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ऋषभनाराचसंहनन, नाराच संहनन, अर्धनाराच संहनन और कीलिकासंहनन |
तिर्यञ्चत्रिक से लेकर स्त्रीवेदपर्यन्त जो २५-कर्म-प्रकृतियाँ ऊपर कही हुई हैं उन का बन्ध अनन्तानुबन्धि-कपा य के उदय से होता है । अनन्तानुबन्धिकपाय का उदय पहले और दूसरे गुणस्थानक में ही होता है, तीसरे आदि गुणस्थानों में नहीं । इसी से तिर्यञ्चत्रिक आदि उक्त. पच्चीस कर्म - प्रकृतियाँ भी दूसरे गुणस्थान के चरमसमयपर्यन्त ही बाँधी जा सकती हैं, परन्तु तीसरे आदि गुणस्थानों में नहीं बाँधी जा सकतीं। तीसरे गुणस्थान के समय जीव का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जिस से उस समय श्रायु का वन्ध होने नहीं पाता । इसी से मनुष्य श्रायु तथा देव- श्रायु इन दो श्रायु का बन्ध भी तीसरे गुणस्थानक में नहीं होता। नरक - श्रायु तो नरकत्रिक-श्रादि पूर्वोक्त १६ - कर्म - प्रकृतियों मैं ही गिनी जा चुकी है तथा तिर्यञ्च श्रायु भी तिर्यञ्चत्रिकआदि पूर्वोक्त पच्चीस कर्म-प्रकृतियों में श्रा जाती है । इस प्रकार दूसरे गुणस्थान में बन्धयोग्य जो १०१ - कर्म- प्रकृतियाँ हैं उन मैं से तिर्यञ्चत्रिक श्रादि पूर्वोक्त २५ तथा मनुष्य- श्रायु और देव श्रायु कुल २७ - कर्म- प्रकृतियों के घट जाने से शेष ७४ कर्म प्रकृतियाँ तीसरे गुणस्थानक में बन्ध योग्य रहती हैं ॥ ४ ॥
सम्मे समसयार जिगाउबंधि, वदर नरतिग वियकसाया । उरल दुगंतो देसे, सत्तट्ठी तिक सायंतो ॥ ६ ॥
सम्यक्त्वे सप्तसप्तति जिनायुर्वन्धे, वज्रनरत्रिक द्वितीय कषाया श्रदारिकाद्विकान्तो देशे, सप्तपष्टिस्तृतीयकपायान्तः ॥ ६ ॥ तेवट्टि पमते सोग श्ररह, अथिर दुग अजसं अस्सायं ।