियों का उदय चतुर्थगुणस्थानवी जीवों को हो सकता है । तथा चतुर्थगुणस्थान के समय सम्यक्त्व-मोहनीयकर्म के उदय का और चारों प्रानुपूर्वीनामक। के उदय का सम्भव है; इसीलिये पूर्वोक्त और सम्यक्त्व-मोहनीय-श्रादि (५), कुल १०४ कर्म-प्रकृतियों का उदय,, उक्त गुणस्थान में वर्तमानजीवों को माना जाता है। • जब तक अप्रत्याख्यानावरण-कपाय-चतुष्क का उदय रहता है तब तक जीवों को पश्चम गुणस्थान की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिये अप्रत्याख्यानायरण-कषाग-चतुष्क का उदय, पहले से चौथे तक चार गुणस्थानों में ही समझना Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (५८) . चाहिये पाँचवे प्रादि गुणस्थानों में नहीं। तथा पाँचवे से लेकर भागे के गुणस्थान, मनुष्यों और तिर्यञ्चों में यथासम्भव हो सकते हैं। देवों तथा नारकों में नहीं। मनुष्य और तिर्यञ्च भी आठ वर्ष की उम्र होने के बाद ही, पञ्चम-आदि गुणस्थानों को प्राप्त कर सकते हैं। पहले नहीं। परन्तु श्रानुपूर्वी का उदय वक्रगति के समय ही होता है इसलिये, किसी भी भानुपुर्वी के उदय के समय जीवों में पञ्चम-श्रादिगुणस्थान असम्भव हैं, नरक-गति तथा नरक-श्रायु का उदय नारकों को ही होता है; देवगति तथा देवश्रायु का उदय देवों में ही पाया जाता है; और वैक्रिय-शरीर तथा वैक्रिय-अगोपाग-नामकर्म का उदय देव तथा नारक दोनों में होता है। परन्तु कहा जा चुका है कि देवों और नारकों में पञ्चम-श्रादिगुणस्थान नहीं होते । इस प्रकार दुर्भग-नामकर्म, अनादेय नामकर्म और अयश-कीर्तिनामकर्म, ये तीनों प्रकृतियाँ, पहले चार गुणस्थानों में ही उदय को पा सकती हैं। क्योंकि पञ्चम-आदि गुपस्थानों के प्राप्त होने पर, जीवों के परिणाम इतने शुद्ध हो जाते हैं कि जिससे उस समय, उन तीन प्रकृतियों का उदय हो ही नहीं सकता। अतएव चौथे गुणस्थान में उदययोग्य जो १०४ कर्म-प्रकृतियाँ कही हुई हैं उनमें से अप्रत्याख्यानावरण-कषाय-चतुष्क आदि पूर्वोक्त १७ कर्म-प्रकृतियों को घटा कर,शेष ८७ कर्म-प्रकृतियों का उदय पाँचवे गुणस्थान में माना जाता है । पञ्चम-गुणस्थान-वर्ती मनुष्य और तिर्यञ्च दोनों ही, जिनको कि वैफियलब्धि प्राप्त हुई है, वैक्रियलब्धि के वलसे वैक्रियशरीर को तथा वैक्रिय-अङ्गोपाङ्ग को बना सकते हैं । इसी तरह छठे गुणस्थान में वर्तमान वैक्रियलब्धिं-सम्पन्न मुनि भी वैक्रियशरीर तथा वैक्रिय-अङ्गोपाङ्ग को बना सकते हैं । उस समय Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) उन मनुष्यों को तथा तिर्यञ्चों को, वैक्रियशरीरनाम-कर्म का तथा वैक्रिय-अगोपाग-नामकर्म का उदय अवश्य रहता है इसलिये, यद्यपि यह शङ्का हो सकती है कि पाँचव तथा छठे गुणस्थानकी उदय-योग्य प्रकृतियों में वैक्रिय-शरीर-नाम-कर्म तथा वैक्रिय-अङ्गोपाङ्ग नामकर्म इन दो प्रकृतियों की गणना क्यों नहीं की जाती है ? तथापि इस का समाधान इतना ही है कि, जिनको जन्मपर्यन्त वैक्रिय शरीर-नामकर्म का तथा वैक्रिय-अङ्गोपाङ्ग-नामकर्म का उदय रहता है उनकी (देव तथा नारको की) अपेक्षा से ही उक्त दो प्रकृतियों के उदयका विचार इस जगह किया गया है । मनुष्यों में और तिर्यञ्चों में तो कुछ समय के लिये ही उक्त दो प्रकृतियों का उदय हो सकता है, सो भी सब मनुष्यों और तिर्यचा में नहीं। इसी से मनुष्यों और तिर्यञ्चों की अपेक्षा से पाँचवें तथा छठे गुणस्थान में, उक्त दो कर्म-प्रकृतियों के उदय का सम्भव होने पर भी, उस की विवक्षा नहीं की है। जिन ८७ कर्म-प्रकृतियों का उदय पाँचवें गुणस्थान में माना जाता है उन में से तिर्यञ्च-गति, तिर्यञ्च-आयु, नीचगोत्र, उद्योत-नामकर्म और प्रत्याख्यानावरण-कषाय-चतुष्क इन ८ कर्म-प्रकृतियों को छोड़कर, शेष ७६-कर्म-प्रकृतियों का उदय, छठे गुणस्थान में हो सकता है । तिर्यञ्च-गतिआदि उक्त पाठ कर्म-प्रकृतियों का उदय, पाँचवें गुणस्थान के प्रान्तम समय तक ही हो सकता है, आगे नहीं । इस का कारण यह है कि, तिर्यञ्च-गति, तिर्यञ्च-श्रायु और उद्योतनामकर्म इन तीन प्रकृतियों का उदय तो तिर्यञ्चों को ही होता है परन्तु तियंञ्चों में पहले पाँच गुणस्थान ही हो सकते हैं, आगे के गुणस्थान नहीं । नीच गोत्र-का उदय Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (.६०) . भी मनुष्यों को चार गुणस्थान तक ही हो सकता है । पञ्चमश्रादि-गुणस्थान प्राप्त होने पर,मनुष्यों में ऐसे सुख प्रकट होते हैं कि जिनसे उन में नीच-गोत्र का उदय हो ही नहीं सकता और उच्च-गोत्र का उदय अवश्य हो जाता है। परन्तु तिर्वञ्चों को तो अपने योग्य सब गुणस्थानों मेंअर्थात् पाँचौ गुणस्थानों में स्वभाव से ही नीचगोत्र का उदय . रहता है; उच्च-योत्र का उदय होता ही नहीं । तथा प्रत्याख्यानावरण. चार कपायों का उदय जय तक रहता है तब तक छठे . गुणस्थान से लेकर प्रामें के किसी भी गुरुस्थान की प्राप्ति नहीं होती और छठे श्रादि । गुणस्थानों के प्राप्त होने के बाद भी. प्रत्याख्यानावरणकपायों । का उदय हो नहीं सकता । इस प्रकार तिर्यञ्च गति-अमदि. उक्त आठ कर्म-प्रकृतियों के विना जिन ७६-कर्म-प्रकृतियों का उदय छ? गुणस्थान में होता है उन में "आहारक शरीरं- ' नामकर्म तथा श्राहारक-अल्मोपाङ्गनामकर्म, ये दो प्रतियाँ . और भी मिलानी चाहिये जिससे छटे गुरुस्थान में उदययोग्य कर्म-प्रकृत्तियाँ ८१ होती हैं । छठे गुणस्थान में आहारक- . शरीर-नामकर्म का तथा आहारक-अल्गोपाङ्ग नामकर्म का । उदय उस समय पाया जाता है जिस समय कि कोई चतुर्दशपूर्वधर-मुनि, लब्धि के द्वारा श्राहारक-शरीर की रचना कर उसे धारण करते हैं । जिस समय कोई वैक्रिय-लब्धिधारी मुनि, लब्धि से वैक्रिय-शरीर को बनाकर उसे धारण करता . है उस समय उसको उद्योत-नामकर्म का उदय होता है । . क्योकि शास्त्र में इस आशय का धन पाया जाता है कि . यति को वैक्रिय शरीर धारण करते समय और देव को उत्तरवैक्रिय-शरीर धारण करते समय उद्योत-नामकर्म, का उदय होता है । अब इस जगह यह शङ्का हो सकती है किजव Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) वैत्रिय-मरीरिवति की अपेक्षा से छठे गुणस्थान में भी उद्योत नामकर्म का उदय पाया आता है.तब पाँचवे गुणस्थान तक ही उसका उदय क्यों माना जाता है ? परन्तु इसका समाधान सिर्फ इतना ही है कि जन्म के स्वभाव से उदयोस नामकर्म का जो उदय होता है वही इस जगह विवक्षित है। लब्धि के निमित्त से होनेवाला उद्योत-नामकर्म का उदय विवक्षित नहीं है। छठे गुणस्थान में उदययोग्य जो ८१ 'कर्म-प्रकृतियाँ कही हुई हैं उनमें से स्त्यानाई-त्रिक और आहारक-धिक इन पाँच कर्म-प्रकृतियों का उदय सातवें गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में नहीं होता; क्योंकि स्त्यानद्धित्रिक का उध्य प्रमादरूप है, परन्तु छट्ट से आगे किसीभीगुणस्थान में प्रमाद नहीं होता। इस प्रकार आहारक-शरीर-मामकर्म का तथा आहारक अडगोपाग-नामफर्म का उदय, आहारकशरीरं रचनेवाले मुंवि को ही होता है। परन्तु वह मुनि लब्धि का प्रयोग करनेवाला होने से अवश्य ही प्रभावी होता है। जो लब्धि का प्रयोग करता है वह उत्सुक हो ही जाता है। उत्सुकता हुई कि स्थिरता या एकाग्रता का भंग हुभा । एकाग्रता के भंग को ही प्रमाद कहते हैं इसलिये, आहारकद्विक का उक्ष्य भी छठे गुणस्थान सही माना जाता है। यपि श्राहारकशरीर बना लेने के बाद कोई मुनि विशुद्धः । अध्यवसाय से फिर भी सात गुणस्थान को पा सकते हैं, तथापि ऐसा बहुत कम होता है इस,खिये इसकी विवक्षा प्राचार्यों में नहीं की है। इसी से सातवें गुणस्थान में प्राहारक-द्विक के उदय को गिना नहीं है ॥ १४॥ १५॥ १६ ॥१७॥ , .. संमत्तंतिमसंधयण तियगच्छो चिसत्तार अपुरें। ... ..... हासाइछकतो छमाहि अनियष्ट्रियतिगं, ।। १८॥ . . . Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) सम्यक्त्वान्तिमसंहननत्रिककच्छेदो द्वासप्ततिरपूर्व । हास्यादिषटकान्तः षट्पष्टिरनिवृत्ती वेदत्रिकम् ।।१८।। संजलणतिगं छच्छेत्री सहि सुडुमंमि तुरियलोभंतो। उसंत गुणे गुणसहि रिसहनाराय दुगनंतो ॥ १६ ॥ संज्वलनंत्रिकं षट्छेदः षष्टिः सूक्ष्मे तुरियलोभान्तः। उपशान्तगुण एकोनषष्टि श्रेषभनाराद्विकान्तः ॥ १६ ॥ ___-सम्यकत्व-मोहनीय और अन्त के तीन संहनन इन ४ कर्म प्रकृतियों का उदय-विच्छद सातवे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है । इससे सातवे गुणस्थान की उदययोग्य ७६ कर्म प्रकृतियों में से सम्यकत्वमेाहनीय-आदि उक्त चार कर्म-प्रकृतियों को घटा देने पर, शेष ७२ कर्म-प्रकृतियों का उदय आठवें गुणस्थान में रहता है। हास्य, रति, अरति, भय,शोक और जुगप्साइन ६कर्म-प्रकृतियों का उदय आठवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक होता है, आगे नहीं । इससे पाठवें गुणस्थान की उदय-योग्य ७२ कर्म-प्रकृतियों में से हास्य आदि ६ कर्म-प्रकृतियों के घटा देने से शेष ६६कर्म-प्रकृतियों का ही उदय नववे गुणस्थान में रह जाता है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद नपुंसकवेद, १८ संज्वलन क्रोध, संज्वलन-मान और संज्वलन माया इन ६ कर्मप्रकृतियों का उदय, नववे गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही होता है। इससे नववे गुणस्थान की उदय-योग्य ६६ कर्मप्रकृतियों में से स्त्रीवेद आदि उक्त ६ कर्म-प्रकृतियों को छोड़कर शेष ६० कर्म-प्रकृतियों का उदय दसवें गुणस्थान में होता है। संज्वलन-लोम का उदय-विच्छेद दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है । इससे दसवें गुणस्थान में जिन ६० कर्म-प्रकृतियों का उदय होता है उन में से एक संज्वलन-लोभ के बिना शेष ५६ कर्म-प्रकृतियों का Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) उदय ग्यारहवें गुणस्थान में हो सकता है। इन ५६ कर्मप्रकृतियों में से ऋषभनाराचसंहनन और नाराचसंहनन इन दो कर्म-प्रकृतियों का उदय, ग्यारहवें गुणस्थान के अन्तिमसमय-पर्यन्त ही होता है ॥