________________
(२२)
चारित्र-मोहनीय कर्मका क्षपण (क्षय ) करते हैं वे क्षपक कह लाते हैं ॥६॥ सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान इस गुणस्थान में सम्पराय केअर्थात् लोभ-कषाय के-सूक्ष्म-खण्डों का ही उदय रहता है । इस लिये इसका "सूदपसम्पराय गुणस्थान" ऐसा सार्थक नाम प्रसिद्ध है। इस गुणस्थान के जीव भी उपशमक और क्षपक होते हैं । जो उपशमक होते हैं वे लोभ-कषायमात्र का उपशमन करते हैं और जो क्षपक होते हैं वे लोभ-कषाय. मात्रका क्षपण करते हैं। क्यों कि दसवें गुणस्थान में लोभ के सिवा दूसरी चारित्रमोहनीय कर्म की ऐसी प्रकृति ही . नहीं है जिसका कि उपशमन या क्षपण हुश्रान हो ॥१०॥
उपशान्तकषायवीतरागछमस्थगुणस्थानजिनके कषाय उपशान्त हुयेहैं, जिनको राग का भी(माया तथा लोभ का भी) सर्वथा उदय नहीं है, और जिनको छन (प्राव रण भूत घातिकर्म) लगे हुये हैं, वे जीव उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, तथा उन का स्वरूप-विशेष "उपशान्तकपायवीतरागछभस्थ गुणस्थान" कहाता है।
[विशेषण दो प्रकार का होता है ।१ स्वरूप विशेषण, . ओर २ व्यावर्तक विशेषण । “स्वरूषविशेपण' उस विशेषण को कहते हैं जिंस विशेषण के न रहने पर भी शेष भाग से इष्ट-अर्थ का बोध हो ही जाता है-अर्थात् जो विशेषण अपने विशेष्य के स्वरूप मात्र को जनाता है। "व्यावर्तक विशेषणं' उस विशेषण को कहते हैं जिस विशेषण के रहने से ही रष्ट-अर्थ का बोध हो सकता है-श्रर्थात् जिस विशेषण के