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कमों को हो सकती है जिससे सामग्री मिलने पर जो कर्म अभी वर्तमान नहीं है उसका भी बन्ध और सत्ता हो सके। इस प्रकार की योग्यता को सम्भव-सत्ता कहते हैं और वर्तमान कर्म को सत्ता को स्वरूप सत्ता ॥२५॥
चतुर्थ-श्रादि गुणस्थानों में प्रकारान्तर से भी सत्ता का वलन करते हैं:
अपुन्वाइ-चउक्के अण-तिरि-निरयाउ विणु वियाल संयं । संमाइ चउसु सत्तग-खर्यमि इगचत्त-सचमहवा ॥ २६ ॥ अपूर्वादिचतुष्कऽनतिर्यग्निरयायुर्विना द्वाचत्वारिंशच्छतम् । सम्यगादिचतुर्यु सप्तकक्षय एकचत्वारिंशच्छतमथवा ॥२६॥
अर्थ-१४८ कर्मप्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धि-चतुष्क तथा नरक और तियञ्चायु-इन छः के सिवा शेष १४२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता आठवे से लेकर ग्यारहवे गुणस्थानपर्यन्त चार गुणस्थानों में होती है । तथा अनन्तानुवन्धिचतुष्कोर दर्शन-प्रिक-इन सात कर्म-प्रकृतियों का क्षय हो जाने पर शष १४१ कम-प्रकृतियों की सत्ता चोथे से सातवें पर्यन्त चार गुणस्थानों में हो सकती है ॥२६॥
भावार्थ--पञ्चसंग्रह का सिद्धान्त है कि "जो जीव अनन्तानुबन्धिकषाय-चतुष्क की विसंयोजना नहीं करता वह उपशम-श्रेणि का प्रारम्भ नहीं कर सकता" । तथा यह ! सर्व सम्मत सिद्धान्त है कि "नरक की या तिर्यञ्च की आयु को वाँध कर जीव उपशम श्रेणि को नहीं कर सकता" । इन दो सिद्धान्तों के अनुसार १४२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता का पक्ष