________________
(६३) उदय ग्यारहवें गुणस्थान में हो सकता है। इन ५६ कर्मप्रकृतियों में से ऋषभनाराचसंहनन और नाराचसंहनन इन दो कर्म-प्रकृतियों का उदय, ग्यारहवें गुणस्थान के अन्तिमसमय-पर्यन्त ही होता है ॥१६॥
भावार्थ-जो मुनि, सम्यकत्वमोहनीय का उपशम या क्षय करता है वही सातवे गुणस्थान से प्रागे के गुणस्थानों को पा सकता है, दूसरा नहीं। इसोसे ऊपर कहा गया है कि सातवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक में सम्यकत्वमोहनीय का उदय-विच्छेद हो जाता है । इस प्रकार अर्ध. नाराच, कीलिका और सेवात इन तीन अन्तिम संहननों का उदय-विच्छेद भी सातवे गुणस्थान के अन्त तक हो जाता हैअर्थात् अन्तिम तीन संहननवाले जीव, सातवें गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ सकते। इसका कारण यह है कि जो श्रेणि कर सकते हैं वे ही पाठवे आदि गुणस्थानों को प्राप्त कर सकते हैं पस्तु श्रेणि को प्रथम तीन संहननवाले ही कर सकते हैं, अन्तिम तीन संहननवाले नहीं । इसी से उक्त सम्यकत्वमोहनीय आदि ४ कर्म-प्रकृतियों को सातवें गुणस्थान की ७६ कर्म-प्रकृतियों में से घटाकर शेष ७२ कर्म-प्रकृतियों का उदय पाठवे गुणस्थान में माना जाता है।
नववे गुणस्थान से लेकर भागे के गुणस्थानों में अध्यवसाय इतने विशुद्ध हो जाते हैं कि जिस से गुणस्थानों में वर्तमान जीवों को हास्य, रति आदि उपर्युक्त ६ कर्म-प्रकृतियों का उदय होने नहीं पाता । अतएव कहा गया है कि पाठवें गुणस्थान की उदय-योग्य ७२ कर्म-प्रकृतियों में से हास्य-श्रादि ६ प्रकृतियों को छोड़ .