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(११) विकास दबता तो नहीं, पर उसकी शुद्धि या स्थिरता में अन्तराय इस प्रकार पाते हैं, जिस प्रकार वायु के वेग के कारण,दिये की ज्योति की स्थिरता व अधिकता में । आत्मा जब संज्वलन'नामके संस्कारों को दबाता है,तब उत्क्रान्तिपथ की सातवीं आदि भूमिकाओं को लाँघकर ग्यारहवीं बारहवीं भूमिका तक पहुँच जाता है। वारहवीं भूमिका में दर्शन-शक्ति व चारित्र-शक्ति के विपक्षो संस्कार सर्वथा नष्ट हो जाते है, जिससे उक्त दोनों शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। तथापि उस अवस्था में शरीर को सम्वन्ध रहने के कारण श्रात्मा की स्थिरता परिपूर्ण होने नहीं पाती । वह चौदहवीं भूमिका में सर्वथा पूर्ण बन जाती है और शरीर का वियोग होने के बाद वह स्थिरता, वह चारित्र-शक्ति अपन यथार्थरूपम विकसित होकर सदा के लिये एकसी रहती है। इसी को मोक्ष कहते हैं । मोक्ष कहीं बाहर से नहीं पाता । वह आत्मा की समग्र शक्तियों का परिपूर्ण व्यक्त होना मात्र है
मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव च । अज्ञान हृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः ॥
(शिवगोता-१३-३२) यह विकास की पराकाष्ठा, यह परमात्म-भाव का अभेद,. यह चौथी भूमिका (गुणस्थान) में देखे हुये ईश्वरत्व का तादात्म्य, यह वदान्तियो का ब्रह्म-भाव, यह जीव का शिव होना, और यही उत्क्रान्ति-मार्ग का अन्तिम साध्य । इसी साध्य तक पहुँचने के लिये श्रात्मा को विरोधी संस्कारों के साथ लड़ते झगड़ते, उन्हें दवाते, उत्क्रान्ति-मार्ग को जिन जिन भूमिकाओं पर पाना पड़ता है, उन भूमिकाओं के क्रम को ही 'गणस्थान क्रम' समझना चाहिये । यह तो हुआ गुणस्थानों का सामान्य स्वरूप । उन सब का विशेष स्वरूप थोड़े बहुत विस्तार की साथ इसी कर्मग्रन्थ की दूसरी गाथा की व्याख्या में लिख दिया गया है।
निवेदक-वीर.