१६॥ भावार्थ-जो मुनि, सम्यकत्वमोहनीय का उपशम या क्षय करता है वही सातवे गुणस्थान से प्रागे के गुणस्थानों को पा सकता है, दूसरा नहीं। इसोसे ऊपर कहा गया है कि सातवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक में सम्यकत्वमोहनीय का उदय-विच्छेद हो जाता है । इस प्रकार अर्ध. नाराच, कीलिका और सेवात इन तीन अन्तिम संहननों का उदय-विच्छेद भी सातवे गुणस्थान के अन्त तक हो जाता हैअर्थात् अन्तिम तीन संहननवाले जीव, सातवें गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ सकते। इसका कारण यह है कि जो श्रेणि कर सकते हैं वे ही पाठवे आदि गुणस्थानों को प्राप्त कर सकते हैं पस्तु श्रेणि को प्रथम तीन संहननवाले ही कर सकते हैं, अन्तिम तीन संहननवाले नहीं । इसी से उक्त सम्यकत्वमोहनीय आदि ४ कर्म-प्रकृतियों को सातवें गुणस्थान की ७६ कर्म-प्रकृतियों में से घटाकर शेष ७२ कर्म-प्रकृतियों का उदय पाठवे गुणस्थान में माना जाता है। नववे गुणस्थान से लेकर भागे के गुणस्थानों में अध्यवसाय इतने विशुद्ध हो जाते हैं कि जिस से गुणस्थानों में वर्तमान जीवों को हास्य, रति आदि उपर्युक्त ६ कर्म-प्रकृतियों का उदय होने नहीं पाता । अतएव कहा गया है कि पाठवें गुणस्थान की उदय-योग्य ७२ कर्म-प्रकृतियों में से हास्य-श्रादि ६ प्रकृतियों को छोड़ . Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर शेष ६६ कर्म प्रकृतियों का उदय नववे गुणस्थान में हो सकता है। __ नववे गुणस्थान के प्रारम्भ में ६६ कर्म प्रकृतियों का उदय होता है । परन्तु अध्यवसायों को विशुद्धि बढ़ती ही जाती है; इससे तीन वेद ओर संज्वलन-त्रिक, कुल ६कर्म-प्रकृतियों का उदय नवव गुणस्थान में हो क्रमशः रुक जाता है । अतएव दसवें गुणस्थान में उदय-योग्य प्रकृतियाँ ६० ही रहती हैं। नवर्वे गुणस्थान में वेदनिक-श्रादि उक्त ६ कर्म-प्रकृतियों का उदयविच्छेद इस प्रकार होता है-यदि श्रेणि का प्रारम्भ स्त्री करती है तो वह पहले स्त्रीयेद के, पीछे पुरुष-वेदके अनन्तर नपुंसकवेदके उदय का विच्छेद करके क्रमशः संज्वलन-त्रिक के उदय को रोकती है। श्रेणिका प्रारम्भ करनेवाला यदि पुरुप होता है तो वह सब से पहले पुरुष-वेद के, पछि स्त्रीवेद के अनन्तर नपुंसकवेद के उदय को रोक कर क्रमशः संज्वलनत्रिक के उदय का विच्छेद करता है । और श्रेणि को करनेदालो यदि नपुंसक है तो सबसे पहले वह नपुंसक-वेद के उदय को रोकता है। इसके बाद स्त्रीवेद के उदब को तत्पश्चात् पुरुष-वेद के उदय को रोक कर क्रमशः संस्वलन-निक के उदव को बन्द कर देता है। दसवें गुणस्थान में ६० कर्म-प्रकृतियों का उदय हो सकता है। इनमें से संज्वलन-लोभ का उदय, दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही होता है । इसी से संज्वलन-लोम को छोड़ कर शेष ५६ कर्म-प्रकृतियों का उदय ग्यारहवे गुणस्थान में माना जाता है ॥ १८॥ १६ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) सगवन्न खोण-दुवारेमि निद्ददुगंतो थ चरिमि पणवन्ना । नारीतरायदंसण- चउछेश्रो सजोगि बायाला ॥ २० ॥ सप्तपञ्चाशत् क्षीराद्विचरमे निद्राद्विकान्तश्च चरमे पञ्चपश्चाशत् । ज्ञानान्तराय दर्शनचतुश्छदः सयोगिनि द्विचत्वारिंशत् ॥ २० ॥ अर्थ - श्रतएव बारहवे गुणस्थान में ५७ कर्म - प्रकृतियों का उदय रहता है । ५७ कर्म - प्रकृतियों का उदय, बारहवें गुसस्थान के द्विचरम-समय- पर्यन्त - अर्थात् अन्तिम समय से पूर्व के समय - पर्यन्त पाया जाता है; क्योंकि निद्रा और प्रचला इन दो कर्म-प्रकृतियों का उदय, अन्तिम समय में नहीं होता । इससे पूर्वोक्त ५७ कर्म-प्रकृतियों में से निद्रा और प्रचला को छोड़कर शेष ५५ कर्म प्रकृतियों का उदय बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है । ज्ञानावरणकर्म की ५, अन्तरायकर्म की ५ और दर्शनावरणकर्म की ४ - कुल १४ कर्म - प्रकृतियों का उदय, बारहवे गुणस्थान के अन्तिम समयपर्यन्त ही होता है; आगे नहीं । इससे बारहवे गुणस्थान के अन्तिम समय की उदय-योग्य ५५ कर्म-प्रकृतियों में से उक्त १४ कर्म - प्रकृतियों के घटा देने से ४१ कर्म- प्रकृतियाँ शेष रहती हैं । परन्तु तेरहवें गुणस्थान से लेकर तीर्थंकरनामकर्म के उदय का भी सम्भव है । इसलिये पूर्वोक्त ४१, और तीर्थङ्कर नामकर्म, कुल ४२ कर्म - प्रकृतियों का उदय तेरहवे गुणस्थान में हो सकता है ॥ २० ॥ भावार्थ -- जिनको कपभनाराच संहनन का या नाराच संहनन का उदय रहता है वे उपशम-श्रेणि को ही कर सकते है । उपशम-श्रेणि करने वाले, ग्यारहवें गुणस्थान- पर्यन्त ही बढ़ सकते हैं; क्योंकि क्षपकश्रेणि किये विना बारहवे गुणस्थान Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्षपक श्रेणि को वेही कर सकते हैं जिनको कि वज्र-कपभनाराच संहनन का उदय, होता है.। इसीसे ग्यारहवें गुणस्थान की उदय-योग्य ५६ कर्म-प्रकृतियों में से ऋपभनाराच और नाराच दोसंहननों को घटाकर शेष ५७ कर्म-प्रकृतियों का उदय वारहवें गुणस्थान में मानाजाता है। इन ५७ कर्म प्रकृतियों में से भी निद्राका तथा प्रचला का उदय वारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में नहीं होता। इस से उन दो कर्म-प्रकृतियों को छोड़कर शेष ५५ कर्म-प्रकृतियों का उदय वारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में माना जाता है। ज्ञानावरण ५, अन्तराय ५ और दर्शनावरण ४, सब मिलाकर १४ कर्म-प्रकृतियों का उदय वारहवे गुणस्थान के अन्तिम समय से आगे नहीं होता। इससे पूर्वोक्त ५५ कर्मप्रकृतियों में से उक्त १४ कर्म-प्रकृतियों के निकल जाने से शेष ४१ कर्म-प्रकृतियाँ रहती हैं । परन्तु तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त करनेवालों में जो तोर्थकर होनेवाले होते हैं उनको तीर्थकरनामकर्म का उदय भी हो जाता है। श्रतएव पूर्वोक्त ४१ और तीर्थकरनामकर्म, कुल ४२ कर्म-प्रकृतियाँ तेरहवे गुणस्थान में उदय को पा सकती हैं ॥ २०॥ तित्थुदया उरलाथिरखगइदुगपरित्ततिगछलठाणा । अगुरलहुवन्नचउ-निमिणतेयकम्माइसंघयणं ॥ २२॥ तीर्थोदयादादारिकास्थिरखगतिद्विकप्रत्येकत्रिकषट्संस्थानानि अगुरुलघुवर्णचतुष्कनिर्माणतेजःकर्मादिसंहननम् ॥२१॥ दूसरसूसरसायासारगयरं च तीस-बुच्छेत्रो। चारस अजोगि सुभगाइज्जजसन्नयरवेणियं ॥ २२ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) दुःस्वरसुस्वरसातासातैकतरं च त्रिंशदव्युच्छेदः । द्वादशायोगिनि सुभगादेययशोऽन्यतरवेदनीयम् ॥ २२ ॥ तसतिग परिणदि मणुयाउ गइजिणुञ्चति चरम-समयंतो। वसत्रिकपञ्चेन्द्रियमनुजायुगतिजिनोश्चमिति चरमसमयान्तः। • अर्थ-औदारिक-द्विक (ौदारिक-शरीरनामकर्ण तथा औदारिक-श्रङ्गोपाङ्गनामकर्म ).२, अस्थिर-द्विक (अस्थिरनामकर्म, अशुभनामकर्म )४, खगति-द्विक (शुभविहायोगतिः, नामकर्म और भयभविहायोगतिनामकर्म ) ६, प्रत्येक-त्रिक(प्रत्येकनामकर्म, स्थिरनामकर्म और शुभनामकर्म ) , समचतुरस्त्र,न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, वामन,कुब्ज और हुण्ड-ये छः संस्थान १५, अगुरुलधुचतुष्क (गुरुलघुनामकर्म, उपघातनामकर्म, पराधातनामकर्म और उच्चासनामकर्म )१६, वर्ण-चतुष्क (वर्णनामकर्म, गंधनामफर्म, रसनामकर्म और स्पर्शनामकर्म)२३,निर्माणनामकर्म२४, तैजसशरीरनामकर्म २५, कार्मणशरीर-नामकर्म २६, प्रथम-संहनन (वजऋषभनाराचसंहनन)२७ ॥२१॥ दुःस्वरनामकर्म २८,सुस्वरनामकर्म२६ और सातवेदनीय तथा असातवेदनीय इन दो में से कोई एक ३०-ये. तीस प्रकृतियाँ तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम-समय तक ही उदय को पा सकती हैं, चौदहवें गुणस्थान में नहीं । अतएव पूर्वोक्त ४२ में से इन ३० कर्म-प्रकृतियों के घट जाने पर शेष १२ कर्म-प्रकृतियाँ चौदहवेंगुणस्थान में रहती है। वे १२ कर्म-प्रकृतियाँ ये हैं-सुभगनामकर्म, श्रादेयनामकर्म, यशः कीर्तिनामकर्म, वेदनीयकर्म की दो प्रकृतियों में से कोई एक असत्रिक ( सनामकर्म, बादरनामफर्म, और Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) पर्याप्तनामकर्म ), पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्म, मनुष्य श्रायु, मनुष्यगति, तीर्थङ्करनामकर्म और उच्चगोत्र-इन १२ प्रकृतियों का उदय चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है। भावार्थ-चौदहवे गुणस्थान में किसी भी जीव को वेदनीयकर्म की दोनों प्रकृतियों का उदय नहीं होता। इस लिये जिस जीव को उन दो में से जिस प्रकृति का उदय, चौदहवें गुणस्थान में रहता है उस जीवको उस प्रकृति के सिवाय दूसरी प्रकृति का उदय-विच्छेद तेरहवे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है। औदारिक-द्विक-श्रादि उक्त तीस प्रकृतियों में से वेदनीयकर्म की अन्यतर प्रकृति के सिवा शेष २६ कर्म-प्रकृतियाँ पुद्गल विपाकिनी (पुद्गल द्वारा विपाक का अनुभव कराने वाली) हैं इनमें से सुस्परनामकर्म और दुःस्वरनामकर्म-ये दो प्रकृतियाँ भाषा-पुद्गल-विपाकिनी हैं। इस से जब तक वचन-योग की प्रवृत्ति रहती है और भाषापुद्गलों का ग्रहण तथा परिणमन होता रहता है तभी तक उक्त दो प्रकृतियों का उदय हो सकता है। शेष २७ कर्मप्रकृतियाँ शरीर-पुदल-विपाकिनी हैं इसलिये उनका भी उदय तभी तक हो सकता है जब तक कि काययोग के द्वारा पुगलों का ग्रहण,परिणमन और श्रालम्बन किया जाता है । तेरहवें गुणस्थान के चरम समय में ही योगों का निरोध होजाता है। श्रतएव पुनल-विपाकिनी उक्त २६ कर्म-प्रकृतियों का उदय भी उसी समय में रुक जाता है। इस प्रकार तेरहवे गुणस्थान में जिन ४२ कर्म-प्रकृतियों का उदय हो सकता है। उनमें से अन्यतरवेदनीय और उक्त २६ पुद्गल-विपाकिनी-कुल ३० Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) कर्म प्रकृतियों को घटा देने से शेष १२ कर्म-प्रकृतियाँ रहती हैं । इन १२ कर्म प्रकृतियों का उदय चौदहवे गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है । इस के रुक जाते ही जीव, कर्म-मुक्त होकर पूर्ण-सिद्ध-स्वरूप को प्राप्त कर लेता है और मोक्ष को चला जाता है ॥ २१ ॥ २२ ॥ इति उदयाधिकार समाप्त । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) उदय-यन्त्र • * * | अन्तराय. गोत्रकर्म. नामकम. आयुकर्म. मोहनीय. | वेदनीयकर्म. दर्शनावरणीय. ज्ञानावरणाय. उत्तर- प्रकृतियां. मूल प्रकृतियां. NNNN n* 222 or or or or or or 920 X Do 20 20 20 20 Www Xn arN XXX20 20 20 m DA DV U 792 O u U 20nt 2 or on or o car " Nan r V U 15 16mm m mo N १०४ ५ m m m ० wwwwww w no no no no u ufx o XXXXXXংNx0 ♡ o or u 4994sus X UUUUUUuU9 ० ovnm 20 Xur9 Ww អំ ० ० ० W or or ~~ VM ० १२०२३ mpp Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) उदीरणाधिकार अव प्रत्येक गुणस्थान में जितनी जितनी कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा हो सकती है उन्हें दिखाते हैं : उदउखुदीरणा परमपमत्ताई सगगुणेसु ॥ २३ ॥ उदय इवोदीरणा परमप्रमत्तादिसप्तगुणेषु ॥ २३ ॥ अर्थ- यद्यपि उदीरणा उदय के समान है-अर्थात् जिस गुणस्थान में जितनी कर्म-प्रकृतियों का उदय होता है उस गुणस्थान में उतनी ही कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा भी होती है । तथापि सातवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान-पर्यन्त सात गुणस्थानों में उदय की अपेक्षा उदीरणा में कुछ विशेप है ॥ २३ ॥ उस विशेष को ही दिखाते हैं : एसा पयडि-तिगूणा वेयणियाहारजुगलथागतीगं । मणुयाउ पमत्ता अजोगि अगुंदीरगो भगवं ॥ २४॥ एषा प्रकृतित्रिकोना वेदनीयाहारक-युगलस्त्यानद्धित्रिकम् ।.. मनुजायुः प्रमत्तान्ता अयोग्यनुदीरको भगवान् ॥ २४ ॥ अर्थ-सातवे गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थानपर्यन्त, प्रत्येक गुणस्थान में उदीरणा-योग्य-कर्म-प्रकृतियाँ, उदयं-योग्य-कर्म-प्रकृतियों से तीन तीन कम होती है क्योकि छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में पाठ कर्म-प्रकृतियों की Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) उदीरणा रुक जाती है । इससे आगे के गुणस्थानों में उन आठ कर्म - प्रकृतियों की उदीरणा नहीं होती । वे आठ कर्मप्रकृतियाँ ये हैं- वेदनीय की दो प्रकृतियाँ ( २ ) श्राहारकद्विक ( ४ ) स्त्यानार्द्ध- त्रिक ( ७ ) और मनुष्य श्रायु ( ६ ) | चौदहवे गुणस्थान में वर्तमान प्रयोगिकेवलिभगवान् किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं करते ॥ २४ ॥ भावार्थ- पहले से छट्ठे पर्यन्त छःगुणस्थानों मे उदीरणा योग्य कर्म प्रकृतियाँ, उदय योग्य कर्मप्रकृतियों के बराबर ही होती हैं । जैले-पहले गुणस्थान में उदय योग्य तथा उदीरणा योग्य एक सौ सत्रह कर्म प्रकृतियाँ होती हैं । दूसरे गुणस्थान मे ११९ कर्म - प्रकृतियों का उदय तथा उदीरण होती है। तीसरे गुणस्थान में उदय और उदीरणा दोनों ही सौ सौ कर्म-प्रकृतियों के होते हैं । चौथे गुणस्थान में उदय १०४ कर्म-प्रकृतियों का और उदीरणा भी १०४ कर्म - प्रकृतियों की होती है। पांचवे गुणस्थान में ८७ कर्म - प्रकृतियों का उदय और ८७ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा होती है। तथा छडे गुणस्थान में उदय-योग्य भी ८१ कर्म-प्रकृतियाँ और उदीरणा-योग्य भी ८१ ही कर्म - प्रकृतियाँ होती हैं । परन्तु सातवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें पर्यन्त सात गुणस्थानों में उदय योग्य-कर्मप्रकृतियों की तथा उदीरणा-योग्य कर्म- प्रकृतियों की संख्या समान नहीं है । किन्तु उदीरणा-योग्य - कर्म- प्रकृतियाँ उदययोग्य कर्म-प्रकृतियों से तीन तीन कम होती हैं। इसका कारण यह है कि छुट्टे गुणस्थान के अन्तिम समय में उदयविच्छेद श्राहारकाद्वेक और स्त्यानर्द्धित्रिक- इन पांच प्रकृतियों का ही होता है । परन्तु उदीरणा-विच्छेद उक्त ५ प्रकृतियों के सिवाय वेदनीयद्विक तथा मनुष्य- श्रायु-इन तीन प्रकृतियों का भी होता है । छट्ठे गुणस्थान से श्रागे के Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) गुणस्थानों में ऐसे श्रध्यवसाय नहीं होते जिनसे कि वेदनीयद्विक की तथा श्रायु की उदीरणा हो सके । इससे सातवें आदि गुणस्थानों में उदय योग्य तथा उदीरणा-योग्य कर्म - प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार होती है: - सातवें गुणस्थान में उदय ७६ प्रकृतियों का और उदीरणा ७३ प्रकृतियों की । श्रठवें गुणस्थान में उदय ७२ प्रकृतियों का और उदीरणा ६६ प्रकृतियों की । नववे गुणस्थान में उदय ६६ कर्मप्रकृतियों का और उदीरणा ६३ कर्म-प्रकृतियों की । दसवें में उदय- योग्य ६० कर्म - प्रकृतियाँ और उदीरणा - योग्य ५७ कर्मप्रकृतियाँ | ग्यारहवें में उदय - योग्य ५६ कर्म - प्रकृतियाँ और उदीरणा-योग्य ५६ कर्म-प्रकृतियाँ | बारहवे गुणस्थान में उदय योग्य ५७ कर्म - प्रकृतियाँ और उदीरणा-योग्य ५४ कर्मप्रकृतियाँ । और उसी गुणस्थान के अन्तिम समय में उदय योग्य ५५ कर्म - प्रकृतियाँ और उदीरणा-योग्य ५२ कर्मप्रकृतियाँ तथा तेरहवें गुणस्थान में उदय योग्य ४२ कर्मप्रकृतियाँ और उदीरणा-योग्य ३६ कर्म - प्रकृतियाँ हैं । चौदहवे गुणस्थान में किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं होती; क्योंकि उदीरणा के होने में योग की अपेक्षा है, पर उस गुणस्थान में योग का सर्वथा निरोध ही हो जाता है ||२४|| ॥ इति ॥ उदीरणाधिकार समाप्तः 1 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) उदीरणा-यन्त्र o te t s হ এ এ****** | अन्तरायकर्म. गोत्रकर्म. | नामकर्म. प्रायुकर्म. मोहनीयकर्म. वेश्नीयकर्म. दर्शनावरणीय. It Is এ এte এC এC এং এং এ এx | ज्ञानावरणीय. . उत्तर - प्रकृतियां. मूल-प्रकृतियां. Khav 9 20 ullon X wwww 9 asus Sexx20 20 20 m m m m m m 20 20 20 20 20 M C Uww xn Amra ~rn ू n U U U 20 106 or or or or or on o wwww ww it out we now coo upps orm w m 9 inconditi how on Ww ० 20 ० Noor O ooor or or Wwwww.aurat bus was ১ r ro १३ ० ११ १२ ० ० ० ० 188 m 20 or or o Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) सत्ताधिकार | पहले सत्ता का लक्षण कहकर, अनन्तर प्रत्येक मैं सत्ता - योग्य कर्म प्रकृतियों को दिखाते हैं: 'गुणस्थाना सत्ता कम्माठई बंधाई - तद्ध-अत्त-लाभाणं । संते डाल - सयं जा उवसमु विजिणु वियतइए ॥ २५ ॥ सत्ता कर्मणां स्थितिबन्धादिलब्धात्मलाभानाम् । सत्यष्टाचत्वारिंशच्छतं यावदुपशमं विजिनं द्वितीयतृतीये ॥ २५॥ अर्थ - कर्म - योग्य जिन पुगलों ने बन्ध या संक्रमणद्वारा. अपने स्वरूप को (कर्मत्व को ) प्राप्त किया है उन कर्मों के श्रात्मा के साथ लगे रहने को "सत्ता" समझना चाहिये । सत्तामैं १४८ कर्म - प्रकृतियाँ मानी जाती हैं । पहले गुणस्थान से लेकर ग्यारहवे गुणस्थान- पर्यन्त ग्यारह गुणस्थानों में से, दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर शेष नव गुणस्थानों १४८ कर्म प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है। दूसरे तथा तीसरे गुणस्थान में १४७ कर्म प्रकृतियों की सत्ता होती है; क्योंकि उन दो गुणस्थानों में तोर्थङ्कर नामकर्म की सत्ता नहीं होती ॥ २५ ॥. 