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________________ (२३) अर्थ-अतएव, तीसरे भाग में ११४ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता रहती है । तीसरे भाग के अन्तिम-समय में नपुंसकवेदका क्षय हो जाने से, चौथे भाग में ११३ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इस प्रकार चौथे भाग के अन्तिम समय में स्त्रीघेद का अभाव होने से पाँचवें भाग में ११२, पाँचवें भाग के अन्तिम-समय में हास्य-पदक का क्षय होने से छठे भाग में १०६, छठे भाग के चरम समय में पुरुष-वेद का अभाव हो जाता है इस से सातवें भाग में १०५, सातवें भाग के अन्तिम समय में संज्वलनसोध का क्षय होने से आठवें भाग में १०४ औरानाठवें भाग के अन्तिम समय में संज्वलनमान का अभाव होने से नवर्वे भाग में १०३ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता शेषरहती है।तथा नववे गुणस्थान के नवम भाग के अन्तिमसमय में संज्वलन-माया का क्षय हो जाता है ॥२६॥ अर्थ-अतएव, दसवें गुणस्थान में १०२ कर्म-महतियों की सत्ता रहती है। दस गुणस्थान के अन्तिम-समय में लोभ का प्रभाव होता है, इस से बारहवें गुणस्थान के द्वियरम-समय-पर्यन्त १०१ कर्म-प्रकृतियों की ससा पायी जाती है। द्विचरम-समय में निद्रा और प्रचला-इन २ कर्मप्रकृतियों का क्षय हो जाता है जिससे यारहवे गुणस्थान के अन्तिम समय में ६६ कर्मप्रकृतियाँ सत्तागत रहती हैं। इन " ६६ में से ५ ज्ञानावरण, ५ अन्तराय और ४ दर्शनावरण-इन १४ कर्म-प्रकृतियों का क्षयधारहवे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है ॥ ३०॥ अर्थ-अतएव, तेरहवें गुणस्थान में और चौदहवें गुणस्थान के विचरम-समय-पर्यन्त ८५ कर्म-अहतियों की सशा शेष
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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