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सम्यग्मिथ्यादृष्टि ( मिश्र ) गुणस्थान - मिथ्यात्वमोह नीयके पूर्वोक्त तीन पुंजों में से जब अर्द्ध-विशुद्ध-पुंज का उदय होता है, तब जैसे गुड से मिश्रित दहीं का स्वाद कुछ अम्ल (खट्टा ) और कुछ मधुर ( मीठा ) अर्थात् मिश्र होता है । इस प्रकार जीवकी दृष्टि भी कुछ सम्यक् ( शुद्ध ) और कुछ मिथ्या (शुद्ध) श्रर्थात् मिश्र हो जाती है । इसी से वह जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र दृष्टि ) कहाता है तथा उसका स्वरूपविशेष सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (मिश्र गुणस्थान) । इस गुण स्थान के समय बुद्धि में दुर्बलता सी आ जाती है । जिससे जीव सर्वश के कहे हुए तत्वों पर न तो एकान्त रुचि करता है, और न एकान्त अरूचि । किन्तु वह सर्वज्ञ प्रणीतं तत्वों के विषय में इस प्रकार मध्यस्थ रहता है, जिस प्रकार कि नालिकेर द्वीप निवासी मनुष्य श्रोदन ( भात ) श्रादि अन्न के विषय में । जिस द्वीप में प्रधानतया नरियल पैदा 1 होते हैं, वहाँ के अधिवासियों ने चावल-आदि अन्न नतो देखा होता है और न सुना । इससे वे अदृष्ट और अश्रुत अन्न को देख कर उस के विषय में रुचि या घृणा नहीं करते । किन्तु समभाव ही रहते हैं । इसी तरह सम्यक्षमिध्यादृष्टि जीव भी सर्वज्ञ कथित मार्गपर प्रीति या अप्रीति न करके, समभाव ही रहते हैं । अर्धविशुद्ध पुंजका उदय अन्तर्मुहुर्त मात्र पर्यन्त रहता है । इस के अनन्तर शुद्ध या श्रशुद्ध किसी एक पुंजका उदय हो आता है । अतएव तीसरे गुणस्थान की स्थिति, मात्र अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण मानी जाती है ॥३॥
श्रविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान - सावद्य व्यापारों को छोड़ देना अर्थात् पापजनक प्रयत्नों से अलग हो जाना उसे विरति कहते हैं | चारित्र और व्रत, विरति ही का नाम है ।