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सयलंगेक्कंगेक्कंगहियार सवित्थरं ससंखे । वरणणसत्थ थयथुइधम्मकहा होइ जियमेण ॥
(गो. कर्म. गा. ) अर्थात् किसी विषय के समस्त अंगों का विस्तार यो संक्षप से वर्णन करनेवाला शास्त्र 'स्तव' कहाता है । एक अंर्ग का विस्तार या संक्षेप से वर्णन करनेवाली शास्त्र 'स्तुति' और एक अंग के किसी अधिकार का वर्णनं जिसमें है वह शास्त्र 'धर्मकथा' कहाता है। '
इस प्रकार विषय और नामकरण दोनों तुल्यप्रार्य होने पर भी नामार्थ में जो भेद पाया जाता है, वह सम्प्रदाय-भेद तथा ग्रन्थं-रचना-सम्बन्धी देश-काल के भेद का परिणाम जान पड़ता है।
गुणस्थान का संक्षिप्त सामान्य-स्वरूप।
आत्मा की अवस्था किसी समय अज्ञान-पूर्ण होती है। वह अवस्था सब से प्रथम होने के कारण निकृष्ट है । उस अवस्था से आत्मा अपने स्वाभाविक चेतना, चारित्र आदि गुणों के विकास की बदौलत निकलता है, और धीरे धीरे • उन शक्तियों के विकास के अनुसार उत्क्रान्ति करता हुआ विकास की पूर्णकला-अंन्तिम हद-को पहुँच जाता है । पहली निकृष्ट अवस्था से निकल कर, विकास को आखरी भूमि को पाना ही प्रात्मा का परम साध्य है। इस परमसाध्य की सिद्धि होने तक आत्मा को एक के बाद दूसरी, दूसरी के