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________________ (३३) जनाने के लिये कर्म-ग्रहण-मात्र को बन्ध न कह कर, गाथा में अभिनव-कर्म-ग्रहण को बन्ध कहा है । जीव के मिथ्यात्वआदि परिणामों के अनुसार कर्म-पुद्गल १२० रूपों में परिणत हो सकते हैं इसीसे १२०-कर्म-प्रकृतियाँ बन्ध योग्य मानी जाती हैं धीप कोई एक जीव किसी भी अवस्था में एक समय में कर्म-पुद्गलों को १२० रूपों में परिणत नहीं कर सकता-अर्थात् १२० कर्म प्रकृतियों को बाँध नहीं सकता; परन्तु अनेक जीव एक समय में ही१२०कर्म-प्रकृतियों को बाँध सकते हैं।इसी तरह एक जीव भी जुदी जुदी अवस्था में जुदे जुदे समय सब मिला कर १२० कर्म-प्रकृतियों को भी बाँध सकता है । अतएर ऊपर कहा गया है कि किसी खास गुणस्थानकी, और किसी खास जीव की विवक्षा किये विना बन्ध-योग्य कर्म-प्रकृतियाँ १२०-मानी जाती हैं । इसीसे १२०-कर्म-प्रकृतियों के बन्ध को सामान्य बन्ध या ओघ-बन्ध कहते हैं। - बन्ध-योग्य १२० कर्म-प्रकृतियाँ ये हैं:१–ज्ञानावरण की ५-कर्म-प्रकृतियाँ, जैसे;-(१)मतिशानावरण,(२)श्रुतज्ञानावरण,(३)अवधिज्ञानावरण,(४)मनः पर्याय ज्ञानावरण और (५) केवलज्ञानावरण । २- दर्शनावरण की प्रकृतियाँ, जैसे:-(१) चक्षुर्दर्शना चरण,(२)श्रचक्षुर्दर्शनावरण;(३'अवधिदर्शनावरण, (४)केवलदर्शनावरण,(५)निद्रा,(६)निद्रानिद्रा,(७) प्रचला, (८) प्रचला. प्रचला और (E)स्त्यानाई।। ३. वेदनीय की २-प्रकृतियाँ,जैसे:-(१) सातवेदनीय और (२) असातवेदनीय ।।. . ..
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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