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उदीरणा रुक जाती है । इससे आगे के गुणस्थानों में उन आठ कर्म - प्रकृतियों की उदीरणा नहीं होती । वे आठ कर्मप्रकृतियाँ ये हैं- वेदनीय की दो प्रकृतियाँ ( २ ) श्राहारकद्विक ( ४ ) स्त्यानार्द्ध- त्रिक ( ७ ) और मनुष्य श्रायु ( ६ ) | चौदहवे गुणस्थान में वर्तमान प्रयोगिकेवलिभगवान् किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं करते ॥ २४ ॥
भावार्थ- पहले से छट्ठे पर्यन्त छःगुणस्थानों मे उदीरणा योग्य कर्म प्रकृतियाँ, उदय योग्य कर्मप्रकृतियों के बराबर ही होती हैं । जैले-पहले गुणस्थान में उदय योग्य तथा उदीरणा योग्य एक सौ सत्रह कर्म प्रकृतियाँ होती हैं । दूसरे गुणस्थान मे ११९ कर्म - प्रकृतियों का उदय तथा उदीरण होती है। तीसरे गुणस्थान में उदय और उदीरणा दोनों ही सौ सौ कर्म-प्रकृतियों के होते हैं । चौथे गुणस्थान में उदय १०४ कर्म-प्रकृतियों का और उदीरणा भी १०४ कर्म - प्रकृतियों की होती है। पांचवे गुणस्थान में ८७ कर्म - प्रकृतियों का उदय और ८७ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा होती है। तथा छडे गुणस्थान में उदय-योग्य भी ८१ कर्म-प्रकृतियाँ और उदीरणा-योग्य भी ८१ ही कर्म - प्रकृतियाँ होती हैं । परन्तु सातवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें पर्यन्त सात गुणस्थानों में उदय योग्य-कर्मप्रकृतियों की तथा उदीरणा-योग्य कर्म- प्रकृतियों की संख्या समान नहीं है । किन्तु उदीरणा-योग्य - कर्म- प्रकृतियाँ उदययोग्य कर्म-प्रकृतियों से तीन तीन कम होती हैं। इसका कारण यह है कि छुट्टे गुणस्थान के अन्तिम समय में उदयविच्छेद श्राहारकाद्वेक और स्त्यानर्द्धित्रिक- इन पांच प्रकृतियों का ही होता है । परन्तु उदीरणा-विच्छेद उक्त ५ प्रकृतियों के सिवाय वेदनीयद्विक तथा मनुष्य- श्रायु-इन तीन प्रकृतियों का भी होता है । छट्ठे गुणस्थान से श्रागे के