'भावार्थ-बन्ध के समय जो कर्म-पुद्गल जिस कर्मस्वरूप में परिणत होते हैं उन कर्म- पुद्गलों का उसी कर्मस्वरूप में श्रात्मा से लगा रहना यह कर्मों की "सत्ता" कहाती है । इस प्रकार उन्हीं कर्म-पुद्गलों का प्रथम स्वरूप को - छोड़ दूसरे कर्म-स्वरूप में बदल, 'आत्मा से लगा रहना, यह भी "संत्ता" कहलाती है । प्रथम प्रकार की सत्ता Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) "बन्ध-सत्ता" के नाम से और दूसरे प्रकार की सत्ता"संक्रमण सत्ता" के नाम से पहचानना चाहिये । सत्ता में १४८ कर्म-प्रकृतियाँ मानी जाती हैं । उदयाधिकार में पाँच बंधनों ओर ५ संघातनों की विवक्षा जुदी नहीं की है, किन्तु उन दसों कर्म प्रकृतियों का समावेश पाँच शरीरनामकमों में किया गया है । तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शनाम कर्म की एक एक प्रकृति ही विवक्षित है । परन्तु इस सत्ता प्रकरण में बन्धन तथा संघातननामकर्म के पाँच पाँच भेद, शरीरनामकर्म से जुदे गिने गये हैं । तथा वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्शनामकर्म की एक एक प्रकृति के स्थानमें, इस जगह ५ वर्ण, २ गन्ध, ५ रस, ८ स्पर्शनाम-कर्म गिने जातें हैं | जैसे - ( १ ) औदारिकबन्धननामकर्म, (२) वैक्रियबन्धननामकर्म, (३) श्राहारकबन्धननामकर्म, (४) तैजसबन्धननामकर्म और (५) कार्मणबन्धननामकर्म-पाँच बन्धननामकर्म । (१) श्रदारिक संघातननामकर्म, ( २ ) 'वैक्रिय संघातननामकर्म, (३) श्राहारकसंघातननामकर्म, (४) तैजससंघात नामकर्म श्रौर(५) कार्मणसंघातननामकर्म, ये पाँच संघातननामकर्म । (१) कृष्णनामकर्म, (२) नीलनामकर्म, (३) लोहिनामतकर्म, (४) हारिद्रनामकर्म और (५) शुक्लनामकर्मये पांच वर्णनामकर्म । (१) सुरभिगन्धनामकर्म और दुरभिगन्धनामकर्म ये दो गन्धनामकर्म । (१) तिक्तरसनामकर्म, (२) कटुकरसनामकर्म, (३)कषायरसनामकर्म, (४) अम्लरस नामकर्म, (५) मधुररसनामकर्म - ये पांच रसनामकर्म । (१) कर्कशस्पर्शनांम(फर्म, (२) मृदुस्पर्शनामकर्म, (३) लघुस्पर्शनामकर्म, (४) गुरुस्पर्शनामकर्म, (५) शीतस्पर्शनामकर्म, (६) उष्णस्पर्शनामकर्म, (७) स्निग्धस्पर्शनामकर्म, (८) रुक्षस्पर्शनामकर्म ये आठ स्पर्श 2 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) नामकर्म । इस तरह उदय - योग्य १२२ कर्म - प्रकृतियों में बन्धननामकर्म तथा संघातन-नामकर्म के पांच पांच भेदों को मिलाने से और वर्णादिक के सामान्य चार भेदों के स्थान में उक्त प्रकार से २० भेदों के गिनने से कुल १४८ कर्म-प्रकृतियाँ सत्ताधिकार में होती है । इन सब कर्म-प्रकृतियों के स्वरूप की व्याख्या पहिले कर्मग्रन्थ से जान लेनी चाहिये । जिसने पहले, नरक की आयु का बन्ध कर लिया है और पीछे से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को पाकर उसके बल से तीर्थङ्कर नामकर्म को भी बाँध लिया है, वह जीव नरक में जाने के समय सम्यक्त्व का त्याग कर मिथ्यात्व को अवश्य ही प्राप्त करता है । ऐसे जीव की अपेक्षा से ही, पहिले गुणस्थाननामकर्म की सत्ता मानी जाती है। दूसरे या तीसरे गुणस्थान में वर्तमान कोई जीव, तीर्थहुरनामकर्म को बाँध नहीं सकता, क्योंकि उन दो गुणस्थानों में शुद्ध सम्यक्त्व ही नहीं होता जिससे कि तीर्थङ्करनामकर्म, बाँधा जा सके । इस प्रकार तीर्थङ्करनामकर्म को बाँध कर भी कोई जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर, दूसरे या तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर नहीं सकता । अतएव कहा गया है कि दूसरे और तीसरे गुणस्थान में तीर्थङ्करनामकर्म को छोड़, १४७ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता हो सकती है ॥ • · पहले गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक ११ गुणस्थानों में से दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़ कर शेष नव गुणस्थानों में १४६ कर्म प्रकृतियों की सत्ता कही जाती है; सो योग्यता की अपेक्षा से समझना चाहिये । क्योंकि किसी भी जीव को एक समय में दो श्रयुध से " अधिक आयु की सत्ता हो नहीं सकतीः परन्तु योग्यता संब Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) कमों को हो सकती है जिससे सामग्री मिलने पर जो कर्म अभी वर्तमान नहीं है उसका भी बन्ध और सत्ता हो सके। इस प्रकार की योग्यता को सम्भव-सत्ता कहते हैं और वर्तमान कर्म को सत्ता को स्वरूप सत्ता ॥२५॥ चतुर्थ-श्रादि गुणस्थानों में प्रकारान्तर से भी सत्ता का वलन करते हैं: अपुन्वाइ-चउक्के अण-तिरि-निरयाउ विणु वियाल संयं । संमाइ चउसु सत्तग-खर्यमि इगचत्त-सचमहवा ॥ २६ ॥ अपूर्वादिचतुष्कऽनतिर्यग्निरयायुर्विना द्वाचत्वारिंशच्छतम् । सम्यगादिचतुर्यु सप्तकक्षय एकचत्वारिंशच्छतमथवा ॥२६॥ अर्थ-१४८ कर्मप्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धि-चतुष्क तथा नरक और तियञ्चायु-इन छः के सिवा शेष १४२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता आठवे से लेकर ग्यारहवे गुणस्थानपर्यन्त चार गुणस्थानों में होती है । तथा अनन्तानुवन्धिचतुष्कोर दर्शन-प्रिक-इन सात कर्म-प्रकृतियों का क्षय हो जाने पर शष १४१ कम-प्रकृतियों की सत्ता चोथे से सातवें पर्यन्त चार गुणस्थानों में हो सकती है ॥२६॥ भावार्थ--पञ्चसंग्रह का सिद्धान्त है कि "जो जीव अनन्तानुबन्धिकषाय-चतुष्क की विसंयोजना नहीं करता वह उपशम-श्रेणि का प्रारम्भ नहीं कर सकता" । तथा यह ! सर्व सम्मत सिद्धान्त है कि "नरक की या तिर्यञ्च की आयु को वाँध कर जीव उपशम श्रेणि को नहीं कर सकता" । इन दो सिद्धान्तों के अनुसार १४२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता का पक्ष Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक की विसंयोजीच को अष्टविसंयोजना, र (७६) मामा जाता है, क्योंकि जो जीव अनन्तानुबन्धिपाय - चतुष्क की विसंयोजनाकर और देव-आयु कोबाँधकर उपशम श्रेणि को करता है उस जीव को अष्टम श्रादि ४ गुणस्थानों में १४२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता होती है । विसंयोजना, क्षय को ही कहते हैं। परन्तु क्षय और विसंयोजना में इतना ही अन्तर है कि क्षय में नष्टकर्म का फिर से सम्भव नहीं होता और विसंयोजना में होता है। चौथे से लेकर सातवे पर्यन्त चार गुणस्थानों में वर्तमान जो जीव, क्षायिक-सम्यकत्वी है-अर्थात् जिन्होंने अनन्तानुबन्धिकपाय-चतुष्क और दर्शन-त्रिक-इन सात कर्म-प्रकतियों का क्षय किया है, उन की अपेक्षा से उफ्त चार गुणस्थानों में १४१ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता मानी गई है। क्षायिक-सम्यकत्वी होने पर भी जो चरम शरीरी नहीं हैअर्थात् जो उसी शरीर से मोक्ष को नहीं पा सकते हैं किन्तु जिनको मोक्ष के लिये जन्मान्तर :लेना बाकी है-उन जीवोंकी अपेक्षा से १४१ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता का पक्ष समझना चाहिये क्योंकि जो चरम शरीरी क्षायिक-सम्यकत्वी हैं उन को मनुष्य-श्रायु के अतिरिक्तं दूसरी बायु की न तो स्वरूपसत्ता है और न सम्भव-ससा ॥२६॥ अय क्षपक जीव की अपेक्षा से सत्ता का वणन करते हैं। खवगंतु पप्प चउसुधि पणयालं नरयतिरिसुराउविणा । . सत्तगविणु अडतीसं ा अनियटी पढमभागो ॥ २७ ॥ क्षपकं तुप्राप्य चतुर्वपिपञ्चचत्वारिशन्नरकतिर्यसुरायुर्विना सप्तकं विनाष्टाविंशयावदमिवृचिप्रथमभागः ॥२७॥ . Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) अर्थ-जो जीव क्षयक (क्षपकणि कर उसी अन्म में मोक्ष पानेवाला) है उसकी अपेक्षा से चौथ गुणस्थान से लेकर सातवें पर्यन्त चार गुणस्थनों में १४५ कर्म-प्रकृतियोंकी सत्ता पायी जाती है। क्योंकि उस क्षपक-जीव कोअर्थात् चरमंशरीरी जीव को-नरक-पायु, तिर्यञ्च-पायु और देव-आयु-इन तीन कर्म-प्रकृतियों की न तो स्वरूपसत्ता है और न सम्भव सत्ता । जो जीव क्षायिकसम्यकत्वी होकर क्षपक है, उसकी अपेक्षा से चौथे गुणस्थान से लेकर नववे गुणस्थान के प्रथम-भाग-पर्यन्त · उक्त तीन प्रायु, अनन्तानुवन्धि-कषायचतुष्क और दर्शन-त्रिक-इन दस को छोड़कर.९४८ में से शेष १३८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता पायी. जाती है ॥ २७ ॥ . . . भावार्थ-जो जीर, वर्तमान-जन्म में ही क्षपकआणि कर सकते हैं, वे क्षपक या चरम-शरीरी कहाते हैं। उनको मनुष्य-श्रायु ही सत्ता में रहती है दूसरी प्राय नहीं । इस तरह उनको प्रागे भी दूसरी आयु की सत्ता होने की सम्भावना नहीं है । इसलिये उन क्षपक-जीवों को मनुष्यआयु के सिवा अन्य प्रायुओं की न तो स्वरूप-सत्ता है और न सम्भव-सत्ता । इसी अपेक्षा से पक जीवों को १४५ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता कही हुई है। परन्तु क्षपक-जीवों में जो क्षायिक-सम्यकत्वी हैं उनको अनन्तानुवन्धि-श्रादि सांत कर्म-प्रकृतियों का भी तय हो जाता है। इसीलिये दायिक-सम्यकत्वी क्षपक-जीवों को १३८ कर्म:प्रकृतियों को सत्ता कही हुई है । जो जीव, वर्तमान जन्म में 'ज्ञपकणि • नहीं कर सकते, वे अचरम-शरीरी कहाते हैं। उनमें कुछ क्षायिक-सम्यकत्वीभी होते हैं और कुछ औपशमिकसम्यकत्वी तथा कुछ क्षायोपशमिक-सम्यकत्वी । २५वीं गाथा में १४८ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) कर्मप्रकृतियों की सत्ता कही हुई है। सो क्षायोपशमिकसम्यकत्वी तथा औपशमिक-लम्यकत्वी अचरमशरीरी जीव की अपेक्षा से । और जो २६वीं गाथा में १४१ कर्मप्रकृतियों की सत्ता कही हुई है,सोक्षाधिक-सम्यकत्वी अचरम; शरीरी जीव की अपेक्षा से। क्योंकि किसी भी अचरमशरीरी जीव को एक साथ सव श्रायुओं की सत्ता न होने पर भी उनकी सत्ता होने का सम्भव रहता ही है, इसीलिये उसको सय आयुओं की सत्ता मानी गई है. ॥ २७ ॥ अव क्षपकश्रेणिवाले जीव की अपेक्षा से ही नववे श्रादि गुणस्थानों में कम-प्रकृतियों की सत्ता दिखाई जाती है:थावरतिरिनिरयायव दुगथोणतिगेगविगलसाहारम् । • सोलखो दुवीसलयं वियसि बियतियकलायतो ॥२८॥ स्थावरतिर्यग्निरयातपद्धिकस्त्यानद्धित्रिकैकविकलसाप्रारम् । पोडशक्षयोद्वाविंशतिशतं द्वितीयांशे द्वितीयतृतीयकपायान्तः॥ तइयाइसु चउदसनेरबारछपणचतिहियसय कमलो। नपु इत्थि हास छगपुंस तुरिय कोह मयमाय खो ॥ २६ ॥ तृतीयादिषु.चतुर्दशत्रयोदशद्वादशषट्पञ्चचतुज्यधिकशतं क्रमशः; नपुंसकस्त्रीहास्यषदकपुस्तुर्यक्रोधमदमायातयः॥२६॥ सुहुमि दुसय लोहन्तो खाणदुचरिममेगसो दुनिइखो। नवनवइ चरमसमए चउर्दसणनाणविग्धन्तो ॥ ३०॥ सूक्ष्मे द्विशतं लोभान्तः क्षीणद्विचरम एकशतं द्विनिद्राक्षयः । नवनवतिश्चरम-समये चतुर्दर्शनशानविघ्नान्तः ॥ ३०॥ पणसीइ सयोगि अजोगि दुचरिमे देवखगह-गंधदुगं। फासटुवंनरसतणुबंधणसंघायपलनिमिणं ॥ ३१ ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंञ्चाशतिस्सयोगिन्ययोगिनि द्विचरमे. देवखगतिगम्भरिकम् । स्पर्षाष्टक-वर्णरसबंधनसंघातनंपञ्चकनिर्माणम् ॥ ३१ ॥.. संघयणग्रंथिरसंठाण-छक्कगुरुल हुचउअपज्जत । सायं घ असायं वा परित्तुवंगतिगमुसरनियं ॥ ३२॥..:: संहननास्थिरसंस्थानषद्कागुरुलघुचतुष्कापर्याप्तम् । सात वाऽसात वा. प्रत्येकोपाङ्गत्रिकसुस्वरनीचम् ॥ ३२ ॥ विसयरिखो यं चरिमे तेरस मणुयतसतिग-अंसाइज । सुभगाजेणुञ्चपणिदिय-सायासाएगयरछेप्रो ॥ ३३ ॥ 'द्वासप्ततिक्षयश्च घरमें त्रयोदश मनुजनसत्रिकयशश्रादेयम् । सुभगजिनोच्चपञ्चेन्द्रिय-सातासातैकतरच्छेदः॥ ३३ ॥ अर्थ-नववे गुणस्थान के नवं भागों में से पहिले भाग में १३८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता पूर्व गाथा में कहीं हुई है। उन में से स्थावर-द्विक (स्थावर और सूक्ष्मनामकर्म):२ तिर्यञ्च द्विक ( तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्च-आनुपूर्वीनामकर्म) ४, नरकद्विक-(नरकगति और नरक-श्रानुपूर्वी) ६ प्रातपद्विका-(प्रातपनामकर्म और उद्योतनामकर्म) ६ स्त्यानार्द्ध-त्रिक-(निद्रानिद्रा, चलाप्रचला और स्त्याना ११, एकेन्द्रियजातिनामकर्म १२, विकलेन्द्रिय-(द्वौन्द्रिय श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय-जातिनामकर्म ) १५ और साधी रणनामकर्म १६-इन सोलह कर्म-प्रकृतियों का क्षय प्रथम भाग के अन्तिम समय में हो जाता है। इस से दूसरे भागमें १२२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता शेष रहती है । तथा १२२३ से अप्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण ..काय-चतुष्क-इन आठ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता का क्षर दूसरे भाग के अन्तिम समय में हो जाता है ।:२६॥ .. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) अर्थ-अतएव, तीसरे भाग में ११४ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता रहती है । तीसरे भाग के अन्तिम-समय में नपुंसकवेदका क्षय हो जाने से, चौथे भाग में ११३ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इस प्रकार चौथे भाग के अन्तिम समय में स्त्रीघेद का अभाव होने से पाँचवें भाग में ११२, पाँचवें भाग के अन्तिम-समय में हास्य-पदक का क्षय होने से छठे भाग में १०६, छठे भाग के चरम समय में पुरुष-वेद का अभाव हो जाता है इस से सातवें भाग में १०५, सातवें भाग के अन्तिम समय में संज्वलनसोध का क्षय होने से आठवें भाग में १०४ औरानाठवें भाग के अन्तिम समय में संज्वलनमान का अभाव होने से नवर्वे भाग में १०३ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता शेषरहती है।तथा नववे गुणस्थान के नवम भाग के अन्तिमसमय में संज्वलन-माया का क्षय हो जाता है ॥२६॥ अर्थ-अतएव, दसवें गुणस्थान में १०२ कर्म-महतियों की सत्ता रहती है। दस गुणस्थान के अन्तिम-समय में लोभ का प्रभाव होता है, इस से बारहवें गुणस्थान के द्वियरम-समय-पर्यन्त १०१ कर्म-प्रकृतियों की ससा पायी जाती है। द्विचरम-समय में निद्रा और प्रचला-इन २ कर्मप्रकृतियों का क्षय हो जाता है जिससे यारहवे गुणस्थान के अन्तिम समय में ६६ कर्मप्रकृतियाँ सत्तागत रहती हैं। इन " ६६ में से ५ ज्ञानावरण, ५ अन्तराय और ४ दर्शनावरण-इन १४ कर्म-प्रकृतियों का क्षयधारहवे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है ॥ ३०॥ अर्थ-अतएव, तेरहवें गुणस्थान में और चौदहवें गुणस्थान के विचरम-समय-पर्यन्त ८५ कर्म-अहतियों की सशा शेष Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) रहती है। द्विचरम-समय में ७२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता का अभाव हो जाता है। वे ७२ कर्म-प्रकृतियाँ ये हैं-देव-द्विक २, रमगति-हिम', गन्ध-द्विक-(सुरभिगन्धनामकर्म और दुरभिगन्धनामकर्म ) ६, स्पष्टिक-(कर्कश, मृदु, लघु, गुरु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्षस्पर्शनामकर्म ) १४, वर्णपञ्चक-- (कृष्ण, नील; लोहित, हारिद्र और शुक्लवर्णनामकर्म ) १६, रसपञ्च-(कटुक, तिक्त, कपाय, अम्ल और मधुररसमामफर्म) २४, पाँच शरीर नामकर्म-२६, बन्धन-पञ्चक- (औदारिक-वन्धन, वैक्रिय-बन्धन, आहारक-बन्धन, तैजस-बन्धन और कार्मण-बन्धननामकर्म ) ३४, संघातन-पञ्चक-(ौदारिक-संघातन, वैक्रिय-संघातन, माहारक-संघातन, तैजलसंघातन और कार्मणसंघातन नामकर्म ) ३६, निर्माणनामकर्म ४० ॥३१॥ __ अर्थ-संहनन-षदक-( वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कोलिका और सेवार्तसंहनन-नामकर्म) ४६, अस्थिरषट्क-(अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और यश-कीर्ति-नामकर्म) ५२, संस्थान-षट्क-(समचतुरस्त्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, वामन, कुब्ज और हुण्डसंस्थाननामकर्म ) ५८, अगुरुलघु-चतुष्क ६२, अपर्याप्तनामकर्म १३, सातवेदनीय या असातवेदनीय ६४, प्रत्येकत्रिक-(प्रत्येक, स्थिर और शुभनामकर्म ) ६७, उपाङ्ग-त्रिक-(औदारिक-" अङ्गोपाङ्ग, वैक्रिय-श्रङ्गोपाङ्गऔर आहारक-अगोपागनामकर्म)७०, सुस्वरनामकर्म ७१ और नीचगोत्र ७२॥३२॥ अर्थ-उपर्युक्त ७२ कर्म-प्रकृतियों का क्षय चौदह गुणस्थान के.द्विचरम समय में हो जाता है जिससे अन्तिम Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) समय में १३ कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है। वे तेरह कर्मप्रकृतियाँ ये हैं-मनुष्य-भिक (मनुष्यगति, मनुण्यानुपूर्वी. और मनुष्यप्रायु ) ३, त्रस-त्रिक-(प्रस, बादर और पर्याप्तनामकर्म ) ६, यश-कीर्तिनामकर्म ७, श्रादेयनामकर्म ८, सुभगनामकर्म ६, तीर्थरनामकर्म १०, उच्चगोत्र ११, पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्म १२ और सातवेदनीय या असातवेदनीय में से कोई एक १३। इन तेरह कर्मप्रकृतियों का अभाव चौदहवे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है और आत्मा निष्कर्म होकर सर्वथा मुक्त बन जाता है ॥३३॥ मतान्तर और उपसंहार नरअणुपुग्विविणा वा बारस चरिमसमयंमि जो खविडं। पत्तोसिद्धि देविंदवंदियं नमह तं वीरं ॥ ३४॥ नरानुपूर्वी विना वा द्वादश चरम-समये यः क्षपयित्वा । प्राप्तस्सिद्धि देवेन्द्रवन्दितं नमत तं वीरम् ॥ ३४ ॥ अर्थ-अथवा पूर्वोक्त तेरह कर्म-प्रकृतियों में से मनुष्यपानुपूर्वी को छोड़कर शेष १२ कर्मप्रकृतियों को चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में क्षीणकर जो मोक्ष को प्राप्त हुये हैं, और देवेन्द्रों ने तथा देवेन्द्रसूरि ने जिन का वन्दन (स्तुति तथा प्रणाम किया है, ऐसे परमात्मा महावीर को तुम सब लोग नमन करो ॥ ३४ ॥ भावार्थ-किन्हीं श्राचार्यों का ऐसा भी मत है कि चौदहवे गुणस्थान के अन्तिम समय में मनुष्य-त्रिक आदि पूर्वोक्त १३ कर्मप्रकृतियों में से, मनुण्य-पानुपूर्वी के विना शेष १२ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) कर्म-प्रकृतियों को ही सत्ता रहती है। क्योंकि देव-द्विक आदि पूर्वोक्त ७२ कर्मप्रकृतियाँ, जिनका कि उदय नहीं है वे जिसप्रकार द्विचरम समय में स्तिवुकसंक्रम द्वारा उदयवती कर्मप्रकृतियों में संक्रान्त होकर, क्षीण हो जाती हैं इसी प्रकार उदय न होने के कारण मनुष्यानुपूर्वी. भी द्विचरम-समयमें ही स्तिबुकसक्रम-द्वारा उदयवती कर्म-प्रकृतियों में संक्रान्त हो जाती है । इसलिये द्विचरम-समय में उदयवती कर्म-प्रकृति में संक्रान्त पूर्वोक्तं देव-द्विक श्रादि ७२ कर्मप्रकृतियों की सत्ता चरम-समय में जैसे नहीं मानी जाती है वैसे ही द्विचरम-समय में उद्यवती कर्म-प्रकृति में संक्रान्त मनुष्य-श्रानुपूर्वी की सत्ता को भी चरम-लमय में न मानना ठीक है। (अनुदयवती कर्म-प्रकृति के दलिंकों को सजातीय और तुल्यस्थितिवाली उदयवती कर्म-प्रकृति के रूप में बदलकर उस के दलिकों के साथ भोग लेना; इसे "स्तिबुकसंक्रम" कहते हैं) इस "कर्मस्तव नामक दूसरे कर्मग्रन्थ के रचयिता श्रीदेवेन्द्रसूरि हैं । येदेवेन्द्रसूरि,तपागच्छाचार्य श्रीजगच्चन्द्रसूरि के शिष्य थे ॥३४॥ सत्ताधिकारः समाप्तः assRURRERASHeens इति कर्मस्तव-नामक दूसरा कर्मग्रन्थ । SERERERERENTIPUR Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nea भयोगिकेवली में.. १३) संयोगिवली में ...