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देशविरति के ११ भेद गोम्मटसार (जी० गा०४७६) में हैं। जैसा--(१) दर्शन, (२) व्रत, (३) सामायिक, (४) प्रोषध (५) सचित्तविरति, (६) रात्रिभोजन-विरति, (७) ब्रह्मचर्य, (८) आरम्भविरति, (६) परिग्रहविरति,(१०) अनुमतिविरति,
और (११)उहिटविरति । इस में प्रोषध'शब्द श्वेताम्वरसम्म दाय प्रसिद्ध पौषध'शब्द के स्थान में है। . :
गुणस्थान के क्रम से जांवों के पुण्य, पाप दो भेद हैं। मिथ्यात्वी या मिथ्यात्वोन्मुख जीवों को पापजीव और सम्य. परवी जीवों को पुण्यजीव कहा है।
(गो. जीगा० ६२१ )
उदयाधिकार में प्रत्येक गुणस्थान में उदययोग्य प्रकृतियों की जो जो संख्या कही हुई है, वह सब गोम्मटसार में उल्लिखित भूतबलि प्राचार्य के मत के साथ मिलती है । परन्तु उसी प्रन्थ (कर्म० गा० २६३-२६४ ) में जो यतिषभाचार्य के मत का उल्लेख किया है उसके साथ कहीं कहीं नहीं मिलती। पहले गुणस्थान में यतिवृषभाचार्य ११२ प्रकृतियों का उदय और चौदहवे गुणस्थान में १३प्रकृतियों का उदय मानते हैं । परन्तु कर्मग्रन्थ में पहिले गुणस्थान में ११७ प्रकृतियों का और चौदहवे गुणस्थान में १२ प्रकृतियों का उदय माना है।
'कर्मग्रन्थ में दूसरे गुणस्थान में तीर्थङ्करनामकर्म के सिवाय १४७ प्रकृतियों की सत्ता मानी हुई है, परन्तु गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) में आहारकद्विक और तीर्थङ्करनामकर्म, इन तीन प्रकृतियों के सिवाय १४५ ही की सत्ता उस गुण