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(८०) अर्थ-जो जीव क्षयक (क्षपकणि कर उसी अन्म में मोक्ष पानेवाला) है उसकी अपेक्षा से चौथ गुणस्थान से लेकर सातवें पर्यन्त चार गुणस्थनों में १४५ कर्म-प्रकृतियोंकी सत्ता पायी जाती है। क्योंकि उस क्षपक-जीव कोअर्थात् चरमंशरीरी जीव को-नरक-पायु, तिर्यञ्च-पायु और देव-आयु-इन तीन कर्म-प्रकृतियों की न तो स्वरूपसत्ता है और न सम्भव सत्ता । जो जीव क्षायिकसम्यकत्वी होकर क्षपक है, उसकी अपेक्षा से चौथे गुणस्थान से लेकर नववे गुणस्थान के प्रथम-भाग-पर्यन्त · उक्त तीन प्रायु, अनन्तानुवन्धि-कषायचतुष्क और दर्शन-त्रिक-इन दस को छोड़कर.९४८ में से शेष १३८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता पायी. जाती है ॥ २७ ॥ . . . भावार्थ-जो जीर, वर्तमान-जन्म में ही क्षपकआणि कर सकते हैं, वे क्षपक या चरम-शरीरी कहाते हैं। उनको मनुष्य-श्रायु ही सत्ता में रहती है दूसरी प्राय नहीं । इस तरह उनको प्रागे भी दूसरी आयु की सत्ता होने की सम्भावना नहीं है । इसलिये उन क्षपक-जीवों को मनुष्यआयु के सिवा अन्य प्रायुओं की न तो स्वरूप-सत्ता है और न सम्भव-सत्ता । इसी अपेक्षा से पक जीवों को १४५ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता कही हुई है। परन्तु क्षपक-जीवों में जो क्षायिक-सम्यकत्वी हैं उनको अनन्तानुवन्धि-श्रादि सांत कर्म-प्रकृतियों का भी तय हो जाता है। इसीलिये दायिक-सम्यकत्वी क्षपक-जीवों को १३८ कर्म:प्रकृतियों को सत्ता कही हुई है । जो जीव, वर्तमान जन्म में 'ज्ञपकणि • नहीं कर सकते, वे अचरम-शरीरी कहाते हैं। उनमें कुछ क्षायिक-सम्यकत्वीभी होते हैं और कुछ औपशमिकसम्यकत्वी तथा कुछ क्षायोपशमिक-सम्यकत्वी । २५वीं गाथा में १४८