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(८६) कर्म-प्रकृतियों को ही सत्ता रहती है। क्योंकि देव-द्विक आदि पूर्वोक्त ७२ कर्मप्रकृतियाँ, जिनका कि उदय नहीं है वे जिसप्रकार द्विचरम समय में स्तिवुकसंक्रम द्वारा उदयवती कर्मप्रकृतियों में संक्रान्त होकर, क्षीण हो जाती हैं इसी प्रकार उदय न होने के कारण मनुष्यानुपूर्वी. भी द्विचरम-समयमें ही स्तिबुकसक्रम-द्वारा उदयवती कर्म-प्रकृतियों में संक्रान्त हो जाती है । इसलिये द्विचरम-समय में उदयवती कर्म-प्रकृति में संक्रान्त पूर्वोक्तं देव-द्विक श्रादि ७२ कर्मप्रकृतियों की सत्ता चरम-समय में जैसे नहीं मानी जाती है वैसे ही द्विचरम-समय में उद्यवती कर्म-प्रकृति में संक्रान्त मनुष्य-श्रानुपूर्वी की सत्ता को भी चरम-लमय में न मानना ठीक है।
(अनुदयवती कर्म-प्रकृति के दलिंकों को सजातीय और तुल्यस्थितिवाली उदयवती कर्म-प्रकृति के रूप में बदलकर उस के दलिकों के साथ भोग लेना; इसे "स्तिबुकसंक्रम" कहते हैं)
इस "कर्मस्तव नामक दूसरे कर्मग्रन्थ के रचयिता श्रीदेवेन्द्रसूरि हैं । येदेवेन्द्रसूरि,तपागच्छाचार्य श्रीजगच्चन्द्रसूरि के शिष्य थे ॥३४॥
सत्ताधिकारः समाप्तः assRURRERASHeens
इति कर्मस्तव-नामक दूसरा कर्मग्रन्थ । SERERERERENTIPUR