Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 95
________________ ( ६५ ) सगवन्न खोण-दुवारेमि निद्ददुगंतो थ चरिमि पणवन्ना । नारीतरायदंसण- चउछेश्रो सजोगि बायाला ॥ २० ॥ सप्तपञ्चाशत् क्षीराद्विचरमे निद्राद्विकान्तश्च चरमे पञ्चपश्चाशत् । ज्ञानान्तराय दर्शनचतुश्छदः सयोगिनि द्विचत्वारिंशत् ॥ २० ॥ अर्थ - श्रतएव बारहवे गुणस्थान में ५७ कर्म - प्रकृतियों का उदय रहता है । ५७ कर्म - प्रकृतियों का उदय, बारहवें गुसस्थान के द्विचरम-समय- पर्यन्त - अर्थात् अन्तिम समय से पूर्व के समय - पर्यन्त पाया जाता है; क्योंकि निद्रा और प्रचला इन दो कर्म-प्रकृतियों का उदय, अन्तिम समय में नहीं होता । इससे पूर्वोक्त ५७ कर्म-प्रकृतियों में से निद्रा और प्रचला को छोड़कर शेष ५५ कर्म प्रकृतियों का उदय बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है । ज्ञानावरणकर्म की ५, अन्तरायकर्म की ५ और दर्शनावरणकर्म की ४ - कुल १४ कर्म - प्रकृतियों का उदय, बारहवे गुणस्थान के अन्तिम समयपर्यन्त ही होता है; आगे नहीं । इससे बारहवे गुणस्थान के अन्तिम समय की उदय-योग्य ५५ कर्म-प्रकृतियों में से उक्त १४ कर्म - प्रकृतियों के घटा देने से ४१ कर्म- प्रकृतियाँ शेष रहती हैं । परन्तु तेरहवें गुणस्थान से लेकर तीर्थंकरनामकर्म के उदय का भी सम्भव है । इसलिये पूर्वोक्त ४१, और तीर्थङ्कर नामकर्म, कुल ४२ कर्म - प्रकृतियों का उदय तेरहवे गुणस्थान में हो सकता है ॥ २० ॥ भावार्थ -- जिनको कपभनाराच संहनन का या नाराच संहनन का उदय रहता है वे उपशम-श्रेणि को ही कर सकते है । उपशम-श्रेणि करने वाले, ग्यारहवें गुणस्थान- पर्यन्त ही बढ़ सकते हैं; क्योंकि क्षपकश्रेणि किये विना बारहवे गुणस्थान

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