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________________ (७१) उदीरणाधिकार अव प्रत्येक गुणस्थान में जितनी जितनी कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा हो सकती है उन्हें दिखाते हैं : उदउखुदीरणा परमपमत्ताई सगगुणेसु ॥ २३ ॥ उदय इवोदीरणा परमप्रमत्तादिसप्तगुणेषु ॥ २३ ॥ अर्थ- यद्यपि उदीरणा उदय के समान है-अर्थात् जिस गुणस्थान में जितनी कर्म-प्रकृतियों का उदय होता है उस गुणस्थान में उतनी ही कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा भी होती है । तथापि सातवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान-पर्यन्त सात गुणस्थानों में उदय की अपेक्षा उदीरणा में कुछ विशेप है ॥ २३ ॥ उस विशेष को ही दिखाते हैं : एसा पयडि-तिगूणा वेयणियाहारजुगलथागतीगं । मणुयाउ पमत्ता अजोगि अगुंदीरगो भगवं ॥ २४॥ एषा प्रकृतित्रिकोना वेदनीयाहारक-युगलस्त्यानद्धित्रिकम् ।.. मनुजायुः प्रमत्तान्ता अयोग्यनुदीरको भगवान् ॥ २४ ॥ अर्थ-सातवे गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थानपर्यन्त, प्रत्येक गुणस्थान में उदीरणा-योग्य-कर्म-प्रकृतियाँ, उदयं-योग्य-कर्म-प्रकृतियों से तीन तीन कम होती है क्योकि छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में पाठ कर्म-प्रकृतियों की
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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