१३ कीणमोह में. ११/पशान्तमोह में. • १० सक्ष्मसम्पराय में. . अनिवृतिगुणस्थान के नव भागो में अपूर्वकरण में. ७/अप्रमत्त में. ६ प्रमत्त में. ५ देशविरत में.. अविरत में. ३ मिश्र में. २सास्वादन में. १ मिथ्यात्व में. श्रोध से. नाम. गुणस्थानों के orrm Xr9U - - коллллллллллллллллллл -प्रकृतिका TER:::: 4--000.00000 Rokaoor. c o m उत्तर-प्रवतियां ॥ सत्ता-यन्त्र ॥ (७) ०.०० ::::::::ww cccccc . ० ० ० उपशमणि mmmmmm WWW00200... A. . . . । आपकोणि wwccmwwCM ...xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx शानावरणीय. ० ०/mommmmmmmmmmmmmmmmmmmm | दर्शनावरणीय. 25pmmm now~० ० ० ० ० ० ما له د د د س س س س س س س س س س س س س س س س س س | sites . -- - ०००Eawwarw म र मोहनीयकर्म. romaadios mmmmmmmmoolajolar-lalcilace as are | श्रायुकर्म. 10 ONGANA MAHARAMMARPi ० ० ० ० 0.wwwwwwwww I नामकम. - - - - - - - - - . اما ع س س س س س س س س س س س س س س س س س س س م م ا . Kxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ उत्तरप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा . और सत्ताको गुणस्थान-दर्शक यन्त्र ... - क्रमसे. १४८ उत्तरप्रकृतियों __.. - के नाम .. m वन्धयोग्य गुणस्थान उदययोग्य गुणस्थान:: . उदीरणायोग्य |गुणस्थान. सत्तायोग्य..... गुमास्थान. - ا ن m160 ..com नंबर WW १० ن शानावरणोय-५ मतिज्ञानावरणीय २. श्रुतज्ञानावरणीय १० ३ अवधिज्ञानावरणीय : १० ४. मन:पर्यवज्ञाना केवलज्ञाना० ... दर्शनावरणीयचक्षुर्दशनावरणीय चतुर्दशना० अवधिदर्शना० केवलदर्शना० . | निद्रा 1.१२ 1. समय १२ . १२... १. समय न्यून-१२. न्यून-१२ ११. निद्रोनिद्रा १२. प्रचला ........ १. समय समय स.१२ समय: युन-१२ १३. प्रचलाप्रचला. १४ स्त्यानर्द्धि': .... 8 इस में ७ को पूरा अक और को एक सप्तमांश, अर्थात ५ गुणस्थान और पाठ के सात हिस्सों में से एक हिस्सा समझना । इस ..प्रकार दूसरे अङ्कों में भी समझ लेना .... . : .... Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) । - urur - • चौथे सेसात चौथेसेसात ११ तक-४ तक-४ । | तीसरा-१ तीसरा-१ 18 0 वेदनीयकर्म-२ सातवेदनीय १६ असातवेदनीय मोहनीयकर्म-२८ १७ सम्यक्त्वमोहनीय १८ मिश्रमोहनीय | मिथ्यात्वमोहनीय अनन्तानुवन्धिक्रोध २१ | अनन्तानुवन्धिमान २२/अनन्तानुवन्धिमाया २३ अनन्तानुबन्धिलाभ २४ अप्रत्याख्यानावरणको २५ अप्रत्याख्यानावरणमान २६ अप्रत्याख्यानावरणमाया अप्रत्याख्यानावरणलोभ प्रत्याख्यानावरणकोष मान माया लोभ ३२ संज्वलन-क्रोध inmaniantarKKKekcccccwwwww ran0000 Nxxxx www.upsss nnianmomkkkkccccccwwwsNT MEANINFIRamnisatertain2 .. " मान " माया , लोभ हास्य-मोहनीय रति . " ३८ अरति , ३६ शोक ' , ४०. भय । | ASIENAME - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) mma 1 yuut Awalasimaja m .co r a & &kha जुगुप्सा पुरुषवेद स्नोवेद नपुंसकवेद | श्रायु-कर्म-४ ४५ देवायु ४६ मनुष्यप्रायु ४७ तिर्यचत्रायु ४८ नरकवायु नाम-कर्म-१३ मनुष्यगति-नामकर्म तिर्यञ्चगति , देवगति " नरकगति. एकोन्द्रयजाति, द्वीन्द्रियजाति , त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रिय , , श्राहारक, " सातसम्राट केदभाग ६१ तेजन " " ६२ कार्मण , " ६३ । औदारिकअङ्गोपाङ्ग, मायुकर्म का तीसरे गुणस्थान में बन्ध नहीं होता, इससे तीसरे को कोई अन्य गुणस्थानों को उसके बन्ध-योग्य समझना । 8SKEEK since cimwww.aims com Nuscak our pecian assic cro - FEM2000 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ वैक्रिय 39 ६५ | श्राहरकः " ६६ श्रीदारिकबंधन " ६७ वैक्रिय , "" ६८ आहारक ६६ तैजस कार्मण ७१ श्रदारिकसघातन,, ७२ | वैक्रिय 19 ७३ | आहारक ७४ | तैजस ७५ कार्मण ७६ | वज्रऋषभनाराचसह० ७७ | ऋषभनाराव ७८ | नाराच ७६ अर्धनाराच ८० कीलिका ८१ सेवार्त 39 39 ८६ कुब्ज ८७ हुडक 97 ܕܕ 11 ܕ 19 "" ," " ११ मद कृष्णवर्ण- नामक में ८६ | नीलवर्ण ६० लोहितवर्ण हारिद्रवर्ण ६२ शुक्लवर्ण ६३ | सुरभिगन्ध ६१ " , " 19 19 समचतुरस्त्रसंस्थान ८३ | न्यग्रोध० ८४ सादि ८५ वामन " 39 " 99 " 19 " 19 19 "7 " 57 ( ६१ ) सात से आठ के ६ भाग G ० ० О Q ० O a Q O ১০ ४ ४ ४ পভওটি টটিচটowly a *:*: " 95 " " ४ छा. ००००० ०० 999 র, নর, চ না, গম গ===== १३ १३ १३ छठा ०० o move ११ १३ ० १४ १३ १३ १३ ܕ " " 20, 20 93 १४ १४ me ne se ve se १४ १४ १४ " १४ १४. १४ १४ १४ १४ १४ १४ ૪ १४ १४ १४ १४ १४ १३ १४ ~ x x x x =⠀⠀⠀ १४ १४ १४ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) - - MorehorolorMMMMMMMMoror or दुरभिगन्ध तिक्तरस कटुकरस | कषायरस अम्लरस मधुररस कर्कशस्पशे मृदुस्पश गुरुस्पर्श लघुस्पर्श शीतस्पर्श उष्णस्पर्श स्निग्धस्पर्श रुक्षस्पर्श .., नरकानुपूर्वी तिर्यञ्चानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी शुभविहायोगति अशुभविहायोगति , पराघात उच्छ्वास ११६ प्रातप उद्योत अगुरुलघु ११६ | तीर्थङ्कर momslmolmaaloomacom::::::::::::: | १,४-२ १,४-२ (१,२,४-३१,२,४-३ (१,२,४.३१,२,४-३ س ११. س HMM More س م ११७ ११८ चौथासे १३,१४-२ पाठवें के भागतक १२० निर्माण उपघात १२२ त्रस GGG.G Simla malmima (१२३ वादर Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) १२५ ९२६ १२७ RAMM पर्याप्त प्रत्येक स्थिर शुभ सुभग सुस्वर श्रादेय यश-कीर्ति स्थावर सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण अस्थिर १३७ अशुभ १३८ | दुर्भग १३४ दुःस्वर . " १४० अनादेय अयशम्कीर्ति, गोत्र-कर्म-२ उचैर्गोत्र १३ नीचगोत्र 9999999 . *120p utputpu0901909mar on or or orarror १४१ - अन्तरायकर्म-५ १४४ दानान्तराय , १४५ लाभान्तराय १४६ | भोगान्तराय उपभोगान्तराय १४८वीर्यान्तराय १४७ - Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) . . " . परिशिष्ट। 'गुणस्थान' शब्द का समानार्थक दूसरा शब्द श्वेताम्बर शास्त्र में देखने में नहीं पाता परन्तु दिगम्बर साहित्य में उसके पर्याय शन्द पाये जाते हैं। जैसेः-संक्षप, श्रोध, सामान्य और जीवसमास । (गोम्मटमार जी० गा० ३-१०) "शान आदि गुणों की शुद्धि तथा अशुद्धि के न्यूनाधिक भाव से होन वाले जीव के स्वरूप,गुणस्थान है ।" गुणस्थान की यह व्याख्या श्वेताम्बर ग्रन्थों में देखी जाती है। दिगम्बर.ग्रन्थों में उसकी व्याख्या इस प्रकार है-"दर्शनमोहनीय .और चारित्रमोहनीय की उदय आदि अवस्थाओं के समय, . जो भाव होते हैं उनसे जीवों का स्वरूप जाना जाता है इस लिये वे भाव, गुणस्थान कहाते हैं।" (गो० जी० गा०८) सातवें आदि गुणस्थानों में वेदनीयकर्म की उदीरणा नहीं होती, इससे उन गुणस्थानों में प्राहारसंशा को गोम्मटसार (जीवकाण्ड गा० १३८ ) में नहीं माना है। परन्तु उक्त गुणस्थानों में उस संक्षा का स्वीकार करने में कोई आपत्ति , नहीं जान पड़ती, क्योंकि उन गुणस्थानों में असातवेदनीय के उदय आदि अन्य कारणों का सम्भव है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५) देशविरति के ११ भेद गोम्मटसार (जी० गा०४७६) में हैं। जैसा--(१) दर्शन, (२) व्रत, (३) सामायिक, (४) प्रोषध (५) सचित्तविरति, (६) रात्रिभोजन-विरति, (७) ब्रह्मचर्य, (८) आरम्भविरति, (६) परिग्रहविरति,(१०) अनुमतिविरति, और (११)उहिटविरति । इस में प्रोषध'शब्द श्वेताम्वरसम्म दाय प्रसिद्ध पौषध'शब्द के स्थान में है। . : गुणस्थान के क्रम से जांवों के पुण्य, पाप दो भेद हैं। मिथ्यात्वी या मिथ्यात्वोन्मुख जीवों को पापजीव और सम्य. परवी जीवों को पुण्यजीव कहा है। (गो. जीगा० ६२१ ) उदयाधिकार में प्रत्येक गुणस्थान में उदययोग्य प्रकृतियों की जो जो संख्या कही हुई है, वह सब गोम्मटसार में उल्लिखित भूतबलि प्राचार्य के मत के साथ मिलती है । परन्तु उसी प्रन्थ (कर्म० गा० २६३-२६४ ) में जो यतिषभाचार्य के मत का उल्लेख किया है उसके साथ कहीं कहीं नहीं मिलती। पहले गुणस्थान में यतिवृषभाचार्य ११२ प्रकृतियों का उदय और चौदहवे गुणस्थान में १३प्रकृतियों का उदय मानते हैं । परन्तु कर्मग्रन्थ में पहिले गुणस्थान में ११७ प्रकृतियों का और चौदहवे गुणस्थान में १२ प्रकृतियों का उदय माना है। 'कर्मग्रन्थ में दूसरे गुणस्थान में तीर्थङ्करनामकर्म के सिवाय १४७ प्रकृतियों की सत्ता मानी हुई है, परन्तु गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) में आहारकद्विक और तीर्थङ्करनामकर्म, इन तीन प्रकृतियों के सिवाय १४५ ही की सत्ता उस गुण Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) स्थान में मानी है । इसीप्रकारगोम्मटसार(कर्मकाण्ड-३३३ से ३३६) के मतानुसार पाँचवें गुणस्थान में वर्तमान जीच को नरक-प्रायु को सत्ता नहीं होती और छठे तथा सातवें गुणस्थान में नरक-श्रायु, तिर्यञ्च-श्रायुं दो की सत्ता नहीं होती, अतएव उस ग्रन्थ में पाँचवे गुणस्थान में १४७ की और छठे, सातवें गुणस्थान में १४६ की सत्ता मानी हुई है । परन्तु कर्मग्रन्थ के मतानुसार पाँचवें गुणस्थान में नरक-श्रायु को और छठे, सातवें गुणस्थान में नरक, तिर्यञ्च दो श्रायुओं की सत्ता भी हो सकती है। परिशिष्ट। