SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४६.) चार प्रकृतियों को घटा कर शेष कर्म-प्रकृतियों का बन्ध नववे गुणस्थान के पहले भाग में होता है । पुरुषवेद, संज्वलन - क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया और संज्वलन - लोभ इन पाँच प्रकृतियों में से एक एक प्रकृति का बन्ध-विच्छेद क्रमशः नववे गुणस्थान के पाँच भागों में से प्रत्येक भाग के अन्तिम समय में होता है, जैसेः- पूर्वोक्त २२ - कर्म - प्रकृतियों में से पुरुष-वेद का बन्ध-विच्छेद नववे गुणस्थान के पहले भाग के अन्तिमसमय में हो जाता है। इससे शेष २१ कर्म प्रकृतियों का बन्ध दूसरे भाग में हो सकता है । इन २१ कर्म - प्रकृतियों में से संज्वलन - क्रोध का बन्ध-विच्छेद दूसरे भाग के अन्तिम समय में हो जाता है । इस से शेष २० कर्म प्रकृतियों का बन्ध तीसरे भाग में हो सकता है । इन २० - कर्म - प्रकृतियों में से संज्वलनमान का बन्ध तीसरे भाग के अन्तिम समय तक ही हो सकता है, आगे नहीं; इसी से शेष १६ - कर्म प्रकृतियों का बन्ध, चौथे भाग में होता है। तथा इन १६-कर्म प्रकृतियों में से संज्वलनमाया चौथे भाग के अन्तिम समय तक ही बाँधी जाती है, आगे नहीं । श्रतएव शेष १८-कर्म-प्रकृतियों का बन्ध नवर्वे गुणस्थान के पाँचवें भाग में होता है । इस प्रकार इन १८-कर्म प्रकृतियों में से भी संज्वलन- लोभ का बन्ध नवर्वे गुणस्थान के पाँचवे भाग- पर्यन्त ही होता है, आगे दसवें आदि गुणस्थानों मैं नहीं होता । श्रतएव उन १८ कर्म-प्रकृतियों में से संज्वलनलोभ को छोड़ कर शेष १७ कर्म प्रकृतियों का बन्ध दसवे गुणस्थान में होता है ॥ ११ ॥ भावार्थ - सातवें गुणस्थान से लेकर श्रागे के सब गुणस्थानों में परिणाम इतने स्थिर और शुद्ध हो जाते हैं कि जिस से उन गुणस्थानों में आयु का बन्ध नहीं होता। यद्यपि सातवें
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy