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शुभ - फलो को भोगना, "उदीरणा" कहाती है। कर्म के शुभाशुभफल के भोगने का ही नाम उदय तथा उदीरणा है, किन्तु दोनों मैं भेद इतना ही है कि एक में प्रयत्न के विना ही स्वाभाविक क्रम से फल का भोग होता है और दूसरे में प्रयत्न के करने पर ही फलका भोग होता है। कर्म विपाक के वेदन को उदय तथा उदीरणा कहने का अभिप्राय यह है कि, प्रदेशोदय, उदयाधिकार में इष्ट नहीं है ।
तीसरी गाथा के अर्थ में बन्ध-योग्य १२० कर्म - प्रकृतियाँ कही हुई हैं, वे तथा मिश्र - मोहनीय और सम्यक्त्व - मोहनीय ये दो. कुल १२२ कर्म-प्रकृतियाँ उदययोग्य तथा उदीरणायोग्य मानी जाती है ।
बन्ध केवल मिथ्यात्व - मोहनीय का ही होता है, मिश्रमोहनीय तथा सम्यक्त्व - मोहनीय का नहीं। परन्तु वही मिध्यात्व; जव परिणाम- विशेष से अर्द्धशुद्ध तथा शुद्ध हो जाता है तब मिश्र - मोहनीय तथा सम्यक्त्व- मोहनीय के रूप में उदय में जाता है। इसीसे उदय में ये दोनों कर्म-प्रकृतियाँ बन्ध की अपेक्षा अधिक मानी जाती हैं।
मिश्र - मोहनीय का उदय तीसरे गुणस्थान में ही होता है । सम्यक्त्व - मोहनीय का उदय चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक हो सकता है । श्राहारक- शरीर तथा आहारकश्रङ्गोपाङ्ग नामकर्म का उदय छुट्टे या सातवें गुणस्थान में ही हो सकता है। तर्थङ्कर - नामकर्म का उदय तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में ही हो सकता है । इसीसे मिश्र-मोहनीय- श्रादि उक्त पाँच कर्म - प्रकृतियों को छोड़ शेष ११७ कर्म- प्रकृतियों का उदय पहले गुणस्थान में यथासम्भव माना जाता है १३