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(४०) बुच्छिज छच्च सत्तव, नेह सुराउं जयानिटं ॥ ७ ॥ त्रिषष्टिः प्रमत्ते शाकारत्यस्थिर द्विकायशोऽसातम् । । व्यवच्छिद्यते षट्न सप्त वा नयति सुरायुयंदा निष्ठाम् ॥७॥
गुणलहि अधमत्ते सुराउबंधंतु जइ इहागच्छे । अन्नह अट्ठावरणा जं आहारग दुगं बंधे ॥८॥ एकोनपाष्टरप्रमत्ते सुरायुर्वधनन् यदीहागच्छेत् । अन्यथाऽपञ्चाशयदाऽऽहारक द्विकं बन्धे ॥८॥
अर्थ-अविरतसम्यग्दृष्टिनामक चौधे गुणस्थान में ७७ फर्म-प्रकृतियों का बन्ध हो सकता है। क्योंकि तीसरगुणस्थान की बन्धयोग्य पूर्वोक्त ७४ कर्म-प्रकृतियों को, तथा जिननामफर्म, मनुष्य-श्रायु और देय प्रायु को चतुर्थ गुणस्थानंवर्ती जीव वाँध सकते हैं । देशविरति-नामक पाँचवे गुणस्थान में ६७ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध हो सकता है। क्योंकिपूर्वोक्त ७७-कर्म-प्रकृतियों में से वज्रऋषभनाराचसंहनन, मनुप्यत्रिक, अप्रत्याख्यानावरणचारकषाय और प्रादोरिकाद्वक इन १० कर्म-प्रकृतियों का वन्ध-विच्छेद चौथे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है । इस से चौथ गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में उन १० कर्म-प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । पाँचवे गुणस्थान के अंतिम समय में तीसरे चारकषायों का अर्थात् प्रत्याख्यानावरण-कषाय की चार प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद हो जाता है ॥ ६॥ अतएव पूर्वोक्त ६७-कर्म-प्रकृतियों में से उक्त चार कषायों के घटजाने से शेष६३ कर्म-प्रकृतियों का वन्ध प्रमत्त-संयत-नाम के छठे गुणस्थान में हो सकता है । छठे गुणस्थान के अंतिम समय में शोक, अरति, अस्थिरद्विक, अयश-कीर्तिनामकर्म और असातवेदनीय इन छः कर्म-प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इससे उन छः कर्म-प्रकृतियों का वन्ध छठे गुणस्थान से आगेके गुणस्थानों