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सकते हैं। परन्तु "वीतराग" इस विशेषण के रहने से चतुर्थपञ्चम-श्रादि गुणस्थानों का बोध नहीं हो सकता; क्यों कि उन गुणस्थानों में वर्तमान जीय कोराग के (मायातथा लोभ के) उदय का सद्भाव ही होता है, अतएव वीतरागत्व असंभव है।
इस ग्यारह गुणस्थान की स्थिति अघन्य एक समय प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त प्रमाण मानी जाती है।
इस गुणस्थान में वर्तमान जीव धागे के गुणस्थानों को प्राप्त करने के लिये समर्थ नहीं होता; क्यों कि जो जीव क्षपक-श्रेणि को करताहै वही आगे के गुणस्थानों को पासकता है । परन्तु ग्यारहवें गुणंस्थान में वर्तमान जीव तो नियम से उपशम-श्रेणि करनेवाला ही होता है, अतएव वह जीव ग्यारहवें गुणस्थान से अवश्य ही गिरता है । गुणस्थान का समय पूरा न हो जाने पर भी जो जीव भव के (आयु के) क्षयसे गिरता है वह अनुत्तर विमान में देवरूप से उत्पन्न होता है
और चौथे ही गुणस्थान को प्राप्त करता है। क्योंकि उस स्थान में चौथे के सिवा अन्यगुणस्थानों का सम्भव नहीं है। चौथे गुणस्थान को प्राप्त कर वह जीव उस गुणस्थान में जितनी कर्मप्रकृतियों के बन्ध का, उदय कातथाउंदीरणा का सम्भव है उन सब कर्म-प्रकृतियों के वन्ध को, उदय को और उदीरणा को एक साथ शुरू कर देता है। परन्तु आयु के रहते हुए भी गुणस्थान का समय पूरा हो जाने से जो जीव गिरता है वह प्रारोहण-क्रम के अनुसार, पतन के समय, गुणस्थानों को प्राप्त करता है-अर्थात् उसने प्रारोहण के समय जिस जिस गुणस्थान को पाकर जिन जिन कर्म प्रकृतियों के धन्ध का, उदय का और उदीरणा का विच्छेद किया हुश्रा होता है, गिरने के