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कषायोदय का सर्वथा अभाव ही होता है । श्रतएव योग-मात्र से होनेवाला वह सात वेदनीय का बन्ध, मात्र दो समयों की स्थिति का ही होता है ।
alana गुणस्थान में योग का अभाव हो जाता है, इसी से सात वेदनीय का बन्ध भी उस गुणस्थान में नहीं होता, और बन्धकत्व अवस्था प्राप्त होती है । जिन कर्म- प्रकृतियों का बन्ध जितने कारणों से होता है, उतने कारणों के रहने तक हो, उन कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता रहता है । और उतने कारणों में से किसी एक कारण के कम हो जाने से भी, उन कर्म - प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । शेष सब कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । जैसे:-नरकत्रिक यादि पूर्वोत १६ कर्म- प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व, श्रविरति, कषाय श्रौर योग, इन चार कारणों से होता है। ये चारों कारण पहले गुणस्थान के चरमसमयपर्यन्त रहते हैं इस लिये उक्त १६ कर्म प्रकृतियों का बन्ध भी उस समयपर्यन्त हो सकता है, परन्तु पहले गुणस्थान से श्रागे मिथ्यात्व - श्रादि उक्त चार कारणां में से मिध्यात्व नहीं रहता, इस से नरकत्रिक आदे पूर्वोक्त १६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी पहले गुणस्थान से आगे नहीं होता; और सब कर्म - प्रकृतियों का यन्ध यथासम्भव होता ही है । इस प्रकार दूसरी २ कर्म - प्रकृतियों के चन्ध का अन्त ( विच्छेद) और अन्ताभाव ( विच्छेदाभाव) ये दोनों, यन्ध के हेतु के विच्छेद और श्रविच्छेद पर निर्भर हैं ॥१२॥
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वन्धाधिकार समाप्त ॥