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तथा " वीतराग "इस विशेषण के अभाव में भी क्षीणकषायछमस्थगुणस्थान इतना ही नाम बारहवे गुणस्थान का ही बोधक नहीं होता किन्तु चतुर्थ श्रादि गुणस्थानों का भी घोंधक हो जाता है; क्योंकि उन गुणस्थानों में भी अनन्तानुबन्धि श्रादि कपायों का क्षय हो सकता है। परन्तु ''वीत. राग" इस विशेषण के होने से उन चतुर्थ-श्रादि गुणस्थानों का बोध नहीं हो सकता। क्योंकि उन गुणस्थानों में किसीन किसी अंशमें राग का उदय रहता ही है। अतएव वीतरागत्व असंभव है। इस प्रकार"छमस्थ"इस विशेषण के न रहने से भो "क्षीणकपाय धीतराग" इतना नाम यारहवें गुणस्थान के अतिरिक्त तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का भी बोधक हो जाता है । परन्तु "छमस्थ" इस विशेषण के रहने से बारहवें गुणस्थान का ही बोध होता है। क्योंकि तेरहवें और चौदहवे गुणस्थान में वर्तमान जीव को छम (घातिकर्म) नहीं होता।
क्षपक श्रेणि कारण को करनेवाला किसी भी गुणक इन
• चारहवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण मानी जाती है । बारहवें गुणस्थान में धर्तमान जीव क्षपक-श्रेणि घाले ही होते हैं। · क्षपक श्रेणि का फ्रम संक्षेप में इस प्रकार है:__जो जीव क्षपक-श्रेणि को करनेवाला होता है वह चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में सबसे पहले अनन्तानुवन्धि-चतुक और दर्शन-त्रिक इन सात कर्म-प्रकृतियाँका क्षय करता है । और इसके बाद आठवें गुणरथान में अप्रत्याख्यानावरण-कपाय-चतुष्क तथा प्रत्याख्यानावरण-कंपाय-चतुष्क इन पाठ कर्म-प्रकृतियों के.