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शब्द रखा जाय, मतलव एक ही है । परन्तु इस जगह इसकी चर्चा, केवल इसीलिए की गई है कि प्राचीन दूसरे कर्मग्रन्थ के और गोम्मटसार के दूसरे प्रकरण के नाम में कुछ भी फरक नहीं है। यह नाम की एकता, श्वेतांबर-दिगंबर प्राचार्यों के ग्रन्थ-रचना-विषयक पारस्परिक अनुकरण का पूरा प्रमाण है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि नाम सर्वथा समान होने पर भी गोम्मटसार में तो 'स्तव' शब्द की व्याख्या बिलकुल विलक्षण है, पर प्राचीन द्वितीय कर्मप्रन्थ में तथा उसकी टीका में 'स्तव' शब्द के उस विलक्षण अर्थ की कुछ भी सूचना नहीं है । इस से यह जान पड़ता है कि यदि गोम्मटसार के बन्धोदयसव-युक्त नाम का. पाश्रय लेकर प्राचीन द्वितीयं कर्मग्रन्थ का वह नाम रखा गया होता तो उसका विलक्षण अर्थ भी इस में स्थान पाता । इससे यह कहना पड़ता है कि प्राचीन द्वितीय कर्मग्रन्थ की रचना, .
गोम्मटसार से पूर्व हुई होगी। गोम्मटसार की रचना का . • समय, विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी बतलाया जाता है। प्राचीन द्वितीय कर्मग्रन्थ की रचना का समय तथा उसके कर्ता का नाम आदि शात नहीं । परन्तु उसकी टीका करने वाले श्री गोविन्दाचार्य हैं जो श्री देवनाग के शिष्य थे । श्री गोविन्दाचार्य का समय भी संदेह की तह में छिपा है पर उनकी बनाई हुई टीका की प्रति-जो वि०सं० १२८८ में ताडपत्र पर लिखी हुई है-मिलती है । इस से यह निश्चित है कि उन का समय, वि० सं०. १२८८ से पहले होना चाहिए । यदि अनुमान से टीकाकार का समय १२ वीं शताब्दी मांना जाय तो भी यह अनुमान करने में कोई आपत्ति नहीं कि ... मूल द्वितीय कर्मग्रन्थ की रचना उससे सौ-दोसौ वर्ष पहले..."
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