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बन्ध पञ्चम-गुणस्थान के चरम समय तक ही होता है आगे के गुणस्थानों में नहीं होता; क्योंकि छ? आदि गुणस्थानों में उन कपायों का उदय ही नहीं है । इस लिये पाँच गुणस्थान की बन्ध-योग्य ६७ कर्म-प्रकृतियों में से, प्रत्याख्यानवरणक्रोध-आदि उक्त चार कषायों को छोड़ कर शेष ६३ कर्म. प्रकृतियों का बन्ध छठे गुणस्थानक में माना जाता है।
सातवें गुणस्थान को प्राप्त करनेवाले जीव दो प्रकार के होते हैं । एक तो वे जो छठे गुणस्थान में देव-श्रायु के बन्ध का प्रारम्भ कर, उसे उस गुणस्थान में समाप्त किये विना ही सातवें गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। और फिर सातवें गुणस्थान में ही देव-श्रायु के बन्ध को समाप्त करते हैं । तथा दूसरे वे, जो देव-श्रायु के वन्ध का प्रारम्भ तथा उसकी समाप्ति दोनों छ? गुणस्थान में ही करते हैं और अनन्तर सातवे गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। पहले प्रकार के जीवो को छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में अरति, शोक, अस्थिरनाम-कर्म, अशुभनाम-कर्म, अयश-कीर्तिनाम-फर्म और असातवेदनीय. इन छः कर्म-प्रकृतियों कावन्धविच्छेद होता है । और दूसरे प्रकार के जीवों को छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में उक्त ६-कर्म प्रकृतियाँ तथा देव-श्रायु, कुल ७ कर्मप्रकृतियों का वन्ध-विच्छेद होता है । अतएव छठे गुणस्थान की वन्ध्र-योग्य ६३-कर्म-प्रकृतियों में से अरति, शोक-श्रादि उक्त ६-कर्म प्रकृतियों के घटादेने पर, पहले प्रकार के जीवों के लिये सातवें गुणस्थान में बन्धयोग्य५७-कर्म प्रकृतियाँ शेष रहतीहै।और अरति,शोक-श्रादि उक्तद-तथा देव-श्रायु,फुल फर्म-प्रकृतियों के घटा देने पर दूसरे प्रकार के जीवों के लिये सातवेंगुणस्थान में यन्ध-योग्य ५६-कर्म-प्रकृतियाँ शेष रहती