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( १६) दलिकी को संक्रमण होता है । इस प्रकार जव तक गुणसंक्रमण होता रहता है तब तक पूर्व पूर्व समय में संक्रमण किये गये दलिकों से उत्तर उत्तर समय में असंख्यात गुणअधिक दलिको का ही संक्रमण होता है। ... ५-पहले की अपेक्षा अत्यन्त अल्प-स्थिति के कर्मों को बाँधना "त्रपूर्वस्थितिवन्ध" कहलाता है।
ये स्थितिघात-आदि पाँच पदार्थ, यद्यपि पहले के गुणस्थानों में भी होते हैं, तथापि आठवें गुणस्थान में वे अर्पूक ही होते हैं। क्यों कि पहले के गुणस्थानों में अध्यवसायों को जितनी शुद्धि होती है उसकी अपेक्षा आठवें गुणस्थान में 'अध्यवसायों की शुद्धि अत्यन्त अधिक होती है । अतएव पहलेके गुणस्थानों में बहुत कम स्थिति का और अतिअल्प रस का घात होता है । परन्तु पाठवें गुणस्थान में अधिकस्थिंति का तथा अधिक रस का घात होता है । इसी तरह एहले के गुणस्थानों में गुणश्रेणि की काल-मर्यादा अधिक होती है, तथा जिन दलिकों की गुण श्रेणि (रचना या स्थापना) की जाती है वे दलिक भी अल्प ही होते है और पाठवें गुणस्थान में गुणश्रेणि-योग्य-दलिक तो बहुत अधिक होते हैं, परन्तु गुणश्रेणि का काल-मान बहुत कम होता है। तथा पहले गुणस्थानों की अपेक्षा आठवे गुणस्थान में गुणसंक्रमण भी बहुत कर्मों का होता है, अतएव यह अपूर्व होता है। और
आठवें गुणस्थान में इतनी अल्प स्थिति के कर्म बौधे जाते . . हैं कि जितनी. अल्प-स्थिति के कर्म पहले के गुणस्थानों में
कदापि नहीं बँधते । इस प्रकार उक्त स्थितिघात-आदि पदाथों का अपूर्व विधान होने से इस पाठवै गुणस्थान का दूस 'रानाम “अपूर्व करण" गुणस्थान यह भी शास्त्र में प्रसिद्ध है।