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" बँधे हुये कर्मका नप-ध्यान-श्रादि साधनों के द्वारा श्रात्मा से अलग हो जाना "निर्जरा" कहलाती है। · · जिंस वीर्य-विशेष से कर्म, एक स्वरूप को छोड़ दूसरे सजातीय स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, उस वाय विशेष का नाम "संक्रमण" है। इस तरह एक कर्म प्रकृति का दूसरी सजातीयकर्मप्रकृतिरूप वन जाना भी संक्रमण कहाता है। जैसेमतिज्ञानावरणीय कर्म का श्रृतज्ञानावरणीय कर्मरूपमें बदल जाना या श्रुतक्षानावरणीय कर्म का मतिज्ञानावरणीय कर्म रूप में बदल जाना। क्योंकि ये दोनों प्रकृतियाँ ज्ञानावरणीय कर्म का भेद होने से आपस में सजातीय हैं।] __. 'प्रत्येक गुणस्थान में जितनी कर्म प्रकृतियों का बन्ध हो सकता है, जितनी कर्म प्रकृतियों का उदय हो सकता है, जितनी कर्म प्रकृतियों की उदीरणा की जा सकती है और जितनी कर्म प्रकृतियाँ सत्तागत हो सकती हैं। उनका क्रमशः वर्णन करना, यही ग्रन्थकार का उद्देश्य है । इस उद्देश्य को ग्रन्थकार ने भगवान महावीर की स्तुति के बहाने से इस ग्रन्थ में पूरा किया है ॥१॥
- पहले गुण स्थानों को दिखाते हैं
मिच्छे सासण मीसे अविश्य देसे पपत्त अपमत्ते । नियष्टि अनियट्टि सुहुमु वसम खीण सजोगि अजोगिगुण।।२।। . . . . (मिथ्यात्वसास्वादन मिश्रमविरतदेश प्रमत्ताप्रमत्तम् ।
नित्यनिति सूक्ष्मोपशम क्षीणसयोग्यऽयोगिगुणाः।२।)