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ResummerUITMactuarterinterneirms. GARCORE दूसरे कर्मग्रन्थ का कोष । ' (हिन्दी-अर्थ-सहित ) whmmmm mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwww Page #128 --------------------------------------------------------------------------  Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोष. गाथा अङ्क प्राकृत. हिन्दी. संस्कृत च और. ४, ५, ६, ६) अन्त १५,१८,१६, अंत ०३,२४. विच्छेद. अन्तराय २०-अंतराय १८-अंतिम १०,२८,-अंस २१-अगुठलहु १०,३२,-गुरुलहुचा अन्तरायकर्म. अन्तिम अन्त का-बाखरी. अंश भाग---हिस्सा. प्रगुरुलघु अगुरुसघुनामकर्म. अगुरुलधुचतुष्क अरुलघुनाम, उपघातनाम, पराधातनाम और उच्वास गामक्रम. प्रयत अविरतसम्यग्दृष्टिगु०पृ०१२ अयशः अयश कीर्तिनामकर्म. श्रयोगिन् योगियोवलिगु० पृ० २६ अयोगिगुण , अप्टंन् घटापन्चाशत् अट्ठावन, १५-अजय ७-एजस २२,२४,३१-प्रजोगि २-- अजोगिगुण १७,३१-श्रह ८-अहाण्या श्राठ. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) गा० प्रा० सं० २७-~-अडतीस अष्टाविंशत् अडतीम. २५.-अडयाल-सय अष्टाचत्वारिं- एक सौ अड़तालीस. शच्छत -ग्रडवन्न श्रष्टापच्चाशत अहावन. ५,१४,२६-अगा अनन्तानुवाधिकपाय. १२-अणंत अनन्त अन्त का अभाव. १६-अणाइज्जदुग अनादेयद्विक । अनादेयनाम और अयश: कीर्तिनामकर्म. १३,१४,१५-अणुदय - अनुदय उदय फा अभाव. २४-अणुदीरग अनुदीरक उदीरणा नहीं करने वाला. १५-अणुपुन्वी . पाठपूर्वी भावपूर्वीनामधर्म. २५-अत्तलाम यात्मलाभ स्वरूप-प्राप्ति. २१,३२-अथिर अस्थिर अस्थिरनामकर्म. ७-अथिरदुग अस्थिरद्विक अस्थिरनामबम और अशुभ नामकर्म, २२-अन्नयर अन्यतर दो में से एक. ८-अन्नह अन्यथा अन्य प्रकार से. २,११,१८-अनियहि अनित्ति अनिवृत्तियादरमम्पराय२७, . गु०पृ०२० ३२-अपज्जत्त अपर्याप्त अपर्याप्तनामकर्म. १३--अपत्त अप्राप्त प्राप्त नहीं. २,८,१७-अपमत्त अप्रमत्त । अप्रमत्तसंयतगु० पृ० १५ ६,१८,२६-अपुन . अपूर्व अपूर्वकरणगुणस्थान पृ०१६ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) गा० प्रा० . सं० हि. --अचंध ३-अभिनय ७---अर २-श्रविण्य प्रबन्ध थभिनव श्रगति अविरत बन्धाभाव. नया. अरतिमोहनीय. अविरतसम्यग्दृष्टिगु० पृ०१२. असातदनीय. यतात श्रसात २२-साथ ७-अस्साय ३२,३३-असाय . २६-श्रहवा ग्रामात अथवा पक्षान्तर. ६-श्राइ २३,२५ यादि यादि २६,२६/-याइ २३,३३-श्राइजन २१-~याइसंघयण ६,१६,२३-ग्राउ ५-याउन ८-श्रागच्छे प्रारम्भ. वगैरह. यादय श्रादेयनामकर्म. प्रादिसंहनन प्रथम वजऋपभनागच संहनन. यायल श्रायुक्रम. यायुष्क श्रा+गम्- श्रावे. मागच्छेत् । थाकृति संस्थाननाम. यातप । श्रातपनामकर्म, श्रातपद्विय.. प्रातपनामकर्म और उद्योत. नामकम. पाहारक पाहारफशरीर तथा श्राहा- . ५-यागिइ १,१४-थायव २८-श्राययदुग . . १३...ग्राहार Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) सं० . गा० प्रा० रकङ्गोपाङ्गनाम. १७,२४-श्राहारजुगल ग्राहारकद्विक ३,८,१७-साहारगदुग आहाराद्विक एक १४,२८-इग २६-गचत्तलय एकचत्वारिंश- एफेन्द्रियजातिना० एक सौ इकतालीस. ३०-इगत १७-इगसी ४-इगदिय-सय १४-इगारसय ११-इगेग २६-इत्थी एकशा एकाशाति एकाधिकशत एकादशशत एकैक स्त्री एक सौ एक, इक्यासी. एक सौ एक. एक सौ ग्यारह. एक एक. स्त्रीवेद. इस जगह. उच्च उच्छेद १२,२३-उच्च • १२-उच्छे ५,१६-उज्जोय १३,१५,२३-उदय उद्योत उच्चैर्गोत्र, विच्छेद. उद्योत उदय-कर्म-फल का अनुभव पृ० २ उदय १,२१-उदय १३-उदीरण उदय उदीरणा " उदीरणा-विपाक-काल प्राप्त. न होने पर भी प्रयत्न विशेप से दिया जानेवाला Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २३- - उदीरगा। १- उदीरगावा प्रा० ६, ११. -उल ६ उरजदुग २, २५- उम्म १६ - उपसंतगुण ६-बंग ३२ - वंगतिग HOPPER २४ -ऊण २०, ३३ - एयर २४ ---- एसा ३ -थोड ११ - कम सं७ (१०३) उदीर उदीरणका श्रीदार श्रशरहि उपग्रम उपगान्तगुगा उपाङ्ग उप ऊन क्रम ऊ एकतर एपा शोध ए श्रो મ पिं० कर्म फल का अनुभव - "" 94 शारिरीग्ना० श्रदारिकशरीर और शौदाfreeफर्म. उपान्तकपात्रीनग स्थगुगास्थान, पृ०१२ न्यून. 91 कर्म दाङ्ग, वैकि restris और शाहा नामकर्म. दो में से एक. यह. सामान्य श्रनुक्रम. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) गा० . सं. हिं. फर्मन् १,३,२५-कम्म २१-कम्म २६.--कमसो ५-खगह फर्मन क्रमशः शुषगति कर्म. पृ०३२ फार्मणशरीरनामकर्म. अनुक्रम से. अशुभविहायोगतिनामफर्म. जुगुप्तामोहनीय. १०-कच्छा कुत्सा ख २८,२६ खगति ३-खगइ २१-खगइदुग खगतिद्विक २६-खय २७-खवग ३४-खविं १-खविय २,२०-खीण नाश. विहायोगतिनामकर्म. शुभविदायोगतिनाम और अशुभविहागोगति नामकर्म. नाश. क्षपकणि -प्राप्त. तय कर के. क्षय किया हुआ. क्षीण कपायवीतरागछप्रस्थगु-पृ०२६ प्रक्षेप. पक क्षपयित्वा क्षपित क्षीण १५-खेव . २३---गइ ३१-ांधा गति गन्यतिक गतिनामकर्म. सुरभिगन्ध और दुर भगन्ध. नामकर्म. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) गा० प्रा० सं० २३--गुण १--गुणगण १६,८--गुणसहि ग्रहण गुण गुणस्थान एकोनपष्टि प्राप्ति-सम्बन्ध. गुणस्थान. पृ० ४ उनसठ. ७,२२-च ११,२६,२७-चउ २६-चउक्क २६-चउदस १२,३०-चउदंसण चतुर् चतुष्क चतुर्दशन् चतुर्दर्शन और. चार. चार का समुदाय. चौदह. ४दर्शनावरण-चक्षुर्दर्शनावरण, अचतुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण चौहत्तर, एक सौ चार. अन्तिम. ५-चउसयरि १५-चउसय १०,२३-चरम ३३,३४-चरिम चतुःसप्तति चतुःशत चरम चरम . . छ ७,१६] पप् छह. . २१,२६) ३२-छक्क ६-छप्पन्न पट्य पटपञ्चाशत पष्ट छह या समुदाय. छप्पन. छटा. . Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा० प्रा० १० छवीस १६-१ - सट्ठ १७- इस्लयरि ४ -- द्विव ११,१२. १६,१७ -देख १८,१६ २०,३३ -जड़ ७---जया १ - जह ८ जं २५, २७– जा १ - जाइ २३, ६) १०,३२ - जिया १३ ३४- जो २५- टिह ६- त्यी ( १०६ ) सं० पविशति पटि पट्सप्तति संवार्त छेद यदि यदा यथा यत् यावत् जाति जिन यः स्थिति ལ fc छवीस. छियासठ छिहत्तर. सेवार्तसंहनन नामकर्म, प्रभाव. जो. जन. जिसप्रकार. क्योंकि, पर्यन्त. जातिनामकर्म. तीर्थङ्कर नामकर्म. जो. कर्म बन्ध की काल मर्यादा स्त्रीवेद, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० २५- तइग्र २६- तइय ६, ३१-तणु ३ -- तत्थ २३, ३३ - तसतिग ६--तसनव १ - तह ३४--तं १२,२३ति १२ ति प्रा० ५ ६- तिथकसाय १६ - विकसाय २४ - तिग २१ - तित्थ ३ - तित्थयर १८ - तियग २५- -तियकसाय ४, २६ २७, २८) तिरि १६ - तिरिगइ १६- तिरिपुत्री २६-तिहियसय १०, २२ - तीस .. ( १०७ ) r सं० तृतीय तृतीय तनु त्रिक प्रसनवक तथा तं इति त्रि इति तृतीयकपाय तृतीयकपाय त्रिक तीर्थ हिं० तीसरा. ay शरीर नामकर्म उस में. प्रसनाम, वादरनाम और पर्याप्तनामकर्म. सादि प्रकृतियाँ पृ. ४५ उसी प्रकार. उसको. स्वरूप वोधक. तीन. स्वरूप- बोधक. प्रत्याख्यानावरण. 39 तीन का समुदाय. तीर्थङ्कुरनामकर्म तीर्थङ्कर त्रिक • तृतीयकपाय तियेच् तिर्यग्गति तिर्यगानुपूर्वी ष्यधिकशत . एक सौ तीन. त्रिंशत तीस.. 21 तीन का समुदाय. प्रत्याख्यानावरण कपाय. तिर्यञ्च. तिर्यञ्चगतिनामकर्म. तिर्यञ्चानुपूर्वीना०. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) गा० प्रा० सं० हि. . २६-तुरियफोह १६-नुरियलोभ २१-तेय २६-तेर ३३-तेरस ७ तेवद्धि तुरीयक्रोध तुरीगलोभ तेजस् प्रयोदशन् त्रयोदगन् विपष्टि संज्वलनमोध. संज्वलनलोभ. तेजसशरीरनामकर्म तेरद. तिरेसठ. . स्थावर १४,२८-थावर ४-थावरचर स्थावरचतुष्क स्थावरनामकर्म. स्थावरनाग,मक्ष्मनाम,अप. प्तिनाम और साधारणनामकर्म. त्यानद्धिनिद्रा. निद्रानिद्रा, प्रचलावला और स्त्यानदि स्तुति करते हैं. ४---थीण १७,२४-थीणतिग स्त्यानद्धि स्त्यानद्धिभिक .१---शुणिमो स्तु-स्तुमः २०-~-दसणचा दर्शनचतुष्य चक्षुर्दर्शनावरण श्रादि । प्रकृतियाँ. २०,३०,३१-दुचरिम द्विचरम उपान्त्य-अन्तिम से पहला. निन्द्रा और प्रचला. ३०-दुनिदा ११-दुवीस द्विनिद्रा द्वाविंशति बाईस. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) सं० गा० प्रा० दि. १३,२८-दुवीस सय ३०-दुसय दुर्भग ४-दुइगतिम द्वाविंशति-शत एक सौ बाईस. एक सौ दो. दुभंगनामकर्म, মমম। दुर्भगनामगर्म, दुःस्वरनाम फर्म और अनादेयनाम फर्म. दुःस्वर दुःस्वरनामफर्म. देव. देवेन्द्र देवों का इन्द तथा श्रीदेवेन्द्रसरि. देशविरतगुणस्थान पृ०१४ २२-दूसर ३१-देव ३४-देविंद २,१६-देस देश ४,२६-नपु ३४-मह ३४-~नरअणुपुत्री ६-नरसिंग २७-नरय ४-नरयतिग नपुंसक नपुंसकावेद. नम्-नमत नमन करो. नगनुपूर्वी • मनुष्य-मानुपूर्वी. मरविक. नरगति, नरानुपूर्वी. और नरायु. नरक नरक লগিন্ধ नरकगति, नरकानुपूर्वी थोर नरका. नवनवति निन्यानवे. ज्ञान ज्ञानावरण. ज्ञानविष्मदशक पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तराय फर्म. नीच नीचगोत्र, ३०-नवनवा २०,३०-नागा १२--जाण विग्ध. दसंग ५,१६-निय Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) गा० प्रा० सं० हिं० ७-निहा निष्टा ६,२०-निद्ददुग निद्राद्विक ३ १,१०,२१-निमिण निर्माण समाप्ति. निद्रा और प्रचला. निर्माणनामकर्म. ३२-निय नीच २-नियहि निवृत्ति २५-निरय निरय २६-निरयाउ निरयायुत् १४-निग्याणु- निस्यानुपूर्वी पुन्वी ७--नेइ नी-नयति नीचगोत्र. नितिगुणस्थान. पृ० १६ नरक. नरक-यायु नरकासुपूर्वीनामकर्म. . प्राप्त करता है. १७-परखेव २७-पढम ३१,६,२६-पण प्रक्षेप प्रथम प्रक्षेप-मिलाना. पहला. पाँच. ११-~-पणग पञ्चक पाँच. २७-पणयाल पञ्चचत्वारिंशत् पैतालीस. २०-पणवन्ना पन्चपञ्चाशत् पचपन ५-पणवीस पन्चविंशति पच्चीम. • ३१-पणसीइ पञ्चानीति पिवासी. ६,२३-पणिदि पवेन्द्रिय पवेन्द्रिय जातिनाम ३३-~पणिं दिय, पञ्चेन्द्रिय १,३४-पत्त प्राप्त प्राप्त हुआ. २७---पप्प प्र+पाप-प्राप्य प्राप्त करके. