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पंञ्चाशतिस्सयोगिन्ययोगिनि द्विचरमे. देवखगतिगम्भरिकम् । स्पर्षाष्टक-वर्णरसबंधनसंघातनंपञ्चकनिर्माणम् ॥ ३१ ॥.. संघयणग्रंथिरसंठाण-छक्कगुरुल हुचउअपज्जत । सायं घ असायं वा परित्तुवंगतिगमुसरनियं ॥ ३२॥..:: संहननास्थिरसंस्थानषद्कागुरुलघुचतुष्कापर्याप्तम् । सात वाऽसात वा. प्रत्येकोपाङ्गत्रिकसुस्वरनीचम् ॥ ३२ ॥ विसयरिखो यं चरिमे तेरस मणुयतसतिग-अंसाइज । सुभगाजेणुञ्चपणिदिय-सायासाएगयरछेप्रो ॥ ३३ ॥ 'द्वासप्ततिक्षयश्च घरमें त्रयोदश मनुजनसत्रिकयशश्रादेयम् । सुभगजिनोच्चपञ्चेन्द्रिय-सातासातैकतरच्छेदः॥ ३३ ॥
अर्थ-नववे गुणस्थान के नवं भागों में से पहिले भाग में १३८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता पूर्व गाथा में कहीं हुई है। उन में से स्थावर-द्विक (स्थावर और सूक्ष्मनामकर्म):२ तिर्यञ्च द्विक ( तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्च-आनुपूर्वीनामकर्म) ४, नरकद्विक-(नरकगति और नरक-श्रानुपूर्वी) ६ प्रातपद्विका-(प्रातपनामकर्म और उद्योतनामकर्म) ६ स्त्यानार्द्ध-त्रिक-(निद्रानिद्रा, चलाप्रचला और स्त्याना ११, एकेन्द्रियजातिनामकर्म १२, विकलेन्द्रिय-(द्वौन्द्रिय श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय-जातिनामकर्म ) १५ और साधी रणनामकर्म १६-इन सोलह कर्म-प्रकृतियों का क्षय प्रथम भाग के अन्तिम समय में हो जाता है। इस से दूसरे भागमें १२२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता शेष रहती है । तथा १२२३ से अप्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण ..काय-चतुष्क-इन आठ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता का क्षर दूसरे भाग के अन्तिम समय में हो जाता है ।:२६॥ ..