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तथा बहुत कर नारक जीवों के, एकेन्द्रिय जीवों के और विकलेन्द्रिय जीवों के योग्य हैं । इसी से ये सोलह कर्म प्रकृतियाँ मिथ्यात्व - मोहनीयकर्म के उदय से ही बाँधी जाती हैं। मिथ्यात्व - मोहनीयकर्म का उदय पहले गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है दूसरे गुणस्थान के समय नहीं । श्रतएव मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से बँधनेवाली उक्त १६-कर्म-प्रकृतियों का बन्ध भी पहले गुणस्थान के अन्तिम समयतक हो सकता है दूसरे गुणस्थान के समय नहीं । इसी लिये पहले गुणस्थान में जिन ११७- कर्म - प्रकृतियों का वन्ध कहा गया है उन में से उक्त १६- कर्म- प्रकृतियों को छोड़ कर शेष १०१ - कर्म - प्रकृतियों का बन्ध दूसरे गुणस्थान में माना जाता है ।
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तिर्यञ्चत्रिकशब्द से तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्च श्रानुपूर्वी और तिर्यञ्चश्रायु इन तीन कर्म- प्रकृतियों का ग्रहण होता है । स्त्यानर्द्धित्रिक शब्द से निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानर्द्धि इन तीन कर्म - प्रकतियों का तथा दुर्भगत्रिक शब्द से दुर्भगनामकर्म, दुःखरनामकर्म और अनादेयनामकर्म इन तीन कर्म-प्रकृतियों का ग्रहण होता है । श्रनन्तानुबन्धि चतुष्कशब्द, अनन्तानुबन्धिक्रोध, अनन्तानुबन्धिमान, अनन्तानुबन्धि
माया और अनन्तानुबन्धिलोम इन चार कपायों का वो'धक- है । मध्यम संस्थान-चतुष्कशब्द -आदि के और अन्त के संस्थान को छोड़ मध्य के शेष चार संस्थानों का बोधक है । जैसे:-न्यग्रोधपरिमडल- संस्थान, सादिसंस्थान, वामनसंस्थान और कुव्जसंस्थान । इसी तरह मध्यम संहननचतुष्क शब्द से श्रादि और अन्त के संहनन के सिवा बाघ के चार संहनन ग्रहण किये जाते हैं। वे चार संहनन ये हैं