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क्षय का प्रारम्भ करता है । तथा ये अाठ प्रकृतियाँ पूर्ण क्षीण नहीं होने पाती कि बीचमें ही नववं गुणस्थान के प्रारम्भ में १६ प्रकृतियों का क्षय कर डालता है । वे प्रकृतियाँ ये हैं-स्त्यानाई-निक ३, नरक-द्विक ५, तिर्यग्-द्विक७, जाति चतुष्क११, पातप१२, उद्योत१३, स्थावर१४, सूक्ष्म १५ और साधारण १६, इसके अनन्तर वह अप्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क का तथा प्रत्याख्यानावरण-कपाय-चतुष्क का शेष भाग,जो कि क्षय होने से अभी तक बचा हुआ है,उसका , क्षय करता है। और अनन्तर नववे गुणस्थान के अन्त में क्रम से नपुंसकवेद का, स्त्रीवेद का, हास्यादि-पदक का, पुरुषवेद का, संज्वलन क्रोध का, संज्वलन मान का और संज्वलन माया का क्षय करता है । तथा अन्त में संज्वलन लोभ का क्षय वह दसवें गुणस्थान में करता है ॥१२॥
सयोगिकेवलिगुणस्थान-जिन्हों ने भानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया है और जो योग के सहित हैं वे सयोगि-केवली कहाते हैं तथा उनका स्वरूपविशेष सयोगिकेवलिगुणस्थान कहाता है।
आत्म-वीर्य, शक्ति. उत्साह, पराक्रम और.योग इन सब, शब्दो का मतलब एक ही है । मन, वचन और काय इन तीन साधनों से योग की प्रवृत्ति होती है श्रतएव योग के भी अपने साधन के अनुसार तीन भेद होते हैं । जैसे-१ मनोयोग, २ वचनयोग और ३ काययोग । केवलिभगवान् को मनोयोग का उपयोग किसी को मन से उत्तर देने में करना पड़ता है । जिस समय कोई मनःपर्यायशानीअथवा