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(१४) वे सब धुणाक्षरन्याय से व्रतों को पाल भी लें तथापि उस से फलका सम्भव नहीं है । उन्न सात प्रकार के अविरतों में से पहले चार प्रकार के अविरत-जीव तो मिथ्यावृष्टि ही है । क्यों कि उनको व्रतोका यथार्थ ज्ञान ही नहीं है । और पिछले तीन प्रकार के अविरत जीव सस्यग्दृष्टि हैं । क्यों कि वे व्रतों को यथाविधि ग्रहण तथा पालन नहीं कर सकते, तथापि उन्हें यथार्थ जानते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि जीवों में भी कोई औपशभिक-सम्यक्त्वी होते हैं, कोई क्षायोपशमिकसम्यक्त्वी होते हैं और कोई प्रायिक-सम्यक्त्वी होते हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि जीव व्रत-नियम को यथावत् जानते हुये भी स्वीकार तथा पालन नहीं कर सकते क्योंकि उनको अप्रत्याख्यानावरण-कपाय का उदय रहता है, और यह उदय चारित्रके ग्रहण तथा पालन का प्रतिबंधक(रोकने वाला)ह॥४॥
देशविरतगुणस्थान-प्रत्याख्यानावरण कपाय के उदय के कारण जो जीव, पाप जनक क्रियाओं से बिलकुल नहीं किन्तु देश (अंश) से अलग हो सकते हैं वे देशविरत या श्रावक कहलाते हैं। और उनका स्वरूप-विशेष देशविरत गुण स्थान । कोई श्रावक एक व्रत को ग्रहण करता है, और कोई दो व्रत को । इस प्रकार अधिक से अधिक व्रत को पालन करने वाले श्रावक ऐसे भी होते हैं जो कि पापकार्यों में अनु-' मति के सिवा और किसी प्रकार से भाग नहीं लेते अनुमति तीन प्रकार की है जैसे-१-प्रतिसेवनानुमति, २-प्रतिश्रवणा - नुमति और ३-संवालानुमति । अपने या दूसरे के किये हुये भोजन आदि का उपभोग करना "प्रतिसेवनानुमति" कहाती है । पुत्र-श्रादि किसी संबन्धि के द्वारा किये गये पाप कर्मों को केवल सुनना,और सुन कर भी उन कामों के करने