Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 111
________________ (८१) कर्मप्रकृतियों की सत्ता कही हुई है। सो क्षायोपशमिकसम्यकत्वी तथा औपशमिक-लम्यकत्वी अचरमशरीरी जीव की अपेक्षा से । और जो २६वीं गाथा में १४१ कर्मप्रकृतियों की सत्ता कही हुई है,सोक्षाधिक-सम्यकत्वी अचरम; शरीरी जीव की अपेक्षा से। क्योंकि किसी भी अचरमशरीरी जीव को एक साथ सव श्रायुओं की सत्ता न होने पर भी उनकी सत्ता होने का सम्भव रहता ही है, इसीलिये उसको सय आयुओं की सत्ता मानी गई है. ॥ २७ ॥ अव क्षपकश्रेणिवाले जीव की अपेक्षा से ही नववे श्रादि गुणस्थानों में कम-प्रकृतियों की सत्ता दिखाई जाती है:थावरतिरिनिरयायव दुगथोणतिगेगविगलसाहारम् । • सोलखो दुवीसलयं वियसि बियतियकलायतो ॥२८॥ स्थावरतिर्यग्निरयातपद्धिकस्त्यानद्धित्रिकैकविकलसाप्रारम् । पोडशक्षयोद्वाविंशतिशतं द्वितीयांशे द्वितीयतृतीयकपायान्तः॥ तइयाइसु चउदसनेरबारछपणचतिहियसय कमलो। नपु इत्थि हास छगपुंस तुरिय कोह मयमाय खो ॥ २६ ॥ तृतीयादिषु.चतुर्दशत्रयोदशद्वादशषट्पञ्चचतुज्यधिकशतं क्रमशः; नपुंसकस्त्रीहास्यषदकपुस्तुर्यक्रोधमदमायातयः॥२६॥ सुहुमि दुसय लोहन्तो खाणदुचरिममेगसो दुनिइखो। नवनवइ चरमसमए चउर्दसणनाणविग्धन्तो ॥ ३०॥ सूक्ष्मे द्विशतं लोभान्तः क्षीणद्विचरम एकशतं द्विनिद्राक्षयः । नवनवतिश्चरम-समये चतुर्दर्शनशानविघ्नान्तः ॥ ३०॥ पणसीइ सयोगि अजोगि दुचरिमे देवखगह-गंधदुगं। फासटुवंनरसतणुबंधणसंघायपलनिमिणं ॥ ३१ ॥

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