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११) सं० गा० प्रा० - हिं.. प्रमत्तसंयतगु०पृ० १५ २,७-पमत्त प्रमत्त १७,२४, २४-पयडि प्रकृति २३-परं परम् ३२-परित प्रत्येक २१-परिततिग प्रत्यकत्रिक प्रकृति. विशेषता. प्रत्येकनाम० प्रत्येकनाम, स्थिरनाम. और शुभनामकर्म. पुरुपवेद. ११-पुम २६ --पुंस '. भी स्पर्श ३१-फास स्पर्शनामकर्म. घन्ध । पन्ध. पृ० १ बन्धननामकर्म. बाँधता हुया. बयालीस. बारह. बन्धन चन्ध-बध्नन् द्विचत्वारिंशत् द्वादशन् पर १,३-बंध ३१-पंधण ८-बंधत २०--बायाला २६--चार २२,३४-चारस २५,२८-विय ६,१५-बियफसाय २६-बियाल- सय १६-विसत्तर ३३--विसयरि द्वितीय द्वितीयव पाय द्वाचत्वारियच्छत दुसरा. अप्रत्याख्यानावरण एक सौ बयालीस. वासप्तति यहत्तर. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) गा० प्रा० हिं० भगवान् भय २४-भगवं १०-भय ६,११--भाग २७. १०-भेन भगवान् . भयमोइनीय. हिस्सा. भाग भेद विच्छेद भीतर. मनुष्य. ५-मज्म मध्य १६-मणु मनुज २३,३३-मराय २४-मणुयाउ मनुजायुस् । २६-मय सद १६-माया, माया, २,३,१३-मिच्छा । मिथ्या १४. ४,१४---मिच्या मिथ्या २,५,१५-मीस मिश्र १३,१५ मीस मिश्र मनुष्य-श्रागु. मानरुपाय. मायाकपाय. मिथ्यादृष्टिगु०पृ०५. ३१ - १ मिथ्यात्वमोहनीय सम्यग्मिथ्यादृष्टि गु०पू०१२ मिश्रमोहनीय. पुनः, फिर. १०-रइ रति रतिमोहनीय. ३१-रस • रस . रसनामकर्म. १६-रिसहना- अपभनाराचद्धिक ऋषभनाराचसं०और नाराचसं. रायग हनन. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३) गा० प्रा० २५-लद्ध ३०-लोह लभ्-लब्ध लोभ प्राप्त. लोभापाय. इव वा २३---ज्व ७,३२-३ ६-इर ३-वज्ज । १०-वरण ३४ - वैदिय ३१-वन्न २१-वन्नचर वन वर्ज-वर्ज वर्ण वन्द-बन्दित वर्ण वर्णचतुष्क समान. अथवा. वज्रऋपभनाराच सं० छोड़कर वर्णनामकर्म. वन्दन किया हुआ. वर्णनामकर्म. वर्णनाम, गन्धनाम, रसनाम और स्पर्शनामकर्म, धवा. वा ३२,३४-वा २७-वि १६-विउवह अपि वैक्रियाष्टक विघ्न ३०-विग्ध १४,२८-विगल विकल देवगति आदि ८ प्रकृत तियाँ पृ० ५४. अन्तराय. विवालेन्द्रिय (हीन्द्रिय 'से चतुरिन्द्रियतक) जातिनामकर्म. जिननामकर्मफे सिवाय. २५-विजिण २७,३४---विणा ६,२६,२७-विणु १३-विभाग विजिन विना विना विपाक सिवाय. छोड़कर. फल. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 नाव प्रा० ११ - विह ३४ वीर १ - वीर जिया ३ वीaa - वुच्छिज्ज 61 २२ बुच्छे १३ - वेयण w २२,२४ -- वेयणीय १८ - वेयतिग २३- सम २०- सगवन्न ६- सगलयरि १६ - सगसी २,२० - सजोगि १६- सद्वि ७---सत्त २६, २७-सत्तग ६- सत्तट्ठि ३---सत्तर- सय ११, १६ – सतर १३ - सतर- सय ( ११४ ) सं० विध वीर वीर जिन विंशतिशत L " वि-उत्+हिद व्युच्छ्रियन्ते व्युच्छेद वेदन वेदनीय वेद सप्तक सप्तपञ्चाशत् सप्तसप्तति सप्ताशीति सयोगिन् पष्टि सप्तन् सप्तक सप्तषष्टि सप्तदग्र-शत सप्तदशन् सप्तदश शत हिं प्रकार. श्रीमहावीर महावीरतीर्थकुन एकसौ बीस. विच्छेद पाते हैं. उच्छेद.. अनुभव - भोग. वेदनीय कर्म. पुरुपवेद, स्त्री र नपुंसक वेद. सात. सतावन. सतहत्तर, सतासी. सयोगिकेवलिगु० पृ०२८ साठ. सात सात का समुदाय. सड़सठ एक सौ सत्रह . सत्रह . एक सौ सगह. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५, गा० प्रा० हिं. १,२५--सचा समचतरन १०-तमचर ३.-समय सत्ता-आत्मा के साए लगे हुये कर्माका अस्तित्व. समचतुरस सं० दुसरा हिस्सा न किया जा सके ऐसा सन्म काल समय २३,२४-समय समय १५-लय शल १-सयल सकल ३१-सयोगि सयोगिन्द ५,१८,३२-संघयण संहनन ' ३१-संघाय संघातन ११-संजलण सम्ज्व लन १९-संजलणतिय सज्वलनसिक सब. सयोगिफेवलिगुरु संहनननामफर्म.. संघासननामकर्म. सम्ज्वलनकपाय. संज्वलन कोष,मान और माया, संस्थाननामकर्म. सत्ता. थविरससम्यग्दृष्टिगु० पृ० १२ सम्यक्त्वमोहनीय. संस्थान ३२,२१-संगण २५--संत 4,14-सम्म सत् सम्यन् १३,१५-सम्म १८-सम्मर १२,२२१-साय सात सातवेदनीय. ३२,३३ २,५,१५-सारण सास्वादन सास्वादनसम्पग्दृष्टि गु० २९-साहार साधारण রাখবো Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) सं गा० प्रा० मोक्ष. सिद्धि , सु-खगति ३५-सिद्धि -सु-खगइ २२,३३-सुभग ६--सुरदुग ७,८,२० -मराउ ३२-सुसर सुरद्विक सुरायुस् सुस्वर शुभविहायोगतिना० सुभगनामकर्म. देवगति और देवानुपूर्वी. देवनाय. सुस्वरनामकर्म. सूक्ष्मसम्परायगु० पृ. २२ सक्ष्मनाम, अपर्याप्तनाम और साधारणनाम. सुस्वरनामकर्म. २,११,१-सुहुम सूक्ष्म १४---सुहुमतिग सूक्ष्मत्रिक २२-सूसर सुस्वर १०-हास २६--हासनग हास्य . हास्यपटक हास्यमोहनीय. हास्यमोहनीय श्रादि प्रफुतियाँ पृ०.६२. १९-हालाइछक्क हास्यादिषट्क ११-होण हीन रहित. .. हुण्डसंस्थानना० Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कर्मस्तव' नामक दूसरे कर्मग्रन्थ की मूलगाथायें । तह थुणिमो वीरजिणं, जह गुणठाणेसु सयलकम्माई । बंधुदश्रदीया - सत्तापत्ताणि खवियाणि ॥ १ ॥ मिच्छे सासण-मसे, श्रविरय-देसे पमत्त श्रपमन्ते । नियट्टिश्रनियट्टि सुभु -वसमखीण सजोगिन जोगिगुणा ॥२॥ अभिनवक मग्गहणं, बंधो श्रोहेण तत्थ वीससयं । तित्थयराहारगदुग- वज्जं मिच्छमि सतरसयं ॥ ३ ॥ नरयंतिग जाइथावर - चउहुंडायवछिनपुमिच्छं । सोलतो इगहियलय. सासणि तिरिथीणदुहगतिगं ॥ ४ ॥ अणमज्झागिइसंघय - चउनिउज्जोय कुखगइत्थि त्ति । पणवीसंतो मीसे चउसरि दुश्राउश्रश्रयंधा ॥ ५ ॥ सम्मे सगसयरिजिणा - उबंधि वइर नरतिगविकसाया । उरलदुगंतो देसे, सत्तट्ठी निकायंतो ॥ ६॥ तेवट्टि पमन्ते सो-ग अरइ श्रथिरदुग अजस अस्सायं । बुच्छिज्ज छच्च सत्त व नेइ सुराउं जया निहं ॥ ७ ॥ गुणस अपनन्ते, सुराउ, बंधंतु जइ इहागच्छे । अन्नह अट्ठावन्ना, जं श्राहारगदुगं बंधे ॥ ८ ॥ 1 } अडवन्न श्रपुव्वाइम्मि, निदुगंतो छपन्न पणभांगे ।.सुरदुगपणि दिलखगइ तसनव उरल विणु तवा ॥ ६ ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८) समचउरनिमिणजिरणव-रणनगुरुलहुच छलंसि तीसंतो। चरमे छवीसबंधो, हासरईकुञ्छभयभेो १० ।। अनियहिभागपणगे, इगेगहीणो दुवीलविहबंधो । युमसंजलणच उरह, कमेण छेत्रो सतर सुहमे ॥१॥ चउदसणुच्चजलनाण-विन्धदसनं ति सोलसुच्छेत्रो। तिसु सायचंधछेत्रो, लजोगिवंधतुऽगंतोश्र ॥१२॥ . उदो विवागवेयरण-मुदीरणमपत्ति इह दुवोलसयं । सतरसय मिच्छे मो-ससम्ममाहाराजणणुदया ॥१३॥ सुहमतिगायवमिच्छं मिच्छंतं सासणे इगारसयं । निरयाणुपुचिोदया प्रणथावरइगविगलनंतो ॥१४॥ मीले सयमणुपुवी-गुदया मीसोदयेण मीसंतो। चउसयमजए सम्मा-गुपुचिखेवा वियफसाया ॥१५॥ मणुतिरिणुपुत्रिविउवट्ठ.दुहगणाइज्जदुग सतरछेत्रो। सगसीह देसि तिरिंगई-श्राउ निउज्जायतिकसाया ॥१६॥ अट्ठच्छेओ इगसी, पमत्ति श्राहारजुगलपक्खेवा । थीणतिगाहारगढुग छेश्रो छस्सयरि अपमत्ते॥१७॥ सम्मत्तंतिमसंघयण-तियगच्छेनोविसत्तरिअपुन्चे। हासाइछक्कतो, छसहि अनियट्टि पेयतिनं ॥१८॥ संजलणतिगं छच्छेमो, सटि सुहुमम्मि तुरियलोभतो। उवसंतगुणे गुएस-ट्टि रिसहनारायदुगनंतो ॥१॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११९ ) सगवन्न खीणदुचरिमि, निद्ददुगंतो अचरिभि परापन्ना । नाणंतरायदंसण - चड छेश्रो सजोगि बायाला ॥२०॥ तित्थुदया उरलाथिर - खगइ दुग परिप्ततिग छ संठाणा । अगुरुलहुचन्नच निमि - रातेयकम्माइसंघयणं ॥ २१ ॥ दूसर सुसर साया - सागरं च तीस बुच्छेश्रो । वारस अजोगि सुभगा- इज्जऊसन्नयरवेयणियं ॥ २२ ॥ तसतिम परिणदि मया - उगइ जिरणुच्चं ति चरमसमयतो । उद व्बुदीरणा पर - ममत्ताई सगगुणेसु ॥ २३ ॥ एसा पयडितिगुणा, वेयणियाहारजुगलथीणतिगं । भयाउ पमसंता, जोगि ऋणुदारगो भगवं ॥ २४ ॥ सत्ता कम्माण ढिई, बंधाईलद्धत्तलाभाणं । संते अडयाललयं, जा उवसमु विजिणु वियतइए ॥ २५ ॥ --- पुण्याहवउछे अण- तिरिरनिरयाउ विणु चियालसयं । सम्माइचउसु सप्तग- खयम्मि इगवत्तसयमहवा ॥ २६ ॥ • खनगं तु पप्प उसु वि, पणयास्तं नरयतिरिसुराउ चिणा । सन्त विणु अडतीसं, जा श्रनियट्टी पढमभागो ॥ २७ ॥ थावरतिरिनिरयायव - दुग थी तिगेग विगलसाहारं । सोलखप्रो दुवीससयं, वियंसि बियतियकसायंता ॥ २८ ॥ -- "" पणवन्ना" इत्यपि पाठः Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) तइयाइसु चउदसते-रचारछपणचउतिहियलय कमसो । नपुइत्थिहासछगपुं- सतुरियकोहमयमायखप्रो ॥ २६ ॥ 1 सुमि दुसय लोहंतो, खोपहुंचरिमेगस नो दुनिख । नवनवइ चरमसमए, चउदंसणना विग्घंतो ॥ ३० ॥ परासीइ सयोगि जो-गि दुचरिमे देवखगइगंधदुगं । फासटु वन्नरसतरणु- बंधणसंघाय पण निमियं ॥ ३१ ॥ संघयणश्रथिरसंठाण- छक्क अगुरुलहुचर थपज्जतं । सायं व सायं वा, परित्तुवंगतिग सुसर नियं ॥ ३२ ॥ विसयरि खश्रो य चरिमे, तेरस मयतसतिग जसाइज्जं । सुभगजिणुच्च परिदिय, सायासाएगयरछेो ॥ ३३ ॥ समाप्त. } नरश्रणुपुवि विणा वा, वारस चरिमलमयम्मि जो खविरं । पतो सिद्धिं देवि-दबंदियं नमह तं वीरं ॥३४॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- _