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नाठवे गुणस्थान में होकर नवर्वे गुणस्थान को प्राप्त करता है और नववे गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम शुरू करता है । सब से पहले वह नपुंसकवेद को उपशान्त करता है । इस के बाद स्त्रीवेद को उपशान्त करता है । इसके श्रनन्तर क्रमसे हास्यादि-पट्क को, पुरुषवेद को अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण- क्रोध-युगल को, सञ्चलन क्रोध को, अप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण- मान-युगल को संज्वलन मान को, श्रप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरणमाया- युगल को, संज्वलन माया को और अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरण-लोभ- युंगल को नववे गुणस्थान के अन्त तक में उपशान्त करता है । तथा वह संज्वलन लोभ को -दसवे गुणस्थान में उपशान्त करता है ॥१६॥
क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान
जिन्हों ने मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय किया है, परन्तु शेष छद्म - ( घाति कर्म) अभी विद्यमान हैं वे क्षीण-कपाय- वीतराग - छद्मस्थ, कहाते हैं और उनका स्वरूप - विशेष क्षीणकपायवतिरागछद्मस्थगुणस्थान कहाता है । बारहवे गुणस्थान के इस नाम में ९ क्षीण-कपाय, २ वीतराग और ३छद्मस्थये तीन विशेषण हैं और ये तीनों विशेषण व्यावर्तक है । क्योंकि " क्षीणकषाय " क्षीणकषाय " इस विशेषण के श्रभाव में ' वीतरागछद्मस्थ इतने नाम से बारहवें गुणस्थान, के अतिरिक्त ग्यारहवे गुणस्थान का भी बोध होता है । और " क्षीणकषाय". इस विशेषण से केवल वारहवे गुणस्थान का ही बोध होता है, क्योंकि ग्यारहवे गुणस्थान में कपाय क्षीण नहीं होते, किन्तु उपशान्त मात्र होते हैं ।
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