Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 92
________________ (६२) सम्यक्त्वान्तिमसंहननत्रिककच्छेदो द्वासप्ततिरपूर्व । हास्यादिषटकान्तः षट्पष्टिरनिवृत्ती वेदत्रिकम् ।।१८।। संजलणतिगं छच्छेत्री सहि सुडुमंमि तुरियलोभंतो। उसंत गुणे गुणसहि रिसहनाराय दुगनंतो ॥ १६ ॥ संज्वलनंत्रिकं षट्छेदः षष्टिः सूक्ष्मे तुरियलोभान्तः। उपशान्तगुण एकोनषष्टि श्रेषभनाराद्विकान्तः ॥ १६ ॥ ___-सम्यकत्व-मोहनीय और अन्त के तीन संहनन इन ४ कर्म प्रकृतियों का उदय-विच्छद सातवे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है । इससे सातवे गुणस्थान की उदययोग्य ७६ कर्म प्रकृतियों में से सम्यकत्वमेाहनीय-आदि उक्त चार कर्म-प्रकृतियों को घटा देने पर, शेष ७२ कर्म-प्रकृतियों का उदय आठवें गुणस्थान में रहता है। हास्य, रति, अरति, भय,शोक और जुगप्साइन ६कर्म-प्रकृतियों का उदय आठवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक होता है, आगे नहीं । इससे पाठवें गुणस्थान की उदय-योग्य ७२ कर्म-प्रकृतियों में से हास्य आदि ६ कर्म-प्रकृतियों के घटा देने से शेष ६६कर्म-प्रकृतियों का ही उदय नववे गुणस्थान में रह जाता है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद नपुंसकवेद, १८ संज्वलन क्रोध, संज्वलन-मान और संज्वलन माया इन ६ कर्मप्रकृतियों का उदय, नववे गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही होता है। इससे नववे गुणस्थान की उदय-योग्य ६६ कर्मप्रकृतियों में से स्त्रीवेद आदि उक्त ६ कर्म-प्रकृतियों को छोड़कर शेष ६० कर्म-प्रकृतियों का उदय दसवें गुणस्थान में होता है। संज्वलन-लोम का उदय-विच्छेद दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है । इससे दसवें गुणस्थान में जिन ६० कर्म-प्रकृतियों का उदय होता है उन में से एक संज्वलन-लोभ के बिना शेष ५६ कर्म-प्रकृतियों का

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