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________________ (६१) वैत्रिय-मरीरिवति की अपेक्षा से छठे गुणस्थान में भी उद्योत नामकर्म का उदय पाया आता है.तब पाँचवे गुणस्थान तक ही उसका उदय क्यों माना जाता है ? परन्तु इसका समाधान सिर्फ इतना ही है कि जन्म के स्वभाव से उदयोस नामकर्म का जो उदय होता है वही इस जगह विवक्षित है। लब्धि के निमित्त से होनेवाला उद्योत-नामकर्म का उदय विवक्षित नहीं है। छठे गुणस्थान में उदययोग्य जो ८१ 'कर्म-प्रकृतियाँ कही हुई हैं उनमें से स्त्यानाई-त्रिक और आहारक-धिक इन पाँच कर्म-प्रकृतियों का उदय सातवें गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में नहीं होता; क्योंकि स्त्यानद्धित्रिक का उध्य प्रमादरूप है, परन्तु छट्ट से आगे किसीभीगुणस्थान में प्रमाद नहीं होता। इस प्रकार आहारक-शरीर-मामकर्म का तथा आहारक अडगोपाग-नामफर्म का उदय, आहारकशरीरं रचनेवाले मुंवि को ही होता है। परन्तु वह मुनि लब्धि का प्रयोग करनेवाला होने से अवश्य ही प्रभावी होता है। जो लब्धि का प्रयोग करता है वह उत्सुक हो ही जाता है। उत्सुकता हुई कि स्थिरता या एकाग्रता का भंग हुभा । एकाग्रता के भंग को ही प्रमाद कहते हैं इसलिये, आहारकद्विक का उक्ष्य भी छठे गुणस्थान सही माना जाता है। यपि श्राहारकशरीर बना लेने के बाद कोई मुनि विशुद्धः । अध्यवसाय से फिर भी सात गुणस्थान को पा सकते हैं, तथापि ऐसा बहुत कम होता है इस,खिये इसकी विवक्षा प्राचार्यों में नहीं की है। इसी से सातवें गुणस्थान में प्राहारक-द्विक के उदय को गिना नहीं है ॥ १४॥ १५॥ १६ ॥१७॥ , .. संमत्तंतिमसंधयण तियगच्छो चिसत्तार अपुरें। ... ..... हासाइछकतो छमाहि अनियष्ट्रियतिगं, ।। १८॥ . . .
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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