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तक की विसंयोजीच को अष्टविसंयोजना, र
(७६) मामा जाता है, क्योंकि जो जीव अनन्तानुबन्धिपाय - चतुष्क की विसंयोजनाकर और देव-आयु कोबाँधकर उपशम श्रेणि को करता है उस जीव को अष्टम श्रादि ४ गुणस्थानों में १४२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता होती है । विसंयोजना, क्षय को ही कहते हैं। परन्तु क्षय और विसंयोजना में इतना ही अन्तर है कि क्षय में नष्टकर्म का फिर से सम्भव नहीं होता और विसंयोजना में होता है।
चौथे से लेकर सातवे पर्यन्त चार गुणस्थानों में वर्तमान जो जीव, क्षायिक-सम्यकत्वी है-अर्थात् जिन्होंने अनन्तानुबन्धिकपाय-चतुष्क और दर्शन-त्रिक-इन सात कर्म-प्रकतियों का क्षय किया है, उन की अपेक्षा से उफ्त चार गुणस्थानों में १४१ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता मानी गई है। क्षायिक-सम्यकत्वी होने पर भी जो चरम शरीरी नहीं हैअर्थात् जो उसी शरीर से मोक्ष को नहीं पा सकते हैं किन्तु जिनको मोक्ष के लिये जन्मान्तर :लेना बाकी है-उन जीवोंकी अपेक्षा से १४१ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता का पक्ष समझना चाहिये क्योंकि जो चरम शरीरी क्षायिक-सम्यकत्वी हैं उन को मनुष्य-श्रायु के अतिरिक्तं दूसरी बायु की न तो स्वरूपसत्ता है और न सम्भव-ससा ॥२६॥
अय क्षपक जीव की अपेक्षा से सत्ता का वणन करते हैं।
खवगंतु पप्प चउसुधि पणयालं नरयतिरिसुराउविणा । . सत्तगविणु अडतीसं ा अनियटी पढमभागो ॥ २७ ॥ क्षपकं तुप्राप्य चतुर्वपिपञ्चचत्वारिशन्नरकतिर्यसुरायुर्विना सप्तकं विनाष्टाविंशयावदमिवृचिप्रथमभागः ॥२७॥ .