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५-ज्ञानावरण और अन्तराय इन १६ - कर्म प्रकृतियों का बन्धविच्छेद दसवें गुणस्थान के अन्त में होता है । इससे केवल सातावेदनीय कर्म-प्रकृति शेष रहती है । उस का वन्ध ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवे गुणस्थान में होता है। तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में सातवेइनीय का बन्ध भी रुक जाता है इससे चौदहवे गुणस्थान में किसी भी प्रकृतिका वन्ध नहीं होता। अर्थात् - अवन्धक अवस्था प्राप्त होती है । इस प्रकार जिन जिन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का जहाँ जहाँ अन्त ( विच्छेद ) होता है और जहाँ जहाँ अन्त नहीं होता; उस का वर्णन हो चुका ॥|१२||
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भावार्थ - ४ - दर्शनावरण आदि जो १६कमे - प्रकृतियाँ ऊपर दिखाई गई हैं उनका बन्ध कषाय के उदयसे होता है और दसवे गुणस्थान से श्रागे कषाय का उदय नहीं होता; इसी से उक्त सोलह कर्म प्रकृतियों का बन्ध भी दसवे गुणस्थान तक ही होता है । यह सामान्य नियम है कि कपाय का उदय कषाय के बन्ध का कारण होता है और दसवे गुणस्थान में लोभका उदय रहता है । इस लिये उस गुणस्थान में उक्त नियम के अनुसार लोभ का बन्ध होना चाहिये । ऐसी शङ्का यद्यपि हो सकती है; तथापि इस का समाधान यह है कि स्थूल-लोभ के उदय से लोभ का वन्ध होता है; सूक्ष्म- लोभ के उदय से नहीं । दसर्वे गुणस्थान में तो सूक्ष्मलोभ का ही उदय रहता है । इसलिये उस गुणस्थान में लोभ का बन्ध माना नहीं जाता ।
ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थान में सात वेदनीय का बन्ध होता है, सो भी योग के निमित्त से क्योंकि उन गुणस्थानों में