________________
कर शेष ६६ कर्म प्रकृतियों का उदय नववे गुणस्थान में हो सकता है।
__ नववे गुणस्थान के प्रारम्भ में ६६ कर्म प्रकृतियों का उदय होता है । परन्तु अध्यवसायों को विशुद्धि बढ़ती ही जाती है; इससे तीन वेद ओर संज्वलन-त्रिक, कुल ६कर्म-प्रकृतियों का उदय नवव गुणस्थान में हो क्रमशः रुक जाता है । अतएव दसवें गुणस्थान में उदय-योग्य प्रकृतियाँ ६० ही रहती हैं। नवर्वे गुणस्थान में वेदनिक-श्रादि उक्त ६ कर्म-प्रकृतियों का उदयविच्छेद इस प्रकार होता है-यदि श्रेणि का प्रारम्भ स्त्री करती है तो वह पहले स्त्रीयेद के, पीछे पुरुष-वेदके अनन्तर नपुंसकवेदके उदय का विच्छेद करके क्रमशः संज्वलन-त्रिक के उदय को रोकती है। श्रेणिका प्रारम्भ करनेवाला यदि पुरुप होता है तो वह सब से पहले पुरुष-वेद के, पछि स्त्रीवेद के अनन्तर नपुंसकवेद के उदय को रोक कर क्रमशः संज्वलनत्रिक के उदय का विच्छेद करता है । और श्रेणि को करनेदालो यदि नपुंसक है तो सबसे पहले वह नपुंसक-वेद के उदय को रोकता है। इसके बाद स्त्रीवेद के उदब को तत्पश्चात् पुरुष-वेद के उदय को रोक कर क्रमशः संस्वलन-निक के उदव को बन्द कर देता है।
दसवें गुणस्थान में ६० कर्म-प्रकृतियों का उदय हो सकता है। इनमें से संज्वलन-लोभ का उदय, दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही होता है । इसी से संज्वलन-लोम को छोड़ कर शेष ५६ कर्म-प्रकृतियों का उदय ग्यारहवे गुणस्थान में माना जाता है ॥ १८॥ १६ ॥