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उनको समुद्धात करने की आवश्यकता नहीं है । श्रतएव वे समुद्धात को करते भी नहीं ।
सभी केवलज्ञानी भगवान् सयोगि अवस्था के अन्त में एक ऐसे ध्यान के लिये योगों का निरोध करते हैं, जो कि परम- निर्जरा का कारणभूत तथा लेश्या से रहित और अत्यन्तस्थिरतारूप होता है ।
योगों के निरोध का क्रम इस प्रकार है:
पहले बादर काययोग से बादर मनोयोग तथा वादरवचन
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योग को रोकते हैं । श्रनन्तर सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग को रोकते हैं, और पीछे उसी सूक्ष्म काययोग से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग को तथा सूक्ष्म वचनयोग को रोकते हैं । अन्त में वे केवलज्ञानो भगवान्, सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्ति-शुक्लध्यान के बल से सूक्ष्म काययोग को भी रोक देते हैं । इस तरह सब योगों का निरोध हो जाने से केवलज्ञानी भगवान् प्रयोगी बन जाते हैं । और उसी सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्ति- शुक्लध्यान की सहायता से अपने शरीर के भीतरी पोले भाग को -मुख, उदर- श्रादि भाग को - आत्मा के प्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं । उनके श्रात्म- प्रदेश इतने संकुचित हो जाते हैं कि वे शरीर के तीसरे हिस्से में ही समा जाते हैं। इसके बाद वे प्रयोगिकेवलिभगवान् समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति-शुक्लध्यान को प्राप्त करते हैं और मध्यम रीति से पाँच हस्व अक्षरों के उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय का “शैलेशी करण" करते हैं । सुमेरु पर्वत के समान निश्चल अवस्थाश्रथवा सर्व संवर-रूप योग निरोध अवस्थाको “ शैलेशी " कहते हैं । तथा उस अवस्था में वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म
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