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नामकर्म । इस तरह उदय - योग्य १२२ कर्म - प्रकृतियों में बन्धननामकर्म तथा संघातन-नामकर्म के पांच पांच भेदों को मिलाने से और वर्णादिक के सामान्य चार भेदों के स्थान में उक्त प्रकार से २० भेदों के गिनने से कुल १४८ कर्म-प्रकृतियाँ सत्ताधिकार में होती है । इन सब कर्म-प्रकृतियों के स्वरूप की व्याख्या पहिले कर्मग्रन्थ से जान लेनी चाहिये ।
जिसने पहले, नरक की आयु का बन्ध कर लिया है और पीछे से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को पाकर उसके बल से तीर्थङ्कर नामकर्म को भी बाँध लिया है, वह जीव नरक में जाने के समय सम्यक्त्व का त्याग कर मिथ्यात्व को अवश्य ही प्राप्त करता है । ऐसे जीव की अपेक्षा से ही, पहिले गुणस्थाननामकर्म की सत्ता मानी जाती है। दूसरे या तीसरे गुणस्थान में वर्तमान कोई जीव, तीर्थहुरनामकर्म को बाँध नहीं सकता, क्योंकि उन दो गुणस्थानों में शुद्ध सम्यक्त्व ही नहीं होता जिससे कि तीर्थङ्करनामकर्म, बाँधा जा सके । इस प्रकार तीर्थङ्करनामकर्म को बाँध कर भी कोई जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर, दूसरे या तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर नहीं सकता । अतएव कहा गया है कि दूसरे और तीसरे गुणस्थान में तीर्थङ्करनामकर्म को छोड़, १४७ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता हो सकती है ॥
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पहले गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक ११ गुणस्थानों में से दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़ कर शेष नव गुणस्थानों में १४६ कर्म प्रकृतियों की सत्ता कही जाती है; सो योग्यता की अपेक्षा से समझना चाहिये । क्योंकि किसी भी जीव को एक समय में दो श्रयुध से
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अधिक आयु की सत्ता हो नहीं सकतीः परन्तु योग्यता संब