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औपशामिक सम्यक्त्व कहाता है। श्रीपशमिक सम्यक्त्य उतने काल तक रहताहै जितने कालतक के उदय योग्य दलिक आगे पीछे करलिये जाते हैं। पहले ही कहा जा चुका है कि अन्तर्मुहर्त पर्यन्त वेदनीय दलिकों को श्रागे पीछे कर दिया जाता है इससे यह भीसिद्धहै कि श्रीपशमिक सम्यक्त्व अन्तर्मुहर्त पर्यन्त रहता है।इस औपशामिक सम्यक्त्व के प्राप्त होते ही जीवको पदार्थों की स्फुट या असंदिग्ध प्रतीति होती है, जैसे कि जन्मान्ध -मनुष्य को नेत्रलाभ होने पर होती है। तथा औपशमिर्क सम्यक्त्व प्राप्त होते ही मिथ्यात्व-रूप महानरोग हट जाने से जीव को ऐसा अपूर्व प्रानन्द अनुभव में श्रांता है जैसा कि किसी वीमारको अच्छी औषधि के सेवन से बीमारी के हटजाने पर अनुभव में आता है । इस औपशमिक सम्यक्त्व के काल को उपशान्ताद्धा तथा अन्तरकरण काल कहते हैं । प्रथम स्थिति के चरम समय में अर्थात् उपशान्ताद्धा के पूर्व समय में,जीव विशुद्ध परिणाम से उस मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है जो कि उपशान्ताद्धा के पूरा हो जाने के बाद उदय में श्राने वाला है। जिस प्रकार कोद्गव धान्य (कोदो नामक धान्य) औषधि विशेष से साफ किया जाता है, तब उसका एक भाग इतना शुद्ध हो जाता है जिससे कि खाने वाले को नशा नहीं होता कुछ भाग शुद्ध होता है परन्तु विल्कुल शुद्ध नहीं होता, अर्द्ध शुद्ध सा रह जाता है । और कोद्रव का कुछ भाग तो अशुद्धही रह जाता है जिससे कि खाने वाले को नशा हो पाता है। इसी प्रकार द्वितीय स्थितिगत-मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के तीन पुओं (भागों) में से एक पुंज तो इतना विशुद्ध हो जाता है, कि उस में सम्यक्त्वघातकरसं (सम्यक्त्वनाशकशक्ति) का अभाव हो जाता है । दूसरा पुञ्ज प्राधाशुद्ध (शुद्धाशुद्ध) हो जाता