Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 149
________________ ( ११९ ) सगवन्न खीणदुचरिमि, निद्ददुगंतो अचरिभि परापन्ना । नाणंतरायदंसण - चड छेश्रो सजोगि बायाला ॥२०॥ तित्थुदया उरलाथिर - खगइ दुग परिप्ततिग छ संठाणा । अगुरुलहुचन्नच निमि - रातेयकम्माइसंघयणं ॥ २१ ॥ दूसर सुसर साया - सागरं च तीस बुच्छेश्रो । वारस अजोगि सुभगा- इज्जऊसन्नयरवेयणियं ॥ २२ ॥ तसतिम परिणदि मया - उगइ जिरणुच्चं ति चरमसमयतो । उद व्बुदीरणा पर - ममत्ताई सगगुणेसु ॥ २३ ॥ एसा पयडितिगुणा, वेयणियाहारजुगलथीणतिगं । भयाउ पमसंता, जोगि ऋणुदारगो भगवं ॥ २४ ॥ सत्ता कम्माण ढिई, बंधाईलद्धत्तलाभाणं । संते अडयाललयं, जा उवसमु विजिणु वियतइए ॥ २५ ॥ --- पुण्याहवउछे अण- तिरिरनिरयाउ विणु चियालसयं । सम्माइचउसु सप्तग- खयम्मि इगवत्तसयमहवा ॥ २६ ॥ • खनगं तु पप्प उसु वि, पणयास्तं नरयतिरिसुराउ चिणा । सन्त विणु अडतीसं, जा श्रनियट्टी पढमभागो ॥ २७ ॥ थावरतिरिनिरयायव - दुग थी तिगेग विगलसाहारं । सोलखप्रो दुवीससयं, वियंसि बियतियकसायंता ॥ २८ ॥ -- "" पणवन्ना" इत्यपि पाठः

Loading...

Page Navigation
1 ... 147 148 149 150 151